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नया विधेयक, बैंक ग्राहक और जमापूंजी

by गंगाधर ढोबले
in आर्थिक, जनवरी २०१८, तकनीक, देश-विदेश
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बैंकों से जुड़े एक विधेयक ने देशभर में बेचैनी फैला दी है. सोशल मीडिया और सरकार विरोधी अखबार और चैनल इसे सरकार विरोधी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. भविष्य में पिशाच की लपेट में आने का आभास दिखाकर लोगों का वर्तमान बिगाड़ने में तुले हुए हैं. यथार्थ तो यह है कि आलोचना का पहाड़ खड़े करनेवालों ने मूल विधेयक को कितना पढ़ा यह खोज का विषय हो सकता है. इनमें से कई को तो आर्थिक विषय की बारीकियां तक पता नहीं हैं; फिर भी अफवाहें फैलाए जा रहे हैं. यह डर दिखाया जा रहा है कि जो विधेयक लाया गया है उससे मोदी सरकार ने जनता के बैंकों में रखी जमापूंजी पर डकैती डालने की सोच रखी है. कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि नोटबंदी, जीएसटी के बाद अब धनबंदी लायी जा रही है.
मूल बात जिस नए विधेयक की है उसका नाम ‘फाइनेंशियल रिजोलूशन एण्ड डिपॉजिट इंश्योरेंस विधेयक २०१७’ है. इसे संक्षेप में ‘एफआरडीआई बिल’ भी कहते हैं. पिछले अगस्त में इसे लोकसभा में पेश किया गया और अब संसद की संयुक्त प्रवर समिति के समक्ष विचारार्थ भेजा गया है. समिति की सिफारिश आनी हैं. सरकार पहले इसे संसद के इसी शीतकालीन सत्र में पारित करना चाहती थी. लेकिन विरोध को देखते हुए इसे विलम्बित कर अब बजट सत्र में रखा जाएगा. इस विधेयक में ऐसा क्या है कि लोगों को बैंकों में रखी अपनी जमापूंजी की चिंता होने लगी? किन्ही मोमबत्तीछाप संगठन की किसी शिल्पा श्री ने इस विधेयक के खिलाफ चेंज.ओआरजी के बैनर तले ऑन-लाइन अभियान चलाया और कहते हैं कि कई लाख लोगों ने इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. लेकिन बहुतों को पता ही नहीं है कि नये विधेयक में जो प्रावधान किए गए हैं वे पुराने कानून जैसे तो हैं ही, ग्राहकों को कुछ अतिरिक्त सुरक्षा भी प्रदान की जा रही है. कांग्रेस सरकारों के जमाने में बने डिपॉजिट इंश्योरेंस एण्ड क्रेडिट कार्पोरेशन कानून १९६१ के तहत बैंक ग्राहक को केवल एक लाख रु. जमापूंजी की सुरक्षा दी गई थी. बैंक डूबने की स्थिति में एक लाख से अधिक की जमापूंजी डूबनी ही थी. जब यह प्रावधान बरसों से हैं, तब लोगों को उनकी जमापूंजी डूबने का खतरा क्यों महसूस नहीं हुआ? अब वह इसलिए हुआ क्योंकि धारा ५२ में नये निगम को यहां तक अधिकार दिया गया है कि चाहे तो वह इस एक लाख रु. को अदा करने से भी मना कर दें. सारा हंगामा इसी धारा को लेकर है. इस धारा पर पुनर्विचार के संकेत हैं. मुंबई ग्राहक पंचायत ने विधेयक की अन्य धाराओं में से ३६(८), ४२, ४४, ४८, और ५३ के प्रावधानों का भी विरोध किया है. उसका आरोप है कि इस विधेयक के कारण वित्तीय व्यवस्था में एक महानियंत्रक स्थापित होने का खतरा पैदा हो गया है.
इस विधेयक की पृष्ठभूमि में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट है. सब जानते हैं कि सन २००८ के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था किस तरह रसातल को पहुंच गई थी. इसका प्रभाव यूरोप और विश्व के अन्य देशों पर भी पड़ा. सबकी वित्तीय सेहत बिगड़ गई. अमेरिका का लेहमन ब्रदर्स बैंक डूब गया. साइप्रस के बैंक संकट में पड़ गए. इटली और यूनान के वित्तीय संस्थानों की मूल पूंजी ही शून्य हो गई. चहुंओर डूबत कर्जों के अंबार लग गए. इससे पार पाने के दो ही रास्ते थे- या तो इन बैंकों को डूबने दिया जाए और उनका समापन कर दिया जाए अथवा उन्हें सरकार की ओर से धन मुहैया कराया जाए ताकि वे फिर से खड़े हो सके. चूंकि बहुत सारे देशों में बाजारोन्मुख व्यवस्था है, अतः सरकार ने ऐसे बैंकों की सीधे कोई मदद नहीं की. लोगों के पैसे डूब गए. हां, वित्तीय क्षेत्र की सेहत में सुधार के लिए सरकार ने कठोर अनुशासनात्मक कदम उठाए. जापान जैसे कुछ देशों ने तो बैंकों में धन रखनेवालों को ब्याज देना बंद कर दिया और उल्टे धन की सुरक्षा के नाम पर सेवा-शुल्क लेना शुरू कर दिया.भविष्य में ऐसी समस्या उत्पन्न होने के अवसर घटाने के लिए जी-२० देशों के समूह ने सदस्य देशों से वित्तीय अनुशासन की रूपरेखा बनाने के लिए कहा. जी-२० विश्व के सबसे बड़े २० देशों का समूह है, जिसका भारत भी एक सदस्य है. अतः वित्तीय अनुशासन भारत का भी एक वैश्विक कर्तव्य है. जी-२० ने नई व्यवस्था की मॉडेल रूपरेखा अपने सदस्य देशों को भेजी है. सदस्य देशों को अपनी स्थितियों के अनुकूल थोड़े-बहुत अंतर से नये प्रावधान बनाने हैं. नया विधेयक इसी का एक अंग है.
नये विधेयक में ग्राहकों की सुरक्षा के वर्तमान प्रावधान वैसे ही कायम रखे गए हैं. उनमें केवल दो तरह के परिवर्तन किए गए हैं. एक परिवर्तन है वर्तमान डिपॉजिट इंश्योरेंस एण्ड क्रेडिट कार्पोरेशन को खत्म कर नया फाइनेंशियल रिजोलूशन एण्ड डिपॉजिट इंश्योरेंस कार्पोरेशन गठित करना. पुराना निगम केवल बीमाकृत राशि तक सीमित था, लेकिन नया निगम बैंकों की रुग्णता की स्थिति में समय रहते कदम उठाएगा. उसे पुराने निगम की तुलना में अधिक अधिकार होंगे. इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसे नये निगम का कोई एक सीईओ होगा और उसकी कलम की एक फटकार से कोई बैंक डूब जाएगा और लोगों के पैसे स्वाहा हो जाएंगे. उसकी एक प्रक्रिया होगी. सभी सम्बंधितों का निगम में प्रतिनिधित्व होगा. सबकी बात सुनी जाएगी. सरकार भी अपने सुझाव पेश करेगी. और, जब कोई रास्ता ही नहीं बचेगा, तब बैंक के समापन की अनुमति दी जाएगी. वर्तमान कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. इसलिए मृतप्राय वित्तीय संस्थान भी जैसे-तैसे अपने को ढकेलते रहते हैं और उन पर कर्ज का इतना बोझ बढ़ जाता है कि देनदारी चुकता ही नहीं की जा सकती. औद्योगिक फर्मों एंव कम्पनियों की रुग्णता की स्थिति में उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए बोर्ड ऑफ इण्डस्ट्रियल एण्ड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन (बीआईएफआर) नामक संस्था है. लेकिन वह भी लगभग विफल बन चुकी है. मुंबई की हड़ताल के बाद बंद पड़ी मिलों को बीआईएफआर खड़ा नहीं कर सका, जबकि इन मिलों के पास जमीन आदि के रूप में काफी सम्पदा थी. वित्तीय संस्थानों की स्थिति ऐसी नहीं होती, अतः इसके लिए नये निगम के रूप में व्यापक व्यवस्था का प्रावधान है.
दूसरा जो बदलाव विधेयक में है वह है ‘बेल-इन’ (संकट से उबरने की आंतरिक व्यवस्था) और ‘बेल-आऊट’ (सरकार की ओर से धन मुहैया कराकर संकट से उबारना). बेल-इन और बेल-आऊट इन शब्दावलियों को ठीक से जानने की जरूरत है. अब तक देश में ‘बेल-आऊट’ ही चलता रहा है. सरकारी प्रतिष्ठानों का बोलबाला था और लोग मानकर चलते थे कि वित्तीय संकट की स्थिति में सरकार बजट से धन मुहैया कर देगी और प्रतिष्ठान चलता रहेगा. सरकारी बैंकों को हर बार सरकार धन मुहैया कराती रही है. स्टेट बैंक को तो हाल में लाखों करोड़ रु. की पूंजी सरकार ने मुहैया कराई है. यह टैक्स से जुटाया गया जनता का ही धन है, जो विकास के काम में लगने के बजाय कुछ शातिर लोगों के पेट का निवाला बन गया. बताया जाता है कि स्टेट बैंक में डूबत कर्जे कोई २.११ लाख करोड़ रु. के हैं और वित्त मंत्री ने उसकी भरपाई का प्रावधान भी किया है. बड़े-बड़े उद्योगों ने सरकार से कर्जे ले लिये और अपनी फर्में या कम्पनियां रुग्ण कर दीं तथा बैंकों का धन डकार गए. उनका भट्टा बैठने की स्थिति आ गई और सरकार को उन्हें बचाने आगे आना पड़ा. यदि ऐसा न होता तो? ग्राहकों की जमापूंजी का क्या होता, यह सवाल तब किसी ने नहीं पूछा. वर्तमान कानून के तहत लोगों को महज एक लाख रु. ही मिलते, बाकी रकम डूब जाती. क्योंकि ‘बेल-इन’ जैसी कोई आंतरिक व्यवस्था मौजूद नहीं थी. नये निगम के रूप में इसे कायम किया जा रहा है.
अब ‘बेल-इन’ शब्दावली को जानें. ‘बेल-इन’ का माने है, संकट की घड़ी में रुग्ण बैंक की आंतरिक वित्तीय पुनर्रचना और अनुशासन की व्यवस्था. इस व्यवस्था के अंतर्गत संकटापन्न बैंक या वित्तीय फर्म की सम्पदाओं और देयताओं का अंतरण, अन्य स्वस्थ बैंक या फर्म में उसका विलय, अथवा उसका समापन शामिल है. कर्ज की आंतरिक स्रोतों के आधार पर पुनर्रचना कर उसे चुकता करना है. इसे इस तरह अमल में लाया जाएगा- १. नया निगम संकट में पड़ी फर्मों के कर्ज को अदा करने से इनकार कर देगा, २. ऐसी फर्म की देनदारी के बदले सम्बंधितों को फर्म के शेयर देने जैसे कदम उठाये जा सकते हैं, ३. जिन फर्मों की सेवाओं की देशहित में जरूरत है और जिन्हें बेचना संभव नहीं है, ऐसी फर्मों को बचाने के उपाय करेगा, और ४. उसके घाटे की प्रतिपूर्ति कर दी जाएगी ताकि वह अपना कामकाज सुचारू रूप से कर सके और बाजार का विश्वास कायम रह सके.
वर्तमान कानून में ‘बेल-इन’ का कोई प्रावधान नहीं है. यदि कोई बैंक डूब जाता है तो उसका अन्य स्वस्थ बैंक में विलय किया जाता है अथवा उसका समापन कर दिया जाता है. यदि बैंक के डूबने की स्थिति में उसके पास सम्पदा न बची हो तो बैंक के जमाकर्ताओं की जमापूंजी डूब सकती है. वर्तमान कानून के अंतर्गत बीमाकृत राशि १ लाख रु. है, जो अवश्य प्राप्त होगी और इसके अतिरिक्त राशि स्वाहा हो जाएगी. फर्म को ‘बेल-इन’ करने के सीमित अधिकार ही नये निगम के पास होंगे. बहरहाल, बैंक के जमाकर्ताओं समेत अन्य धनकों के हितों की रक्षा के लिए कुछ कदम भी उठाए गए हैं.
समापन की स्थिति में निम्न प्राथमिकता क्रम से रकम की अदायगी की जाएगी- १. बीमाकृत जमाराशि का भुगतान, २. संकट निवारण लागत (समापन लागत समेत), ३. कामगारों की २४ माह की देय राशि और सुरक्षित धनको, ४. कर्मचारियों को १२ माह का वेतन, ५. अबीमाकृत जमाराशि और बीमा राशि, ६. अनारक्षित धनको, ७. सरकारी अदायगी, शेष सुरक्षित धनको, ७. शेष देनदारी एवं देयता, और अंत में ८. शेयरधारक. इन प्रावधानों में जमाकर्ताओं की बीमाकृत राशि अर्थात एक लाख रु. ही सुरक्षित होगी; शेष राशि डूब सकती है.
नये निगम को यह अधिकार होगा कि जमाकर्ता को कितनी राशि लौटानी है या नहीं लौटानी है इसका फैसला करे. विधेयक की धारा ५२ में तो यहां तक प्रावधान है कि आपको प्राप्त एक लाख रु. बीमा-सुरक्षा भी रद्द की जा सकती है. धारा ५२ के स्पष्टीकरण २ में कहा गया है-“The purpose of bail-in is to absorb the losses incurred, or reasonably expected to be incurred, by the covered service provider and to provide a measure of capital for it so as to enable it to carry on business for a reasonable period and maintain market confidence in it.” अगली धारा ५३ में प्रतिभूतियों के संदर्भ में बेल-इन के अंतर्गत अधिकारों का जिक्र है, जो बहुत तकनीकी होने के कारण इन पर यहां चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है. कुल मिलाकर धारा ५२ के प्रावधान को लेकर आम लोगों को चिंता है, जिस पर सरकार को गौर करना चाहिए.
इस विधेयक में अन्य प्रावधान और लक्ष्य इस प्रकार हैं-
१. वित्तीय संकट की स्थिति से निपटने के लिए ‘रिजोलूशन कार्पोरेशन’ के नाम से एक नया निगम गठित किया जाएगा, जो वर्तमान डिपॉजिट इंश्योरेंस एण्ड गारंटी कार्पोरेशन का स्थान ले लेगा.
२. नया निगम वित्तीय प्रणाली के स्थैर्य और स्वस्थता के लिए काम करेगा, उचित सीमा तक ग्राहकों के धन की सुरक्षा करेगा तथा जनता के धन की भी यथासंभव सुरक्षा करेगा.
३. वित्तीय क्षेत्र की सुचारूता के लिए संहिता बनाई जाएगी और संकट की स्थिति से उबरने के लिए अर्थव्यवस्था में एक व्यवस्था कायम की जाएगी.
४. वित्तीय संस्थान के संकट में पड़ने पर ग्राहकों के हितों की अधिकाधिक रक्षा की जाएगी. संकट से उबरने के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग पर सीमा लगाई जाएगी.
५. अर्थव्यवस्था में वित्तीय स्थैर्य को बनाए रखने के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएंगे और उसी समय संकट का सामना करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे.
गुजरात चुनाव के दौरान विपक्ष ने यह मामला जोरशोर से उछाला. विधेयक के कारण जनता के धन की लूट की अफवाहें फैलाई गईं. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को बार-बार कहना पड़ा कि जमाकर्ताओं के धन की पूरी सुरक्षा की जाएगी. वित्त मंत्रालय ने कहा कि, ‘अफवाहों पर भरोसा न करें. सरकारी बैंकों को २.११ लाख करोड़ की पूंजी मुहैया की जा रही है. इसलिए कोई बैंक डूबने की स्थिति में नहीं है. जनता को चिंता करने की जरूरत नहीं है. उनकी जमापूंजी सुरक्षित है.’ वित्त मंत्री ने तो यहां तक कहा कि नए विधेयक में जमाकर्ताओं की सुरक्षा की पुरानी व्यवस्था तो कायम रखी ही गई है, नई सुरक्षा भी प्रदान की गई है.
इसमें धारा ५२ के प्रावधानों के कारण अधिक चिंता है. बैंकों के कर्ज डूब गए इसमें जमाकर्ताओं का क्या दोष? यह चोर को छोड़कर संन्यासी को सुली चढ़ाने जैसा हो गया. लोग सरकारी बैंकों को सुरक्षित मानते थे और उसमें अपना धन रखते थे. लोग मानकर चलते थे कि संकट की घड़ी में सरकार आगे आएगी. नये प्रावधानों के कारण अब वैसा नहीं होगा, इससे लोग चिंतित हैं. बैंक को वित्तीय संकट में डालनेवाले बच गए और आम आदमी अपनी जीवनभर की जमापूंजी खोने की स्थिति में आ गया. इससे बाजारवाद के नाम पर पूंजीवाद को संरक्षण देने जैसी स्थिति हो जाएगी.
इतना जरूर है कि पिछली कांग्रेस सरकारों के कारण जर्जर हुई अर्थव्यवस्था को मोदी सरकार पर कंधा देने की नौबत आ गई. सरकार की मंशा के बारे में किसी को संदेह नहीं है, लेकिन वित्तीय अनुशासन के चलते जनसाधारण की पसीने की कमाई की लूट न हो यह देखना सरकार का कर्तव्य है. अतः लोगों में सरकार के प्रति विश्वास का माहौल पैदा होना चाहिए, संदेह का नहीं. लोगों को यह न लगे कि आज वाणिज्यिक बैंकों के साथ यह स्थिति है, कल सहकारी बैंकों के साथ भी ऐसा ही हो सकता है. इस स्थिति पर सरकार अवश्य गौर करेगी, इसे मानने में क्या हर्ज है?

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