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गीतों की रिमझिम

गीतों की रिमझिम

by डॉ. मेघा भारती 'मेघल'
in फिल्म
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कहते हैं कि शब्दों में बहुत ताकत होती है इतनी की अगर प्रेम के हों तो ज़िन्दगी खुशियों से रौशन हो जाती है और अगर नफ़रत की हों तो वही ज़िन्दगी अंधेरे में डूब जाती है। शब्द ही हैं जो अपने पराये का भेद समझा जाते हैं। कभी तन्हाई में याद आएं तो हँसा जाते हैं, या रुला जाते हैं। शब्दों से तेज़ न कोई मरहम है ना शब्दों से तेज़ कोई तलवार। शब्दों के इसी ताने बाने से बुने, सुरों में बंधकर हमारे हर मूड के साथी होते हैं गीत। इस बात से शायद ही कोई इनकार करे। जीवन को रस देती है गीतों की ये रिमझिम। और यही वजह है कि लोग कहते हैं – गीतों में दुनिया के हर गम को भुला देने की ताकत होती है, हर खुशी को दोगुना करने की क्षमता होती है।

गीतों ने हम सभी के जीवन में एक ख़ास जगह बनाई है विशेष रूप से बॉलीवुड गीतों ने। विश्व भर में बहुत सी भाषाओँ में जहाँ अनगिनत गीत लिखे जाते रहे हैं, वहाँ सर्वाधिक लोकप्रियता भारत से लिखित गीतों को मिली है। लोकगीतों से तो यह ख्याति मिली ही है- लेकिन बॉलीवुड गीतों का इसमें सर्वाधिक योगदान है। हिंदी और उर्दू मिश्रित इन बॉलीवुड गीतों की लोकप्रियता हर देश में शीर्ष पर रही है। फिर चाहे वो “मेरा जूता है जापानी” हो,  या  “ज़िन्दगी कैसे है पहेली हाए” या “किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार” या “इतनी शक्ति हमें देना दाता” या फिर “जब प्यार किया तो डरना क्या” हो। इन् गीतों ने हमेशा ही फिल्मों की प्रसिद्धि में चांद तारे लगाने का ही काम किया है। और सुनने वालों को दिया है उनकी खुशियों और गमों का वफ़ादार साथी लेकिन तेज़ी से विकास की ओर बढ़ते देश के कदमों ने विकास और नवीनता के नाम पर बॉलीवुड के इन् सुन्दर गीतों पर प्रहार करना शुरू किया तो इनकी आत्मिक अपील कहीं गुम सी हो गई।

एक वक्त था जब कभी रेडियो पर ये गीत बजते तो गीतों की ये श्रृंखला कभी फूलों की माला से कम नहीं लगती थी । लेकिन आजकल अपशब्दों से भरा एक भद्दा पिटारा सा बनकर रह गए हैं अधिकतर गीत। और ये बदलाव भी यकायक नहीं आया, धीरे-धीरे ही लाया गया – पहले ‘इश्क़’ इबादत की जगह ‘कमीना’ हुआ, फिर ‘दिल एक मंदिर’ की जगह ‘बदतमीज़’ हो चला और ‘ख़ाली हाथ आये थे, हम खाली हाथ जाऐंगे’ की जगह ली ‘क्या घंटा लेके जाएगा’  ने। सोचने की बात है कि जिन गीतों पर हमारा सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन इतना निर्भर करता है, उनकी रचना के लिए अपशब्दों का प्रयोग इतना ज़रूरी हो गया है कि अपनी आने वाली पीढ़ी को हम क्या देने वाले हैं, इसके बारे में सोचना भी हम ज़रूरी नहीं समझ रहे। ‘चार बोतल वोडका’ गीत बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर है ये आश्चर्यजनक नहीं, आश्चर्यजनक ये है कि माता पिता को इससे कोई आपत्ति नहीं है।

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में गीतों की दुनिया में अपना नाम बनाये रखना मुश्किल है। हर गीतकार चाहता है कि उसका रचा गीत हर किसी की ज़ुबान पर चढ़ जाए- बच्चों से लेकर बूढ़ों तक। और इसलिए इस तरह के गीत रचे जा रहे हैं, ऐसा एक सर्वे से जानकारी मिली। तो फिर क्या इसका ये अर्थ निकाला जाए कि आजकल हम सब की ज़ुबान ही खराब हो चली है? नहीं, निश्चित ही ऐसा नहीं है क्योंकि जब-जब इन अपशब्दों से भरे गीतों के बीच से कभी कुछ सुन्दर निकल के आया है तो वो गीत भी जनता का प्रिय बना है। कारण बिल्कुल स्पष्ट है- प्रेम और अच्छाई के दो बोल आज भी हज़ार बुरे शब्दों पर भारी हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि ‘ एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल…’

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