महाराष्ट्र में चार गठबंधन बने हैं- एक- भाजपा-शिवसेना, दो- कांग्रेस-राकांपा, तीन- प्रकाश आंबेडकर व ओवैसी की वंचित बहुजन आघाड़ी और चार- सपा-बसपा।
किसी सरकार का कार्यकाल पूरा होने के बाद जब कोई चुनाव होता है, तो वास्तव में वह उसके कामकाज पर ही जनादेश माना जाता है। संयोग से महाराष्ट्र के लिए यह लोकसभा चुनाव ऐसा ही एक अवसर है। केंद्र में भाजपा नीत सरकार के पांच वर्ष पूरे हो रहे हैं, तो राज्य में भाजपा नीत सरकार के साढ़े चार वर्ष। राजनीतिक दलों द्वारा अक्सर यह दावा किया जाता है कि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने से विकास के काम ज्यादा तीव्र गति से होते हैं। महाराष्ट्र में ऐसा ही रहा है। इसलिए राज्य की जनता को भी दोनों सरकारों से काफी उम्मीदें रही हैं। और अब विधान सभा चुनाव से करीब छह माह पहले हो रहे लोकसभा चुनाव में जनता इन दोनों सरकारों के कामकाज पर भी अपना जनादेश देगी।
2014 में केंद्र में राजग की सरकार बनी तो महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार थी। करीब छह माह बाद आई फड़णवीस सरकार ने कार्यभार संभालते ही राज्य के जल संकट पर ध्यान देना शुरू किया और जलयुक्त शिवार योजना का शुभारंभ हुआ। फड़णवीस का मानना था कि निरंतर सूखे से जूझ रहे महाराष्ट्र में यदि जल संचय की परियोजनाओं पर ठीक से काम किया जाए तो किसानों की समस्याएं दूर होंगी और उनकी आत्महत्याएं रोकी जा सकेंगी। पहले की सरकार जहां सिंचाई की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ध्यान दे रही थी, वहीं फड़णवीस सरकार ने प्रत्येक गांव के इर्द-गिर्द जल संचय की योजना तैयार की। इन योजनाओं को पूरा करने में उसे कई स्वयंसेवी संगठनों का भी साथ मिला जैसे अभिनेता नाना पाटेकर एवं मकरंद अनासपुरे या आमिर खान का पानी फाउंडेशन। दोनों ने स्थानीय लोगों को जोड़कर कई किलोमीटर नालों व नहरों को पुनरुज्जीवित किया। 2017 में हुई बरसात में इसका लाभ भी नजर आने लगा। 2016 में जहां लातूर के लिए पीने का पानी भी ट्रेन से भिजवाना पड़ा था, वहीं पिछले दो साल से बरसात कम होने के बावजूद स्थिति उतनी भयावह नहीं है। इसी प्रकार केंद्र सरकार की प्रमुख योजनाओं उज्ज्वला, शौचालय, प्रधानमंत्री आवास, फसल बीमा, किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत एवं मुद्रा योजना का भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को लाभ मिला है। भाजपा उम्मीद कर रही है कि इसका लाभ उसे लोकसभा चुनावों में मिलेगा।
लेकिन विपक्ष इससे सहमत नहीं है। वह केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किए गए कामों को नाकाफी मान रहा है। उनके लिए यह मानना मजबूरी भी है। क्योंकि अपने कामों के जरिए खासतौर से ग्रामीण भागों में अपनी जड़ें जमाती रही भाजपा लगभग सभी विपक्षी दलों के लिए खतरा है। इसलिए राज्य के विपक्षी दलों ने मिलकर भाजपा से मुकाबला करने की रणनीति बनाई है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अध्यक्ष राज ठाकरे जैसे नेता इस महागबंधन में प्रत्यक्ष तो शामिल नहीं हैं। लेकिन कांग्रेस-राकांपा के पक्ष में बड़ी-बड़ी रैलियां वह भी करते दिखाई दे रहे हैं। उनकी रैलियों में भीड़ भी काफी जुट रही है। कांग्रेस-राकांपा उनका समर्थन तो लेना चाहती हैं। लेकिन न तो उन्हें अपने मंच पर बुलाना चाहती हैं, तो उनके मंच पर जाना चाहती हैं। उन्हें डर है कि ऐसा करने मुंबई सहित अन्य नगरों में रहने वाला हिंदीभाषी मतदाता उनसे बिदक सकता है।
विपक्ष को शिवसेना-भाजपा के बीच पिछले विधान सभा चुनाव के बाद से चली आ रही खटपट से भी बड़ी उम्मीदें लगी थीं। स्वयं पहले ही गठबंधन घोषित कर चुकी कांग्रेस-राकांपा मान रही थीं, कि यदि शिवसेना-भाजपा अलग-अलग चुनाव लड़ीं तो इस झगड़े का उन्हें भरपूर लाभ मिलेगा। लेकिन विपक्ष की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए 25 साल पुराने शिवसेना-भाजपा गठबंधन ने लोकसभा चुनाव के लिए फिर से गठबंधन पर मुहर लगा दी। यही नहीं, 2014 में राज्य की 48 में से 42 सीटें जीतने वाली शिवसेना-भाजपा ने इस बार इससे अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। कई स्थानों पर शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे एवं मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस की संयुक्त सभाएं हो चुकी हैं। लातूर में उद्धव और प्रधानमंत्री मोदी भी मंच साझा कर चुके हैं। गठबंधन बनाए रखने के लिए भाजपा को अपनी कुछ सीटें छोड़नी पड़ी हैं। पालघर में तो सीट के साथ-साथ अपना उम्मीदवार भी शिवसेना को देना पड़ा है। लेकिन दोनों दलों का गठबंधन इस बार पहले से ज्यादा सुगठित तरीके से काम करता दिखाई दे रहा है।
लोकसभा चुनाव शिवसेना-भाजपा एवं कांग्रेस-राकांपा गठबंधनों के अलावा अचानक बने दो और गठबंधनों द्वारा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए जाने की उम्मीद है। भारिप बहुजन महासंघ के नेता एवं डॉ. भीमराव आंबेडकर के पौत्र प्रकाश आंबेडकर ने असदुद्दीन ओवैसी के दल एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर वंचित बहुजन आघाड़ी का गठन किया है। सोलापुर और औरंगाबाद सहित कई और सीटों पर यह आघाड़ी मजबूती से चुनाव लड़ रही है। सोलापुर में तो स्वयं प्रकाश आंबेडकर कांग्रेसी दिग्गज सुशील कुमार शिंदे को चुनौती दे रहे हैं। इसी प्रकार औरंगाबाद में एमआईएम विधायक इम्तियाज जलील शिवसेना नेता चंद्रकांत खैरे के लिए मुसीबत बने हैं। इसके अलावा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी राज्य की सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में बसपा राज्य की करीब 11 सीटों पर अच्छे-खासे वोट जुटाकर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा चुकी है। वंचित बहुजन आघाड़ी एवं सपा-बसपा गठबंधन किसे कितना नुकसान पहुंचाएंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन है।
गोवा में बदले सियासी समीकरण
भाजपा नेता एवं गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर के निधन के बाद बदले सियासी समीकरणों में भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनावों के साथ ही गोवा विधान सभा में भी अपनी स्थिति मजबूत कर लेना चाहती है।
गोवा में लोकसभा चुनाव के साथ ही तीन विधान सभा सीटों – मांद्रेम, मापुसा और शिरोडा में भी उपचुनाव हो रहे हैं। भाजपा ने इन तीनों सीटों पर क्रमशः दयानंद सोपते, जोशुआ पीटर डिसूजा एवं सुभाष शिरोडकर की उम्मीदवारी घोषित कर दी है। शिरोडा और मांद्रेम में उपचुनाव इसलिए करवाने पड़ रहे हैं, क्योंकि इन सीटों से चुन कर आए कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हो गए हैं और उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। भाजपा के लिए इन दोनों सीटों पर कांग्रेस छोड़कर आए विधायकों का पुनर्निर्वाचन प्रतिष्ठा का प्रश्न है। जबकि मापुसा सीट पर भाजपा के टिकट पर चुन कर आए फ्रांसिस डिसूजा का निधन हो जाने के कारण पार्टी ने यहां से उनके पुत्र जोशुआ डिसूजा को टिकट दिया है।
मगोपा के दो विधायकों के भाजपा में आ जाने के बाद गोवा विधान सभा में भाजपा विधायकों की संख्या अब 14, यानी कांग्रेस के बिल्कुल बराबर हो गई है। उसे गोवा फॉरवर्ड पार्टी के तीन विधायकों के अलावा तीन निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन प्राप्त है। 40 सदस्यीय विधान सभा में अभी चार सीटें खाली हैं। शेष रही 36 की संख्या के आधार पर सरकार बचाने के लिए विधान सभा अध्यक्ष सहित कुल 19 विधायकों की आवश्यकता है। जबकि मुख्यमंत्री डॉ.प्रमोद सावंत के साथ उपमुख्यमंत्री बनाए गए सुदिन ढवलीकर के बाहर होने के बाद विधान सभा अध्यक्ष के बगैर भी भाजपा को 19 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। गोवा विधान सभा की तीन सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव में यदि भाजपा जीतती है, तो 17 विधायकों के साथ वह गोवा विधान सभा में सबसे बड़ा दल होगी। 14 विधायकों के साथ यह दावा अभी तक कांग्रेस करती आई थी।
हालांकि पिछले दिनों उपमुख्यमंत्रीपद छिनते ही मगोपा के नेता सुदिन ढवलीकर ने उपचुनाव में तीनों सीटों पर अपनी पार्टी को चुनाव लड़ाने के साथ-साथ लोकसभा चुनाव में भी दक्षिण गोवा की सीट से भाजपा के विरुद्ध खुद उतरने की बात कही थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में मगोपा ने दोनों सीटों पर अपना कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। लोकसभा चुनाव में उसका रिकॉर्ड भी पिछले कुछ वर्षों में अच्छा नहीं रहा है। 2014 में भी मगोपा गोवा की दोनों सीटों पर चुनाव नहीं लड़ी थी। लोकसभा चुनाव में भाजपा को चुनौती मिल सकती है, तो दक्षिण गोवा की सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री एवं दक्षिण गोवा से ही सांसद रह चुके फ्रांसिको सरडिन्हा से। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रबल मोदी लहर के बावजूद यहां कांग्रेस सिर्फ 31,000 मतों से पराजित हुई थी। उत्तर गोवा में 20 साल से सांसद की जिम्मेदारी निभाते आ रहे केंद्रीय मंत्री श्रीपाद नाईक के लिए इस बार भी कोई चुनौती नहीं दिखती। हालांकि उनके विरुद्ध प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश कोडणकर स्वयं मैदान में हैं।
गुजरात
2014 दोहराने की चुनौती
शिखर पर पहुंच जाना उतना मुश्किल नहीं होता, जितना कि शिखर पर बने रहना। गुजरात में भाजपा के लिए ऐसी ही स्थिति है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की सभी 26 सीटें अपनी झोली में डाल चुकी भारतीय जनता पार्टी के लिए इस बार वह सफलता दोहराना एक चुनौती बन गया है। खासतौर से तब, जब लगभग साल भर पहले ही हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस उसके लगभग बराबरी पर आ खड़ी हुई थी।
गुजरात में भाजपा 1995 से ही शासन करती आ रही है। लोकसभा चुनाव में भी उसकी स्थिति अच्छी ही रहती आई है। लेकिन 2014 में जब वहीं करीब 13 साल मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने, तो गुजरात ने दिल खोलकर उनका समर्थन किया। राज्य की सभी सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं और कांग्रेस शून्य पर पहुंच गई। इस प्रबल मोदी लहर में भाजपा ने कांग्रेस से उसकी 11 सीटें छीन ली थीं और कांग्रेस के शंकरसिंह वाघेला, भरतसिंह सोलंकी, मधुसूदन मिस्त्री और दिनशॉ पटेल जैसे दिग्गजों हार गए। लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में जब कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी के गृहराज्य से ही वापसी का मन बनाया तो 2017 के विधानसभा चुनाव में दो दशक बाद पहली बार भाजपा को सैकड़े के अंदर सिमटना पड़ा। 182 सदस्योंवाली विधानसभा में भाजपा को 99 और कांग्रेस को 77 सीटें हासिल हुईं। यह और बात है कि कांग्रेस अपनी इस सफलता को ज्यादा समय तक कायम नहीं रख सकी। उसके टिकट पर जीतकर आए चार विधायकों ने जल्दी ही उसका साथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। इनमें से दो तो पुनः जीतकर भाजपा की रूपाणी सरकार में मंत्री भी बन चुके हैं।
हालांकि लोकसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस ने अपनी रणनीति बनानी शुरू की थी। इसी प्रयास के तहत चुनाव के ठीक पहले राहुल गांधी ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का आयोजन अहमदाबाद में करवाया। इसमें पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा भी उपस्थित रहीं। 12 मार्च को हुई इस बैठक के बाद राहुल गांधी ने अहमदाबाद में रोडशो भी किया था। भाजपा को कांग्रेस की ओर से तगड़ी चुनौती मिलने के आसार थे। इसलिए उसने भाजपा ने 10 मौजूदा सांसदों के टिकट काटकर सत्ताविरोधी लहर को कुछ हद तक कम करने की कोशिश की। जिन सांसदों के टिकट काटे गए, उनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल थे। उनके स्थान पर अब गांधीनगर से स्वयं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उम्मीदवार हैं। इसके बावजूद इस बार भाजपा की राह उतनी आसान नहीं लग रही है। हालांकि मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी द्वारा गुजरात में किए गए काम एवं पिछली केंद्र सरकार में गुजरात को ध्यान में रखकर शुरू की गई परियोजनाएं लोगों का ध्यान खींचती हैं। युवा वर्ग में अब भी मोदी के प्रति आकर्षण दिखता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर कांग्रेस के घोषणापत्र में कही गई बातें लोगों को रास नहीं आ रहीं। कांग्रेस का 72,000 रुपए देने का मुद्दा भी लोग हवा-हवाई ही मान रहे हैं। कांग्रेस में आ चुके हार्दिक पटेल की हवा भी अब विधानसभा चुनाव जैसी नहीं रही है। विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को प्रवेश करनेवाली तिकड़ी हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश में से अल्पेश भी कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं। इसके बावजूद भाजपा के लिए पिछली सफलता दोहरा पाना आसान नहीं होगा।