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आना तो मोदी को ही है।

आना तो मोदी को ही है।

by अवधेश कुमार
in मई २०१९, राजनीति
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अभी तक हुए मतदान से बहुमत किस दिशा में जा रहा है इस बारे में एकदम कोई स्पष्ट निष्कर्ष निकालना कठिन है। यह पूरा चुनाव दो विपरीत विचारधाराओं के बीच का चुनाव बन गया है। विपक्षी दलोंं की भूमिका से इस चुनाव का मूल स्वर नरेन्द्र मोदी हटाओ और नरेन्द्र मोदी को बनाए रखो बन चुका है। मोदी का नाम ही पक्ष और विपक्ष दोनों में आलोड़न पैदा करता है। आप उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम चले जाइए जहां भाजपा मुख्य लड़ाई में नहीं है वहां भी नरेन्द्र मोदी सबसे बड़ा मुद्दा हैं। 1971 के अलावा किसी एक नेता के ईर्द-गिर्द इस तरह चुनाव नहीं हुआ था।

वर्तमान चुनाव में विपक्ष ने मोदी हटाओ के नाम पर जगह-जगह गठबंधन किया है तथा एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते हुए भी इस बात पर एक राय बन चुकी है कि चुनाव परिणाम के बाद यदि भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तो फिर हम साथ सरकार बनाएंगे। प्रथम दौर के चुनाव के बाद ही चन्द्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर फिर से 21 दलों को साथ लेकर बैठक की और ईवीएम का मुद्दा उठाया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा ईवीएम मामले पर दिए गए फैसले के एक सप्ताह अंदर ही इस तरह बैठक करके ईवीएम के साथ 50 प्रतिशत वीवीपैट का मिलान कराने तथा भविष्य में मतपत्रों से चुनाव कराने की मांग को लेकर वे पुनः चुनाव आयोग एवं उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे। ईवीएम पर आयोग या उच्चतम न्यायालय अपना फैसला बदलने वाला नहीं है यह साफ है किंतु इस बहाने आपस में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले विपक्षी दलों का साथ आना एक राजनीतिक रणनीति है। प्रश्न है कि क्या इस तरह की रणनीति से मतदाता प्रभावित होंगे और नरेन्द्र मोदी हटाओ का इनका उद्देश्य पूरा होगा?

अभी तक चुनाव में यद्यपि कई राज्यों में मतदान कुछ कम हैं लेकिन कुल मिलाकर 69 प्रतिशत के आसपास रेकॉर्ड मतदान हो रहा है। 2014 में 66.4 प्रतिशत रिकॉर्ड मतदान हुआ था। मतदाता उस रेकॉर्ड को यदि पीछे छोड़ रहे हैं तो इसका अर्थ यही है कि मोदी बचाओ और मोदी हटाओ के नाम पर आलोड़न हुआ है और दोनों पक्षों के मतदाता निकलकर बाहर आ रहे हैं। इस दौरान कुछ ऐसे प्रसंग भी मिल रहे हैं जो परिणामों के संदर्भ में काफी भ्रम पैदा करते हैं। उदाहरण के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश के चुनाव में लोगों से मिलिए तो वे कह रहे हैं कि आएगा तो मोदी ही, आना तो मोदी को चाहिए। उनसे पूछा कि आप वोट किसे दे रहे हो? जवाब था, सर, समाज ने तो गठबंधन को वोट देना तय किया है। अरे, अगर वोट ही नहीं दोगे तो मोदी जीतेगा कैसे? सर, जीतेगा तो वही। हमारा सांसद तो कभी गांव आता ही नहीं पर समाज का फैसला है। समाज यानी जाति। यह भी चुनाव की एक प्रवृत्ति है। हालांकि कोई जाति पूरी तरह एकपक्ष में चली जाए यह संभव नहीं। सभी जातियों में भाजपा के सदस्य और नेता हैं। वे तो कुछ काम कर ही रहे हैं। किंतु यह प्रवृत्ति का ऐसा प्रत्यक्ष उदाहरण है जो सावधान करता है कि जल्दबाजी में कोई आकलन नहीं किया जाए।

भाजपा ने अपने घोषणा पत्र तथा नेताओं के भाषणों द्वारा संकेतों में हिन्दुत्व को चुनावी मुद्दा बना दिया है। राष्ट्रवाद को सबसे ऊपर आच्छादित करने की रणनीति का असर भी है और उसके साथ विकास की छौंक तो है ही। नरेन्द्र मोदी स्वयं भाषणों में कह रहे हैं कि राष्ट्रवाद जैसे पवित्र विचार को विरोधियों ने उग्र राष्ट्रवाद का गंदा स्वरुप दे दिया। वे पाकिस्तान की सीमा में घुस कर बमबारी करने से लेकर अपनी सरकार द्वारा विकास कार्यों का विवरण भी दे रहे हैं। बसपा प्रमुख मायावती द्वारा देवबंद में मुसलमानों का नाम लेकर उनके गठबंधन को वोट देने तथा किसी झांसे में न आने की खुलेआम अपील तथा कांगेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा बिहार के सीमांचल में यह कहना कि मुसलमानों, आप 64 प्रतिशत हो संगठित रहो, और वोट डालो…..की विपरीत प्रतिक्रिया भी हो रही है। मायवती और बाद में सिद्धू ने भाजपा को बिना परिश्रम के मुद्दा थमा दिया है। हालांकि चुनाव आयोग की सख्ती के कारण नेताओं को बहुत सोच-समझकर बोलना पड़ रहा है, पर अंतर्धारा में यह भाव मौजूद है कि अगर मुसलमान एक ओर जाकर मतदान कर रहे हैं तो हमें भी एकजुट हो जाना चाहिए। यह बात अलग है हिन्दू समाज का जातीय चरित्र ऐसा होने नहीं देता। बावजूद कुछ असर तो होना चाहिए। पश्चिम उत्तर प्रदेश में बढ़ता मतदान प्रतिशत कहीं इस ध्रुवीकरण का परिणाम तो नहीं। पश्चिम बंगाल इस विचार की सबसे तीखी युद्धभूमि बनी हुई है। जिस तरह तृणमूल कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ता खुलेआम हिंसा, धमकी और मतदान केन्द्रोंं पर कब्जा कर रहे हैं उससे लगता है कि वहां का वातावरण काफी बदला हुआ है। भाजपा, कांग्रेस एवं वाम दल एक दूसरे के खिलाफ सब जगह आक्रामक हैं, पर पश्चिम बंगाल में उनकी आवाज एक है। जगह-जगह तृणमूल के साथ इनकी भिड़ंत हो रही है। कांग्रेस वहां न के बराबर है। उनके लोग थोड़ा-बहुत विरोध करते हैं और मुकाबला न करने के कारण पीछे हट जाते हैं। वाम दल भी अड़ने की कोशिश करते हैं। वे कांग्रेस से थोड़ा ज्यादा मजबूत हैं, लेकिन तृणमूल के मुकाबले कमजोर। कई जगह भाजपा के लोग तृणमूल से मोर्चा लेते देखे गए। इसका मतलब भाजपा कुछ जगहों पर वहां सशक्त स्थिति में आई है। किंतु ऐसे अनेक मतदान केन्द्रों से मीडिया रिपोर्ट कर रही है कि मतदाताओं के पहुंचने के पहले ही उनका मत डल चुका था।

वस्तुतः चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद हर चुनाव में राजनीतिक पार्टियां विजय के लिए हरसंभव अपवित्र उपायों का सहारा लेने की कोशिश करतीं हैं। इस बार ऐसा लग रहा है जैसे विपक्ष की कुछ पार्टियां करो या मरो की तर्ज पर चुनाव लड़ रहीं है। यह अस्वाभाविक इसलिए नहीं है क्योंकि 2014 के चुनाव में कुछ पार्टियों के चुनावी अस्तित्व तक पर खतरा पैदा हो गया। उदाहरण के लिए बसपा का एक भी उम्मीवार नहीं जीता। उत्तर प्रदेश से सपा में मुलायम परिवार के केवल पांच सदस्य ही संसद पहुंच पाए। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 5 सीटों तक सिमट गई। लालू यादव की राजद को केवल दो सीटें मिलीं। उत्तर प्रदेश में अजीत सिंह के रालोद का भी नामलेवा नहीं रहा। तमिलनाडु में द्रमुक के साथ अनेक क्षेत्रीय पार्टियों को विजय नसीब नहीं हुई। माकपा केवल 7 सीटें पा सकीं। जम्मू कश्मीर से नेशनल कॉन्फ्रेंस साफ हो गई। और देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस 44 पर आ गई। उसे केवल 17 प्रतिशत वोट मिले। इन सारी पार्टियों के सामने अपने अस्तित्व बचाने का प्रश्न है।

इन सबका सामूहिक मनोविज्ञान यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी आ गए तो उनका राजनीतिक जीवन खत्म हो सकता है। दूसरी और कुछ पार्टियां हैं जिनके नेता भविष्य में सरकार का नेतृत्व करने या सरकार गठन में मुख्य भूमिका निभाने का सपना देख रहे हैं। उदाहरण के लिए ममता बनर्जी और शरद पवार। इनके लिए एक ही मुद्दा है, नरेन्द्र मोदी। अभी तक के मतदान में ऐसा लग रहा है मानो ये सब अपनी-अपनी जगहों से मोदी और भाजपा पर टूट पड़े हैं। किसी तरह चुनाव जीतना है। चुनाव आयोग से तू डाल-डाल हम पात-पात का खेल खेला जा रहा है। हालांकि कुछ मुद्दे चुनाव के दौरान ऐसे उठाए गए हैं जिनका शायद विपरीत असर भी हो। राहुल गांधी ‘चौकीदार चोर है’ का नारा हर मंच से लगाते हैं। मध्यप्रदेश में चुनाव आयोग ने इस प्रकार के विज्ञापन पर रोक भी लगा दी। भाजपा ने इसके विरुद्ध ‘मैं भी चौकीदार हूं’ का नारा दिया और मोदी अपनी चुनावी सभाओं में जिस तरह चौकीदार का नारा लगवा रहे हैं उनसे कार्यकर्ता और समर्थकों में उत्साह पैदा होता है। इस बीच कलाकारों, साहित्यकारों, पूर्व नौकरशाहों तथा सेना के पूर्व अधिकारियों के नाम से भाजपा को वोट न देने की अपील की गई तो सेना के दुरुपयोग की शिकायत। इनमेंं न तो सेवानिवृत नौकरशाहों का संगठन आगे आया, न पूर्व सैनिकों का संगठन और न ही कलाकारों का कोई संगठन। बस, लोगों के नाम उनमें शामिल हैं। सेना के पूर्व अधिकारियों के पत्र की सूचना तो कांग्रेस कार्यालय से दी गई। हालांकि बाद में कई अधिकारियों ने कह दिया कि उन्होंने उस पर न हस्ताक्षर किया, न उसमें लिखी गई बातों से सहमत हैं। ये सारे हथकंडे इस दौरान अपनाए जा रहे हैं और इससे मोदी समर्थकों में भी जो चुनाव में निष्क्रिय थे वे भी उठ खड़े होने लगे हैं।

 

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