संघर्षों के बीच

‘‘प्रकाश को बीच में आया देखकर मंगलसिंह समझ गए थे कि युद्ध का कमान अब पुरानी पीढ़ी से हट कर नई पीढ़ी पर आ गई है जो पुरानी पीढ़ी की स्थापित मान्यताओं को ज्यों-का-त्यों स्वीकारने को कभी तैयार नहीं होगी। बाजी भी हार चुके थे। इसलिए टकराव से अच्छा यही होगा कि समय के साथ समझौता कर सम्मानजनक स्थिति कायम रखें।’’
लोचना तो शुरू से ही खानदानी पेशा छोड़ चुका था। नाचगाने में उसकी अभिरूचि थी-सो उसी को अपना लिया। गांव के लोग उसके सामने तो कुछ नहीं, मगर पीठ पीछे उसे मेहरा कहने लगे थे। वह तो अपनी धुन में मस्त रहा करता किन्तु उसके बाप झलकुआ का सर नीचा हो जाता। झलकुआ ने लोचना को बहुत समझाया कि अगर तुझे कुम्हारी का काम अच्छा न लगता हो तो मत कर, पर नाचगाना वाला काम भी मत कर। कोई दूसरा काम कर। बाप के रोज-रोज टोकने का कुछ असर उस पर शायद पड़ा तभी कुम्हारगिरी में तो मन नहीं लगा, हां, सिनेमा के गानों की किताबें लेकर जमालपुर के बाजार में बेचने लगा था।
अब लोचना अपने परिचित पीताम्बर की चाय की दुकान के पास खड़ा होकर नए कानून की व्याख्या करके उसकी किताबें भी बेचने लगा है। शुरू में तो किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया, लेकिन इधर दो तीन बाजार से उसके चारों ओर भीड़ जुट जाती है। किताब तो लोग कम ही खरीदते हैं, उसकी बातों को ज्यादा सुनते हैं। कभी कभार यदि कोई अधिक उत्साही व्यक्ति जानकारी के लिए कुछ पूछता है तो वह कुशल अध्यापक की तरह उसे समझाने भी लगता है। किताब वही लोग खरीदते हैं जो जरा पढ़े-लिखे होते हैं। अधिकांश लोग तो सुनकर ही जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।
धीरे-धीरे कानून की बात गांव जवार के लोग जान गए थे। जान वही नहीं पाए थे जो जानना नहीं चाहते थे क्योंकि ऐसे लोग आंख मूद कर परम्पराओं का अनुकरण करने वाले थे।
चार लोग जहां बैठते, वहीं कानून की चर्चा करने लगते। दो दिन पहले आत्माराम के चौपाल में नए कानून की बात को लेकर धरीक्षन अहीर और मंगलसिंह में काफी गरमा-गरमी हो गई।
मंगलसिंह का दिमाग पहले जैसा ही था यानि वही बाबू साहब वाला रौब। उन्होंने धरीक्षन को बहुत आंख दिखाई, लेकिन उसका मुंह बंद नहीं हुआ। मंगलसिंह जितना ही गरमाते धरीक्षन भी उतना ही गरज कर बोलता। लगने लगा कि मारपीट होकर रहेगी। परंतु दो-चार और लोगों ने, जो वहां बैठे थे, बीचबचाव कर दोनों को शांत किया।
मंगलसिंह बेकार में ही तो बोल रहे थे। जब कानून बन गया तो बन गया। उसमें हेरफेर तो सरकार ही कर सकती है। नहीं तो अदालत जाओ। बेकार में मुंह लड़ाने से क्या फायदा? वही बात तो भूलासिंह कह रहे थे, लेकिन मंगलसिंह की समझ में आ नहीं रहा था। वह बोले जा रहे थे कि यह भी कोई कानून है कि किसी का पैसा लेकर वापस ही न किया जाए।
भूलासिंह ने समझाया भी कि भाई, कानून तो कानून ही है, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा। मानना तो पड़ेगा ही उसे।
‘‘ऐसे कानून को हम नहीं मानेंगे‘‘ मंगलसिंह बोले तो भूलासिंह चुप हो गए। वह मंगलसिंह की पीड़ा को समझ रहे थे इसीलिए सोचा कि जबान लड़ाने से अच्छा है चुप रह जाना।
लेकिन धरीक्षन अहीर कहां चुप रहने वाला, बोला,‘‘मंगलसिंह! आप मानोगे कैसे नहीं? क्या आपके लिए कोई अलग कानून बनेगा?’’
बहस चल ही रही थी कि आत्माराम से मिलने गोपाल पहुंच गया था। जब देखा कि उनके द्वार पर बहस चल रही है तो चुपचाप दीवार के सहारे खड़ा होकर बातें सुनने लगा।
मंगलसिंह को यही पीड़ा साले जा रही थी कि अब किसी का काम कैसे होगा। आजतक तो उन्होंने हल को हाथ से छुआ भी नहीं था। सौ बीघे की जोत थी उनकी। काम मजदूरों के ही सहारे चल रहा था। जिसको मन न आता न देते। रतनवा,मंगरूवा और गोपाल ऐसे लोग डर के मारे कुछ न बोलते। ये लोग कभी बोलने का साहस करते भी तो मंगलसिंह उनके बाप-दादा को बीस बरस पहले दिए रुपये वापस करने की बात चला देते। बेचारों के पास खाने को तो ठीक से था नहीं, रुपया कहां से वापस करते।
इस नए कानून ने तो जैसे मंगलसिंह के हाथ ही काट दिए। हाथ कट जाए और पीड़ा न हो, ऐसा तो होता नहीं। लेकिन खाली चिल्लाने से तो कुछ होगा नहीं। कुछ-न-कुछ तो उसके लिए उपचार करना ही होगा। यही बात तो धरीक्षन अहीर कह रहा था कि अब पिछली बातों को भूलकर समय के साथ चलने के लिए समझौता करना ही होगा।
आत्माराम के द्वार पर बहस सुनकर गोपाल समझ तो गया था कि अब मंगलसिंह कानून से कमजोर हो गए हैं। जबरदस्ती बेगार नहीं करा सकते। पर यह जानता था कि आज घरीक्षन अहीर जो मंगलसिंह से इतनी बहस कर रहे हैं, कल उसकी तरफ से बोलना पड़ेगा तो चुप हो जाएंगे। जैसे उनके मुंह में जुबान ही नहीं है। इतना पैसा भी उसके पास नहीं है कि मंगलसिंह से विरोध करके कचहरी जाकर मुकदमा लड़े।
गोपाल इतनी जल्दी हार मानने वाला भी कहां था। आत्माराम के द्वार से सीधे मंगरुवा के घर पहुंच गया और आवाज लगाई,‘‘मंगरू काकाऽ ओ मंगरू काकाऽऽ।’’
‘‘क्या है रे?’’ अंदर से मंगरुवा निकलकर पूछा।
‘‘काका! तुम कुछ सून्यो?’’
‘‘क्या सुन्यो?’’
गोपाल ने आत्माराम के द्वार पर सुनी बात का सार मंगरुवा को सुनाया तो मंगरूवा बोला, ‘‘क्यों रे गोपाल! तुझे झूठ बोले बिना रहा नहीं जाता क्या?’’
‘‘नहीं काका! आपकी कसम। मैं बिल्कुल सच बोल रहा हूं।’’
‘‘क्यों झूठी कसमें खा रहा है।’’ मंगरुवा को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि गोपाल के झूठ बोलने की आदत से मंगरुवा अच्छी तरह परिचित था।
‘‘काका! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं।’’ सच्चाई की पुष्टि में बोला, ‘‘इसी बात को लेकर मंगलसिंह और धरीक्षन अहीर में काफी गरमा-गरमी हो गई थी। भूलासिंह और दशरथ मिसिर भी वहां थे।
भूलासिंह का नाम आया तो मंगरुवा को कुछ विश्वास हुआ क्योंकि वह जानता था कि भूलासिंह ज्यादा इधर-उधर की बात नहीं करते। बात जो साफ होती है, उसे ही कहते हैं, चाहे लोग खुश हों या नाराज। इसीलिए मंगलसिंह जैसे लोग कहते भी कि पता नहीं ये कैसे आदमी हैं जो अपने जात-बिरादर का भी ख्याल नहीं करते। लेकिन सोचा कि ऐसे ही किसी बात पर भूलासिंह बोल पड़े होंगे। शायद गोपाल को समझ न आया हो। भूलासिंह की बात को पकड़ने के लिए पूछा, ‘‘ भूलासिंह क्या कह रहे थे?’’
‘‘भूलासिंह कह रहे थे कि मंगलसिंह जब कानून बन गया है तो उसे मानना ही पड़ेगा।‘‘ भूलासिंह की बातों को दुहराते हुए गोपाल बोला।
मंगरुवा की भी यही राय थी कि जब कानून बन गया है तो उसे मानना ही चाहिए लेकिन उसके लिए मंगलसिंह का विचार जानना आवश्यक था। इसीलिए फिर पूछा, ‘‘तो मंगलसिंह ने क्या कहा?‘‘
मंगलसिंह की बातों को ज्यों-का-त्यों रखते हुए बोला,‘‘मंगलसिंह ने कहा कि कानून बनने से क्या होता है?’’
बात भी सही है। मंगलसिंह के लिए कानून से क्या मतलब? ऐसे लोग तो पैसे के बल पर अपना अलग ही कानून चलाते हैं। गांव के सभी लोग भी तो उन्हीं की तरफ से बोलते हैं। गरीबों की तरफदारी कौन करता है। किसी से कुछ कहो भी तो कहेगा कि बड़े आदमी से लड़ने से कोई फायदा नहीं होगा, सिवाय नुकसान के। फिर कमजोर आदमी क्या करें, सिर्फ चुप रहने के अलावा। मंगरुवा भी इसीलिए चुप हो गया तो गोपाल ही स्वयं बोला, ‘‘अच्छा काका! हम चल रहे हैं। जानवरों को चारा देना होगा।’’
गोपाल चला गया तो मंगरुवा बैठकर सोचने लगा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा भी कहीं हो सकता है कि मंगलसिंह को पैसा दिए बिना उनसे मुक्ति मिल जाए। असंभव है। पर मन-ही-मन निश्चय किया कि इस बार शहर से प्रकाश आए तो उससे सही बात पूछूं क्योंकि और किसी से पूछना अच्छा नहीं। दशरथ मिसिर से पूछूंगा तो कहेंगे, ‘‘क्यों रे! मंगरुवा नियत खराब हो गई न्।’’
इसमें नियत खराब होने की क्या बात है। उसने तो कहा नहीं था कि कोई कानून बने। लेकिन जब बन ही गया है तो उसे जानने में हरज ही क्या है?
पर मात्र कानून बनने से क्या होता है जब तक उस पर अमल न हो। कानून तो दहेज के विरोध में भी बना है, लेकिन कौन मान रहा है? यही हाल इस कानून का भी होगा। क्योंकि और चाहे माने या न माने परन्तु मंगलसिंह कहां मानने वाले हैं। उनको तो जब तक पाई-पाई चुकता न कर दो, तब तक उनसे मुक्ति नहीं।
विरोध करके उनसे कौन दुश्मनी मोल ले। पुराने जमींदार हैं। लोग कहते हैं कि स्वराज के पहले अंग्रेज अफसर अक्सर पिकनिक मनाने सोन नदी के किनारे आया करते थे। उन लोगों के लिए सब प्रबंध इनके बाप ठाकुर जालिमसिंह ही करते थे। बड़े दिलदार आदमी थे। पैसा खर्च करने में संकोच नहीं करते थे। मंगलसिंह के ऊपर भी अपने बाप का कुछ प्रभाव पड़ा है। आज भी कोई हाकिम-मुख्तार गांव आता है तो इन्हीं के दरवाजे पर डेरा डालता है। गांव के लोग भी इसी कारण इनसे डरते हैं। इनसे झगड़ा करके सिर पर मुसीबत क्यों मोल लें? इसीलिए गोपाल को साहस नहीं हो रहा था कि वह मंगलसिंह से मुक्ति की बात करें। पर अंदर ही अंदर मुक्ति की कामना उफनाती रहती।
एक दिन मंगलसिंह ने उससे कहा, ‘‘ रे गोपाला! तू जाकर मंगरुवा और रतनवा से कह आ कि कल भोर में ही खेत में कटनी का काम शुरू कर दें जिससे शाम तक कुछ कटाई हो जाए।’’
मौका अच्छा है। यही सोचकर गोपाल ने मंगरुवा के पीठ पर बंदूक रखकर दागा, ‘‘सरकार! मंगरुवा कल किसी कानून की बात कह रहा था।’’
‘‘कैसा कानून?’’ मंगलसिंह ने लापरवाही से पूछा।
अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए गोपाल बोला, ‘‘हमको क्या मालूम सरकार! वही कह रहा था कि सरकार ने ऐसा कानून बना दिया है कि कोई किसी से जबरदस्ती काम नहीं ले सकता।‘‘
इस बार ठाकुर के कान खड़े हो गए क्योंकि वह भलीभांति समझते थे कि अब पहले वाली बात नहीं रही। हाथ तो कट ही गया है। फिर भी अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करना चाहते थे। कड़ककर बोले, ‘‘कानून तो रोज ही बनता है। क्या सब काम कानून से ही होता है।’’
‘‘यही तो हम भी कह रहे थे सरकार।’’
‘‘तो क्या बोला?’’ आंतरिक रूप से शंकित पर ऊपर से अप्रभावित बने ठाकुर मंगलसिंह ने मंगरुवा के हृदय की बात जानने के लिए पूछा।
ठाकुर की दृढ़ता को देखकर गोपाल की हिम्मत पस्त हो गई। सोचा था कानून की बात सुनकर मंगलसिंह टूट जाएंगे, परन्तु जब उन्हें चट्टान की तरह अडिग पाया तो बात की दिशा को मोड़ते हुए बोला, ‘‘वह तो कुछ नहीं बोला सरकार! लेकिन उसका लड़का प्रकाश है न्। वह बहुत ऐंठ रहा था।’’ फिर ठाकुर को झकझोरने के लिए कहा, ‘‘शहर में पढ़ता है सरकार! इसीलिए कानून की बातें ज्यादा करता है।’’
कानून और उसका विरोध करने का परिणाम मंगलसिंह अच्छी तरह जानते थे फिर भी इतनी जल्दी हार मान लेंगे तो खेती कैसे होगी। आज वह खेत काटने नहीं जाएगा तो फिर कल बोएगा कौन? यही सोचकर बोले,‘‘अच्छा चल! मैं देखता हूं कैसे नहीं आता।’’
गोपाल भी यही चाहता था। वह सोचता था कि अगर मंगरुवा बाजी मार ले गया तो उसी के आड़ में वह भी मुक्त हो जाएगा, नहीं तो गुलामी करनी ही है।
मंगलसिंह गुस्से में तुरंत मंगरुवा के घर पर पहुंच गए। मंगरुवा द्वार पर टूटी चारपाई पर लेटा था। ठाकुर को देखते ही उठ गया और भयमिश्रित आवाज में बोला, ‘‘बैठिये सरकार।’’
क्रोध की अग्नि में जल रहे ठाकुर को जैसे मंगरुवा की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ी। अपने धुन में बोले, ‘‘क्यों रे मंगरुवा! सुना है तूने कहा है कि अब हमारा काम नहीं करेगा।’’
एक ओर जहां गोपाल ने मंगरुवा के भीतर मुक्ति पाने के लिए चिनगारी जला दी थी वहीं दूसरी ओर उसका बेटा प्रकाश उस चिनगारी को हवा देकर ज्वाला के रूप में परिणीत कर रहा था। लेकिन अभी वह स्थिति आई नहीं थी जिससे मंगलसिंह जैसे लोगों को उसमें झुलसाया जा सके। इसीलिए डरते-डरते मंगरुवा बोला, ‘‘नहीं सरकार! हमने यह थोड़े कहा था।’’
‘‘तो क्या कहा था?’’ इतना कहकर ठाकुर गोपाल की ओर इस तरह देखने लगे। जैसे उसी से पूछ रहे हों कि बोल मंगरुवा ने क्या कहा था।
कानून और प्रकाश के दबाव में आकर मंगरुवा ने मंगलसिंह से स्पष्ट बात कहने को सोच तो लिया था; लेकिन उन्हीं को सामने खड़ा देखकर बोलने का साहस जुटा नहीं पा रहा था कि द्वार पर आवाज सुनकर घर में से प्रकाश निकलकर वहीं पास आकर खड़ा हो गया। बेटे को देखकर मंगरुवा को साहस हुआ तो बोला, ‘‘हमने तो कहा था कि अब बेगार नहीं करूंगा।’’
‘‘कैसी बेगार।’’ मंगलसिंह अंजान बनते हुए बोले!
‘‘बेगार नहीं तो और क्या है। हमारे बापू पांच सौ रुपया बहिनी के ब्याह में लिए थे। आज इतने बरस बीत गए, आपका कर्ज ज्यों-का-त्यों बना है।’’
‘‘रुपया वापस करेगा तभी तो चुकता होगा।’’ फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘लगता है, रुपया देने का विचार नहीं है।’’
‘‘पचीस बरस से आपके यहां खट रहा हूं, इसका कुछ नहीं होगा?’’ मंगरुवा किसी अज्ञात शक्ति के स्रोत से मंगलसिंह के प्रश्नों का जवाब दिए जा रहा था।
मंगलसिंह भी कुशल खिलाड़ी की तरह हार कर भी दांव पर दांव लगाए जा रहे थे। वह बोले, ‘‘तो क्या सूद नहीं देगा?’’
‘‘पचीस बरस में आपका सूद ही तो भर पाया हूं। मूल तो पड़ा ही है न?’’ मंगरुवा बोला। क्योंकि उसे कानून का कवच जो मिल गया था।
‘‘और नहीं तो क्या?’’
‘‘चाहे जो समझो आप! लेकिन बिना मजदूरी के अब काम पर नहीं आ पाऊंगा।’’ डरते-डरते मंगरुवा ने आखिर अपने दिल की बात कह दी लेकिन अप्रिय घटना घटित होने की शंका से शंकित हो गया।
मंगलसिंह स्थिति की गंभीरता से परिचित हो गए थे। वह समझते थे कि भले ही सभी हाकिम- मुख्तारों के साथ उठना बैठना है, इस बात में उनका पक्ष कोई भी नहीं लेगा। आजकल का समय ही ऐसा है। फिर भी मंगलसिंह, मंगरुवा को अपनी धौंस में लेते हुए बोले, ‘‘लगता है, तेरा दिमाग किसी ने खराब कर दिया है, तभी तू ऐसी बातें कर रहा है।‘‘ फिर रुककर कहा,‘‘देख मंगरुवा। तुझे काम नहीं करना है तो मत कर, लेकिन कल तक सब पैसा वापस कर जा, नहीं तो……।’’
काफी देर से खड़ा प्रकाश जैसे इसी अवसर की तलाश में था। मंगलसिंह की बातों को बीच में ही काट कर बोला, ‘‘नहीं तो क्या होगा ठाकुर?’’ फिर भयभीत से खड़े पिता की ओर मुखातिब होकर बोला,‘‘बापू! ठाकुर को शायद मालूम नहीं हैं कि बंधुआ मुक्ति कानून बन गया है।’’
प्रकाश को बीच में आया देखकर मंगलसिंह समझ गए थे कि युद्ध का कमान अब पुरानी पीढ़ी से हट कर नई पीढ़ी पर आ गई है जो पुरानी पीढ़ी की स्थापित मान्यताओं को ज्यों-का-त्यों स्वीकारने को कभी तैयार नहीं होगी। बाजी भी हार चुके थे। इसलिए टकराव से अच्छा यही होगा कि समय के साथ समझौता कर सम्मानजनक स्थिति कायम रखें।
पुरानी परम्पराओं से जुड़े होने के कारण मंगलसिंह जहां यह बोले, ‘‘देखता हूं कैसे नहीं पैसे वापस करता,’’ वहीं दूसरी ओर यह बुदबुदाते हुए चले गए,‘‘ आजकल के लड़कों को बोलना भी नहीं आता। फिर किसी की इज्जत करना क्या जानें।’’
मंगलसिंह के जाते ही मंगरुवा प्रकाश से बोला, ‘‘बेटा! तू न होता तो शायद हमें इस जिंदगी में मंगलसिंह से मुक्ति न मिलती।’’
मंगरुवा को शायद अपनी पीढ़ी के प्रति मोह उमड़ आया था, इसीलिए बोला, ‘‘लेकिन तुझे मंगलसिंह से इस तरह बातें नहीं करनी चाहिए थीं।’’

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