प्रश्न यह उठता है कि भारत में लेनिन की मूर्ति की आवश्यकता ही क्या है? भारत के आदर्श राम-कृष्ण, शिवाजी, छत्रसाल, रानी लक्ष्मीबाई इत्यादि इसी धरती पर पैदा हुए कई सपूत हैं। इनके होते हुए किसी ऐसे व्यक्ति की मूर्ति लगाना कहां तक उचित है, जिसका भारत की प्रगति में कोई योगदान नहीं है।
त्रि पुरा में जीत के उन्माद में स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं ने लेनिन की मूर्ति गिरा दी। ‘मूर्तिपूजा’ का पुरजोर विरोध करने वालों ने इसकी प्रतिक्रिया के रूप में अन्य राज्यों में पेरियार और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की मूर्तियां गिराने का सिलसिला शुरू कर दिया। लेनिन की मूर्ति गिराना इस बात का प्रतीक था कि त्रिपुरा की जनता वहां की लेनिनवादी अर्थात कम्युनिस्ट सरकार से त्रस्त हो चुकी थी। इतने वर्षों तक शासन करने के बाद भी प्राकृतिक सम्पदा तथा मेहनतकश लोगों से सम्पन्न त्रिपुरा को यह सरकार विकसित नहीं कर सकी। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में त्रिपुरा अभी भी पिछड़ा ही है। अब त्रिपुरा के लोगों को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की विकास की बातें समझने लगीं और उन्होंने बदलाव के रूप में भाजपा को चुना। इस सारे घटनाक्रम का यह एक राजनैतिक पहलू है।
इसके सामाजिक पहलू पर अगर ध्यान दिया जाए तो पहला प्रश्न यह उठता है कि भारत में लेनिन की मूर्ति की आवश्यकता ही क्या है? भारत के आदर्श राम-कृष्ण, शिवाजी, छत्रसाल, रानी लक्ष्मीबाई इत्यादि इसी धरती पर पैदा हुए कई सपूत हैं। इनके होते हुए किसी ऐसे व्यक्ति की मूर्ति लगाना कहां तक उचित है, जिसका भारत की प्रगति में कोई योगदान नहीं है। हां, इसके अनुयायी ये जरूर कहते हैं कि आज भारत में कर्मचारी वर्ग को आठ घंटे काम करने, ओवर टाइम दिए जाने और सप्ताह में एक दिन का अवकाश मिलने की शुरुआत इसी विचारधारा की देन है। परंतु आज की परस्थितियों में उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये सुविधाएं कुछ मर्यादित कार्यालयों तथा फैक्टरियों तक ही सीमित हैं। भारत का किसान आज भी अपने खेत में सप्ताह के पूरे दिन दस-दस घंटे मेहनत करता है, और कटाई के बाद अपनी पहली फसल भगवान को अर्पण कर उत्सव मनाता है। भारत में आज तक किसी किसान द्वारा लेनिन को अपनी फसल अर्पण करते हुए नहीं देखा गया। दूसरी ओर विभिन्न मल्टीनेशनल कंपनियों या कई भारतीय कम्पनियों में काम करने वाला आज का युवा वर्ग भी बिना किसी समय सीमा के दिन रात मेहनत कर रहा है और उसे उसकी मेहनत का अच्छा फल भी प्राप्त होता है। ये फल मिलने के बाद वह भी अपने इष्ट देव को पूजता है और अपने परिवार के साथ खुशियां मनाता है; घर पर लेनिन की मूर्ति लाकर आरती नहीं उतारता। अत: श्रीमान लेनिन जी के अनुयायियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ प्रतिशत लोगों का थोड़ा सा भला करके आप भारत के आदर्श नहीं बन सकते, क्योंकि आपकी अन्य देशद्रोही हरकतें अब सभी के सामने आ रहीं हैं।
मूर्तियां गिराने की यह कोई पहली घटना नहीं है। भारत में इससे पहले भी कई मूर्तियां गिराई गईं हैं। चूंकि मूर्तियां किसी भी समाज के सम्मान का प्रतीक होती हैं अत: उस समाज के मन को आहत करने के लिए मूर्तियां गिराई जाती हैं। भारत पर जिन-जिन लोगों ने आक्रमण किया उन्होंने सब से अधिक नुकसान भारतीय स्थापत्य को ही पहुंचाया। आज भी हमें कई मंदिरों तथा वहां स्थापित देवी देवताओं की मूर्तियों के भग्नावशेष देखने को मिलते हैं। ये भग्नावशेष प्रतीक हैं कि आक्रमणकारियों ने भारतीय मानस को छलनी करने के उद्देश्य से ही मंदिरों को तोड़ा था। लेकिन यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों की मजबूती ही है कि मंदिरों के भग्नावशेष देखकर भी हमारे मन में अपने ईश्वर के प्रति आस्था और मजबूत होती है। वैसे भी केवल मंदिरों को गिराने या मूर्तियों को ढहाने से विचार कमजोर नहीं होते और न ही मानसिकता में परिवर्तन आता है। नए विचारों के प्रबल होने पर पुराने विचार अपने आप समाप्त होने लगते हैं।
जैसे कि लेख में पहले ही कहा था कि मूर्तियां हमारी आस्था की प्रतीक हैं। अत: हम मंदिरों में भगवान की और चौराहों या दर्शनीय स्थलों पर महापुरुषों या देश को गौरवान्वित करने वाले व्यक्तियों की प्रतिमाएं लगाते हैं। परंतु हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम मूर्तियां लगा देने भर से खुद को गौरवान्वित महसूस करने लगते हैं। न उनके द्वारा किए गए कार्यों से प्रेरणा लेते हैं, न ही उनके विचारों पर अमल करने की कोशिश करते हैं। फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में जब संजय दत्त यह समझने लगता है कि महात्मा गांधी उसके साथ हैं तो वह कुछ वृद्धों के साथ चर्चा करने जाता है। जहां उन वृद्धों में से एक उससे महात्मा गांधी की मूर्ति के संदर्भ में प्रश्न पूछते हैं। फिल्म के महात्मा गांधी उन्हें जवाब देते हैं कि उनकी नई मूर्ति तो कहीं लगाएं ही नहीं वरन पुरानी भी हटा दें। इसका कारण यह कि एक बार मूर्ति लगाने के बाद उसके रखरखाव की ओर कोई ध्यान नहीं देता। कई मूर्तियां तो पक्षियों के नित्यकर्म की जगह बन जाती हैं। इसलिए मूर्तियों को लगाने से अच्छा है कि महापुरुषों के विचारों को जिंदा रखा जाए। फिल्म में हास्य के रूप में सही परंतु मार्मिक बात कही गई है। आस्था के प्रतीकों की इस तरह दुरावस्था देख कर मन विचलित हो जाता है।
लेनिनवादी शायद इसी कारण से मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं और इसीलिए उन्होंने महाराष्ट्र में समुद्र के बीच स्थापित होने वाली शिवाजी महाराज की मूर्ति तथा गुजरात में लगने जा रही सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति का भी विरोध किया था। उनका तो यहां तक कहना था कि जितना खर्च इन मूर्तियों को बनाने में किया जा रहा है, उतना अगर देश की जनता के लिए खर्च किया जाए तो देश से गरीबी कम हो सकती है। ये तो कुछ वही बात हो गई कि अगर विजय माल्या को किंगफिशर एयरलाइन में नुकसान हो रहा है तो वह उसकी पूर्ति किंगफिशर के दूसरे व्यवसायों के लाभ से कर दे। केंद्र व राज्य की हर सरकार अपने बजट में विभिन्न कार्यों के लिए बजट आबंटन करती है। जिसमें स्मारकों आदि के लिए होने वाले खर्चे भी होते हैं। यह बात भारत के लेलिनवादी अच्छी तरह से जानते हैं क्योंकि वे विद्वान अर्थशास्त्री (?) हैं। उनके पेट में मरोड़ इस बात को लेकर उठ रही है कि केंद्र और दोनों राज्यों में भाजपा की ही सरकारें होने से शिवाजी महाराज या सरदार वल्लभभाई पटेल की ही मूर्तियां लग रही हैं। शायद वे यह सोच रहे हैं कि कहीं भाजपा वाले शिवाजी महाराज और सरदार वल्लभभाई पटेल को भी ‘संघी’ न बना लें। काश यह मरोड़ तब उठती जब उत्तर प्रदेश में मायावती ने कई एकड़ जमीन पर कुछ मूर्तियां बाबासाहब आंबेडकर की लगा कर बाकी सभी जगह अपने चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियां लगवा कर उस पूरी जमीन पर कब्जा कर लिया। अगर वही जमीन उत्तर प्रदेश के गरीबों को दी जाती तो आज शायद उत्तर प्रदेश में झोपड़पट्टियों की संख्या आधी रह जाती। खैर…
इसमें कोई दो राय नहीं कि मूर्तियां सामाजिक अस्मिता की प्रतीक हैं और आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास की गवाही देने का कार्य करती रहती हैं। इसलिए हमारी आनेवाली पीढ़ियों को इतिहास की सही जानकारी देने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित की जाएं, उनका सही रखरखाव हो और उनके विचारों का अधिक से अधिक प्रसार हो।