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खोया हुआ आदमी

by सुशांत सुप्रिय
in अप्रैल २०१८, कहानी
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“दुखी गांव वालों ने खोये हुए आदमी की याद में उसकी एक मूर्ति बना कर गांव के बीचोंबीच स्थापित कर दी। गांव वालों ने प्रण लिया कि वे उस खोये हुए आदमी के दिखाए मार्ग पर चलेंगे। आज भी यदि आप उस गांव में जाएंगे, तो आपको उस खोये हुए आदमी की वहां स्थापित मूर्ति दिख जाएगी।”

व ह आदमी न जाने कहां से भटकता हुआ दूर-दराज़ के उस गांव में पहुंचा था। गांव के कुत्तों ने जब चीथड़ों में लिपटे उस आदमी को देखा तो उन्हें वह कोई पागल लगा। वे उस पर बेतहाशा भौंकने लगे। कुत्तों की देखा-देखी गांव के बच्चे भी पूरी दोपहर उसे छेड़ते और तंग करते रहे। संयोग से किसी बड़े आदमी ने गांव के बच्चों को उस पर पत्थर फेंकते हुए देख लिया। जब वह उस आदमी के करीब गया तो उसके चेहरे पर मौजूद खोयेपन के भाव के बावजूद उसे उस आदमी में गरिमा के चिह्न दिखे। यह आदमी पागल नहीं हो सकता… उसने सोचा। गांव के उस बड़े व्यक्ति ने उस आदमी से उसका नाम-पता पूछा, पर वह कोई उत्तर नहीं दे सका। वह केवल इतना बोल पाया, “शायद मैं खो गया हूं!” यह सुनते ही गांव के उस बड़े व्यक्ति ने निश्चय किया कि वे सब उसे ‘खोया हुआ आदमी’ कह कर बुलाएंगे।

खोया हुआ आदमी इतना खोया था, इतना खोया था कि उसकी पूरी स्मृति का लोप हो चुका था। उसके जेहन से उसका नाम और पता पूरी तरह खो चुके थे। न उसे अपनी जाति पता थी, न अपना धर्म। लेकिन अपने खोयेपन में भी उसमें परिचित-जैसा कुछ था, जो उसे अपना-सा बना रहा था। लिहाजा जब उसे गांव के अन्य लोगों के पास ले जाया गया, तो उसे देखते ही सभी एक स्वर में बोल उठे, “अरे, यह खोया हुआ आदमी तो बेहद अपना-सा लग रहा है।” उन्होंने उसे अपने ही गांव में रख लेने का फैसला किया।

खोये हुए आदमी की आवाज बहुत मधुर थी। कभी-कभी वह अपनी सुरीली आवाज में कोई खोया हुआ गीत गाता था तो उस गांव की गाय-भैंसें जैसे उसके गीत की स्वर-लहरियों से मंत्रमुग्ध हो कर ज्यादा दूध देने लगतीं। गांव के बच्चे उसका गीत सुन कर उसकी ओर खिंचे चले आते। गांव के बड़े-बुज़ुर्गों को भी उसके गीत उनकी युवावस्था के सुंदर अतीत की याद दिलाते। गांव के लोगों ने पाया कि जब से वह खोया हुआ आदमी वहां आया था, गांव के फूल और सुंदर लगने लगे थे, गांव की तितलियां ज्यादा मोहक लगने लगी थीं, गांव के जुगनू ज़्यादा रोशन लगने लगे थे। गांव के बच्चे भी अब ज्यादा खुश रहने लगे थे क्योंकि बच्चों को वह सम्मोहित कर देने वाले कमाल के गीत सुनाता था। गांव के कुत्ते अब उसके सगे हो गए थे। वे उसके आस-पास ऐसे चलते जैसे उसे ‘गार्ड ऑफ ऑनर ’ दे रहे हों।

उन्हीं दिनों गांव की एक वृद्धा को सपना आया कि वह खोया हुआ आदमी दरअसल उसका बेटा था जो बचपन में कहीं खो गया था। तब से वह उस खोये हुए आदमी को अपना बेटा मानने लगी। वह एक गरीब स्त्री थी जो घास काट कर, उपले थाप कर और पेड़-पौधों की लकड़ियां इकट्ठा करके अपना जीवन चलाती थी। उसने खोये हुए आदमी को अपने सपने के बारे में बताया। खोये हुए आदमी ने खुशी-खुशी उस वृद्धा को अपनी मां मान लिया और उसके साथ रहने लगा। उसने अपनी ‘मां’ की इतनी सेवा की कि वृद्धा को लगा कि उसका जीवन धन्य हो गया।

धीरे-धीरे गांव वालों को खोये हुए आदमी के कई गुणों के बारे में पता चलने लगा। वह पशु-पक्षियों से बातें करता प्रतीत होता। लगता था जैसे वह पशु-पक्षियों की भाषा जानता था। वह आंधी, तूफान, चक्रवात आने, ओले पड़ने या टिड्डियों के हमले के बारे में गांव वालों को पहले ही आगाह कर देता। उसकी भविष्यवाणी के कारण गांव वाले मुसीबतों से बच जाते। जब एक बार गांव में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गई तो खोये हुए आदमी ने आकाश की ओर देख कर न जाने किस भाषा में किस देवता से प्रार्थना की। कुछ ही समय बाद गांव में मूसलाधार बारिश होने लगी। सूखी मिट्टी तृप्त हो गई और बच्चे-बड़े सभी इस झमाझम बारिश में भीगने का भरपूर आनंद लेने लगे। उस दिन से खोया हुआ आदमी गांव में सब का चहेता हो गया।

गांव के किनारे कुछ घर दलितों के थे और कुछ मुसलमानों के। गांव की ऊंची जाति के लोग उनसे अलग रहते थे। खोये हुए आदमी ने दलितों और मुसलमानों से भी मित्रता कर ली। वह रोजमर्रा के कामों में उनकी मदद कर देता। उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताता। देखते-ही-देखते गांव के दलित अपने हक की मांग करने लगे। उधर गांव के बड़े-बूढ़ों पर भी खोये हुए आदमी के समझाने का असर हुआ। धीरे-धीरे दलितों का शोषण बंद हो गया। आपसी भाईचारा बढ़ने लगा। गांव के दलितों और मुसलमानों के प्रति ऊंची जातियों के लोगों का व्यवहार सुधरने लगा। गांव के दलितों को गांव के कुएं से पानी लेने की सुविधा मिल गई। उन्हें गांव के मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार मिल गया। गांव के हिंदू और मुसलमान मिल-जुल कर ईद और होली-दीवाली मनाने लगे। इस तरह गांव में साम्प्रदायिकता और जातिवाद को दूर करने में खोये हुए आदमी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उसके आने से गांव में एक और बदलाव आया। गांव में पहले स्त्रियों की दशा ठीक नहीं थी। खोये हुए आदमी ने स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। गांव की सभी स्त्रियां पुरुषों की ज्यादतियों के खिलाफ एकजुट हो गईं। खोये हुए आदमी के समझाने का असर भी हुआ। धीरे-धीरे स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचार समाप्त हो गया। उन्हें भी सम्मान मिलने लगा।

इस गांव से करीबी कस्बे की दूरी तीन दिन की थी। गांव में खेती की ज़मीन तो थी पर कभी बीज नहीं मिलता, कभी खाद नहीं मिलता। खोये हुए आदमी ने गांव वालों को प्रेरित किया कि वे गांव में ही अच्छे बीज और जैविक खाद की दुकान खोल लें। वह खुद लोगों के खेत में मेहनत करता, खेती-बाड़ी में उनकी मदद करता। लगता जैसे उसके हाथों में जादू था। उसकी मदद गांव वालों के लिए खुशहाली ले आई। गांव का तालाब मछलियों से भर गया। गांव में उगे फलों के पेड़ फलों से लद गए। खेतों में फसलें लहलहाने लगीं। मौसम अच्छा बना रहा। गांव वालों ने इन सब का श्रेय खोये हुए आदमी को दिया। उन्हें लगा जैसे उसकी मौजूदगी में बरकत थी। धीरे-धीरे वह पूरे इलाके में लोकप्रिय हो गया। पड़ोस के अन्य गांवों के लोग भी उसके मुरीद बन गए।

शुरू-शुरू में कुछ लोग उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखते थे। पर खोये हुए आदमी का चेहरा इतना विश्वसनीय था और उसका व्यवहार इतना सरल और सहज था कि धीरे-धीरे उसके आलोचक भी उसके प्रशंसकों में बदल गए। लोगों को लगता था कि उसके पास कोई जादुई शक्ति है जिससे वह आसानी से समस्याओं के हल ढूंढ़ लेता है। हालांकि खोये हुए आदमी ने हमेशा इस बात का खंडन किया। वह लोगों से कहता, “आप सब के पास भी वही शक्तियां हैं। खुद को पहचानो। अपनी ऊर्जा को रचनात्मक और सकारात्मक कामों में लगाओ। जुड़ो और जोड़ो।” इस तरह खोये हुए आदमी ने इलाके के लोगों में नया विश्वास भर दिया। लोगों में नया जोश, नया उत्साह आ गया।

पर अंत में वह दिन भी आ पहुंचा। एक रात मौसम बेहद खराब हो गया। बादलों की भीषण गड़गड़ाहट के साथ पूरे आकाश में बिजली कड़कने लगी। तभी कई सूर्यों के चौंधिया देने वाले प्रकाश ने रात में दिन का भ्रम उत्पन्न कर दिया।

फिर वज्रपात जैसी भयावह गड़गड़ाहट के साथ गांव में कहीं बिजली गिरी। लोग अपनी सांसों की धुकधुकी के बीच अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। सारी रात मौसम बौराया रहा। लोगों का कहना है कि उस रात गंधक की तेज गंध पूरे गांव में फैल गई थी, और मकानों की खिड़कियों-दरवाजों की झिर्रियों में से घुस कर यह तीखी गंध सभी घरों में समा गई थी।

सुबह जब मौसम साफ हुआ तब गांव वालों ने पाया कि वह खोया हुआ आदमी अब उनके बीच नहीं था। वह गायब हो चुका था। गांव वालों ने उसे बहुत ढूंढ़ा पर उसका कोई पता नहीं चला। न जाने उसे जमीन निगल गई थी या आसमान खा गया था। उसकी तलाश में आसपास के गांवों में गए सभी लोग ख़ाली हाथ वापस लौट आए। गांव की गलियां उसके बिना सूनी लगीं। पशु-पक्षी उसके बिना उदास लगे। गांव के बच्चे उसके बिना बेचैन लगे। गांव के कुत्तों की आंखों में भी आंसू थे।

दुखी गांव वालों ने खोये हुए आदमी की याद में उसकी एक मूर्ति बना कर गांव के बीचोंबीच स्थापित कर दी। पंचायत की सभी बैठकें अब इसी मूर्ति के पास हुआ करतीं। गांव वालों ने प्रण लिया कि वे उस खोये हुए आदमी के दिखाए मार्ग पर चलेंगे। आज भी यदि आप उस गांव में जाएंगे, तो आपको उस खोये हुए आदमी की वहां स्थापित मूर्ति दिख जाएगी।

लेकिन आपको असली बात बताना तो मैं भूल ही गया। खोये हुए आदमी के गायब होने के कुछ समय बाद जब जनगणना अधिकारी इस गांव में पहुंचे, तो वे यह देख कर हैरान रह गए कि गांव में किसी को भी न तो अपनी जाति याद थी, न अपना धर्म याद था। धर्म और जाति के बारे में उनकी स्मृतियां उस खोये हुए आदमी के साथ ही जैसे सदा के लिए खो चुकी थीं। काश, अपने शहर में हमें भी ऐसा खोया हुआ आदमी मिल जाता…।

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