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पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय दलों के सहयोग से आगे बढ़ती भाजपा

by रविशंकर रवि
in अप्रैल २०१८, राजनीति, विशेष
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पूर्वोत्तर में जिस तरह भाजपा शासित या समर्थित सरकारों के गठन के बाद मुख्यमंत्री स्तर पर जीवंत संबंध आरंभ हुआ है, उसका उत्तर पूर्व के साथ देश के अन्य हिस्से पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा। वैसे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से ही आगे बढ़ना वर्तमान में जरूरी लगता है।

दे श के राजनीतिक क्षितिज पर उत्तर पूर्व भारत की तस्वीर बदल गई है। जिसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता था, अब वहां चारों तरफ कमल लहक रहा है। उत्तर पूर्व भारत के छह राज्यों में या तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार है या फिर वह सरकार में शामिल है। नगालैंड और मेघालय में भाजपा सरकार में शामिल है, जबकि असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के बाद त्रिपुरा में भाजपा की सरकार की है। कांग्रेस का पंजा सिर्फ मिजोरम में हिल रहा है। यह पहला मौका था, जब त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब देब के शपथ समारोह में देश के अन्य भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ उत्तर पूर्व के छह राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद थे।

इससे उत्तर पूर्व राज्यों के बीच बेहतर संबंध तो स्थापित होंगे ही, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आसियान देशों के बेहतर कूटनीतिक और वाणिज्यिक संबंध बनाने की पहल को नई गति मिलेगी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी आसियान देशों के साथ बेहतर व्यापारिक संबंध बनाना चाहते हैं। उसमें पूर्वोत्तर मुख्य भूमिका निभाएगा। ऐसा तभी होगा, जब सभी पूर्वोत्तर राज्यों में समान विचारधारा की सरकार हो। ये चुनाव परिणाम उत्तर पूर्व की तस्वीर बदलने में अहम साबित हो सकते हैं। क्योंकि यह तभी संभव है, जब उत्तर पूर्व राज्यों के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहने के साथ परिवहन व्यवस्था बेहतर हो और उत्तर पूर्व की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि एक राज्य का विकास दूसरे राज्य के सहयोग पर निर्भर है। यदि त्रिपुरा या मेघालय के लिए बेहतर सड़क परिवहन चाहिए तो इसमें असम और मेघालय का सहयोग चाहिए। यदि मणिपुर या अरुणाचल में कुछ होना है तो उसे असम और नगालैंड का सहयोग चाहिए। भाजपा सरकार के गठन के बाद इन राज्यों के बीच जिस तरह के संबंध गढ़े हैं, उससे राज्यों के बीच बेहतर संबंध की उम्मीद बनी है। इसे मजबूत करने के लिए असम ने एक बड़ी पहल की है।

असम सरकार ने इस बार के अपने बजट प्रस्ताव में उत्तर पूर्व राज्यों के बीच बेहतर तालमेल के लिए फाउंडेशन नार्थ ईस्ट नामक एक फोरम के गठन का सुझाव दिया है। असम के शिक्षा मंत्री और नार्थ ईस्ट डोमोक्रेटिक फ्रंट के संयोजक डॉ. हिमंत विश्व शर्मा ने फाउंडेशन नार्थ ईस्ट का गठन विशेष मकसद के लिए किया गया है। हम, उत्तर-पूर्वी भारत के लोग, न केवल साझा भूगोल साझा करते हैं, बल्कि साझा इतिहास, संस्कृति और परंपराएं भी साझा करते हैं। हमारे पास प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं और दक्षिण एशियाई, दक्षिण पूर्व और पूर्व एशियाई देशों के साथ सीमा भी बांटते हैं। हमारे कठिन इलाके के कारण और आर्थिक बाधाओं की वजह से उत्तर पूर्व भारत के सभी राज्यों को विशेष राज्य श्रेणी के राज्य के रूप से वर्गीकृत किया जाता है। दूसरी ओर, उत्तर पूर्वी राज्यों में परस्पर निर्भरता और समानता है, जो कहती है कि आओ एकसाथ मिल कर पूरे क्षेत्र का सर्वांगीण विकास करें। इसके अलावा, इसके रणनीतिक स्थल को देखते हुए, पूर्वोत्तर भारत को इन देशों के साथ भारत के बढ़ते आर्थिक संबंध के आधार के रूप में विकसित किया जा सकता है और भारत सरकार की ईस्ट एक्ट नीति की धुरी के रूप में जोड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि नॉर्थ-ईस्ट फाउंडेशन इस क्षेत्र के लिए एक थिंकटैंक के रूप में कार्य करेगा। यह फाउंडेशन राष्ट्रीय, वैश्विक स्तर के थिंकटैंक के संपर्क में रहेगा और क्षेत्र के लिए प्रमुख रणनीतिक, समग्र तरीके से भूमिका तय करेगा। सद्भावना के तहत असम सरकार इस फाउंडेशन के गठन में पहल करेगी और बीज कोष के लिए अगले 5 वर्षों तक वित्तीय मदद करेगी। उन्हें उम्मीद है कि उनके उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों के सहयोगी इसके महत्व को महसूस करेंगे और इस पहल का समर्थन करेंगे।

वह एक ऐतिहासिक घटना थी। अब तक उत्तर पूर्व राज्यों के बीच कई मसले पर गंभीर मतभेद रहे हैं। कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद एक राज्य दूसरे राज्य के साथ शत्रु जैसा व्यवहार करते थे। पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच सहज संबंध नहीं थे। इस वजह से एक राज्य के लोग भी दूसरे राज्य के लोगों के साथ वैरभाव रखते थे। लेकिन जिस तरह भाजपा शासित या समर्थित सरकारों के गठन के बाद मुख्यमंत्री स्तर पर जीवंत संबंध आरंभ हुआ है, उसका उत्तर पूर्व के साथ देश के अन्य हिस्से पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा।

सोनोवाल इफेक्ट

मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की अगुवाई में असम सरकार ने अब तक जिस तरह से काम से किया है, उसका असर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों पर दिख रहा है। क्योंकि सोनोवाल सरकार पूर्वोत्तर राज्यों के लिए एक माडल बन गई है। तीन राज्यों के चुनाव में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन में असम सरकार की छवि की भी बड़ी भूमिका रही है। इसका लाभ भाजपा अपने चुनाव प्रचार में उठाया। अन्य राज्यों के लोग भी अपने राज्य में असम जैसा काम चाहने लगे हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गत 16 दिसंबर को शिलांग की जनसभा में सर्वानंद के कामकाज का जिक्र करते हुए औरों के लिए इसे एक उदाहरण बताया था। सोनोवाल सरकार की कार्यशैली पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए उदाहरण बन गया है।

असम समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर में खेलकूद की प्रतिभाओं का भंडार है। इसी बात को ध्यान में रख कर सोनोवाल ने असम को खेल की राजधानी बनाने की घोषणा की थी। उसके बाद गुवाहाटी में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई खेलों के सफल आयोजन हो चुके हैं। ग्रामीण स्तर पर भी स्टेडियम के निर्माण और खेल प्रतियोगिताएं चल रही हैं। हाल ही चाय बागान के लोगों के बीच मुख्यमंत्री फुटबॉल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इससे ग्रामीण स्तर की प्रतिभाओं को सामने आने का मौका मिला।

एडवांटेज असम के शानदार आयोजन और उसकी सफलता ने पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। पूर्वोत्तर के विकास में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या रही है, लेकिन जिस तरह सोनोवाल सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया है और प्रधान मंत्री की तर्ज पर ‘न खाएंगे और न खाने देंगे’ पर सख्त रुख अपनाया है, उससे अन्य राज्यों के लोगों में भी संदेश गया है और उन्हें लगता है कि असम की तरह उनकी राज्य सरकार भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाएगी, ताकि विकास योजनाओं का लाभ आम आदमी तक पहुंच पाए।

लेकिन अनुभव बताते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के लिए अकेले सत्ता तक पहुंचना संभव नहीं है, लेकिन क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर चलना लाभदायक है। तीन राज्यों-त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में भाजपा का क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल करना लाभदायक रहा है। इससे पहले असम में भाजपा ने असम गण परिषद और बोड़ोलैंड पीपुल्स पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था और कांग्रेस विरोधी मतों के एकजुट कर सत्ता प्राप्त की थी। त्रिपुरा में भाजपा ने इंडिजेनियस पीपुल्स पार्टी ऑफ त्रिपुरा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और अभूतपूर्व जीत हासिल की। भाजपा ने नगालैंड में नेफ्यू रियो की पार्टी एनडीपीपी के साथ चुना लड़ा और सत्ता की दहलीज तक पहुंच गई। भाजपा को भी बारह सीटें मिलीं। लेकिन उसने मेघालय में अकेले चुनाव लड़ा और मात्र दो सीट जीत पाई। जबकि ईसाई बहुल इस राज्य में जीत के लिए उसने केंद्रीय मंत्री अल्फोस कन्नानथनम को इसलिए शिलोंग में बैठा कर रखा कि वे ईसाई हैं।

भाजपा की यह चाल सफल नहीं हो पाई और उसे दो सीटों से संतोष करना पड़ा। फिर भी भाजपा की पहल पर मेघालय में कर्नाड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाने में सफल रही। भाजपा की कोशिश पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में अपने मित्र दलों के साथ मिल कर सरकार बनाना है। अरुणाचल प्रदेश में पहले से भाजपा की सरकार है। यह सरकार उसे सौगात में मिली, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश पीपुल्स पार्टी के ज्यादातर विधायक भाजपा में शामिल हो गए। अब उसकी नजर मिजोरम के विधान सभा चुनाव पर है। मिजोरम में भाजपा अपना जनाधार बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसकी नजर जोरामथांगा के नेतृत्व वाली मिजोरम मिजो नेशनल फ्रंट के साथ मिलकर चुनावी तालमेल करने की है।

पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों में भाजपा फिलहाल सीधा मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। उसे क्षेत्रीय दल को आगे रखना होगा और तभी वह सत्ता में शामिल हो सकती है। जिस एनपीपी के साथ मिलकर भाजपा ने मेघालय में सरकार बनाने में सफल रही। जबकि चुनाव में दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन त्रिपुरा की जीत के दूरगामी असर पश्चिम बंगाल पर पड़ेगा।

त्रिपुरा में इंडिजेनियस पीपुल्स पार्टी आफ त्रिपुरा (आईपीपीटी) के साथ दोस्ती भाजपा की रणनीति का सब से महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। इससे उसे अपना जनाधार बढ़ाने और माकपा पर हमला करने का आधार मिल गया। वैसे भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद ही त्रिपुरा पर विशेष रणनीति बनाना आरंभ कर दिया था। इसलिए अगरतला से राजधानी एक्सप्रेस चलाई गई और कोलकाता के लिए सीधी ट्रेन सेवा जल्दीबाजी में आरंभ हुई। क्योंकि त्रिपुरा के लोगों के लिए यातायात एक बड़ी समस्या है।

असम में मिली भारी जीत के बाद नार्थ इस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) का गठन उसी रणनीति का हिस्सा था। जिसमें पूर्वोत्तर की अधिकांश क्षेत्रीय दलों को शामिल कर लिया गया था। हालांकि आईपीपीटी उसमें शामिल नहीं थी। आरंभ में भाजपा को लगता था कि अलगाववादी आईपीपीटी के साथ दोस्ती करने का बंगाली मतदाताओं पर उल्टा असर पड़ सकता था। लेकिन भाजपा के रणनीतिककार डॉ. हिमंत विश्व शर्मा की सलाह पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आईपीपीटी के साथ गठबंधन को तैयार हो गए।

त्रिपुरा में भाजपा के लिए मैदान तैयार करना आसान नहीं था। उसके पास अपने कैडर ज्यादा नहीं थे, जो थे उन्हें माकपा कैडरों के आक्रमण का सामना करना पड़ा रहा था। इसलिए भाजपा ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के विधायकों को अपने साथ कर लिया। इससे उन विधायकों के समर्थकों की ताकत भी भाजपा को मिली। इसके बाद विकास और बेरोजगारी के सवाल पर भाजपा ने अपनी गति पकड़ी।

दरअसल सिक्किम समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर राज्यों पर कब्जा करके एनडीए के 25 सांसदों को लोकसभा तक पहुंचाना चाहती है। ताकि भाजपा शासित प्रदेशों में एनडीए के सांसदों की कमी को पूर्वोत्तर से पूरा कर लिया जाए।

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