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पश्चिम बंगाल रक्तरंजित लोकतंत्र और भ्रष्ट राजनीति

पश्चिम बंगाल रक्तरंजित लोकतंत्र और भ्रष्ट राजनीति

by डॉ. रामेन्द्र सिंह
in जून २०१९, राजनीति
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पश्चिम बंगाल ही हिंसा और बवाल की त्रासदी झेल रहा है। लोकतंत्र को खून से सींचने वाले राजनेताओं को सत्ता मिल जाती है, लेकिन हिंसा की भेंट चढ़ने वाले उस आम आदमी को क्या मिलता है?

राजनैतिक हिंसा और भ्रष्टाचार अब पश्चिम बंगाल की संस्कृति बन गई है। पंचायत से आम चुनाव तक हिंसा का दौर जारी रहा। यहां तक कि हालात कश्मीर से भी बदतर रहे। अंतिम चरण के मतदान से दो दिन पूर्व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का यह कहना कि ’पश्चिम बंगाल में भाजपा के 80 कार्यकर्ता मारे गए हैं। हम तो पूरे देश में चुनाव लड़ रहे हैं, कहीं और हिंसा क्यों नहीं होती है। हमारे कारण हिंसा होती तो देश के हर हिस्से में होती’, एकबारगी इस पहलू पर सोचने को मजबूर तो करता ही है। स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र को लाठी के बल पर अपहृत करने की कोशिश की गई और राष्ट्रीय चुनाव आयोग भी तनिक देर से जागा।

पश्चिम बंगाल में 1960-70 के दशक के नक्सल आंदोलन से शुरू हुआ हिंसा का ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार 1977 से 2007 तक ही 28 हजार राजनीतिक हत्याएं राज्य में हुईं। इस दौर के बाद सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन ने हिंसा का नया चेहरा पश्चिम बंगाल में पेश किया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2016 में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की कुल 91 घटनाएं हुईं जबकि किसी न किसी रूप में 205 लोग इसका शिकार बने थे। 2015 में कुल 131 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जिनमें कुल 184 लोग प्रभावित हुए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी 14 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और 1100 से ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं राज्य में चुनाव के दौरान दर्ज की गई थीं। 2013 में राजनीतिक झड़पों में कुल 26 लोगों की जानें गई थीं।

आठ वर्ष पूर्व 2011 में ममता बनर्जी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 34 साल के शासन को उन्हीं की तर्ज पर हिंसक आंदोलनों के सहारे खत्म कर सत्ता में आईं तो जरूर लेकिन जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं। ममता के शासनकाल में पंचायत चुनावों के बाद इस बार आम चुनाव के दौरान भी कहीं न कहीं किसी बहाने हिंसा देखने को मिली। राज्य में संस्कृति के साथ संस्कार भी चुनावी हिंसा की भेंट चढ़ गया। विद्यासागर कालेज में स्थापित 200 साल पुरानी उन्हीं की मूर्ति को उपद्रवियों ने तोड़ दिया। विद्यासागर बंगाल के साथ पूरी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के आदर्श हैं, वह सबसे बड़े समाजशास्त्री और समाज सुधारक थे।

पश्चिम बंगाल की राजनीति के जानकारों के अनुसार मौजूदा लोकसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस के लिए करो-या-मरो की लड़ाई रही, क्योंकि उसे पता था कि सत्ता में रहकर ही वो प्रासंगिक बनी रह सकती है। संभवतः इसीलिए, तृणमूल सरकार ने भाजपा नेताओं की रैलियों को रोकने तक की कोशिश की। अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और शिवराज सिंह चौहान की रैलियों में हेलीकॉप्टर उतरने की अनुमति नहीं दी गई। भाजपा नेता प्रियंका शर्मा को सोशल मीडिया पर ममता दीदी से जुड़ी एक तस्वीर फॉरवर्ड करने की वजह से जेल में डाल दिया गया और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के 24 घंटे बाद भी उन्हें जेल से रिहा नहीं किया गया।

दरअसल, भाजपा-तृणमूल टकराव की शुरुआत अक्टूबर 2014 में हुए बर्धवान विस्फोट की जांच राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) को देने के केंद्र के फैसले से हो गई थी। ममता बनर्जी ने राज्य सरकार को सूचित किए बगैर जांच स्वत: ही एनआईए को दिए जाने के केंद्र के फैसले पर ऐतराज जताया था। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर चर्चित शारदा घोटाले की सीबीआई जांच के दौरान भाजपा ने आरोप लगाया कि ममता बनर्जी के करीबियों ने शारदा घोटाले को अंजाम दिया है और लोगों से हड़पा गया धन तृणमूल को मिला है। शारदा घोटाले में तृणमूल के राज्यसभा सांसद कुणाल घोष को नवंबर 2013 में गिरफ्तार किया गया था।

कड़वाहट तब और बढ़ गई जब सीबीआई की टीम 3 फरवरी की शाम को कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के आधिकारिक निवास पर तलाशी व पूछताछ के लिए पहुंच गई। तब कोलकाता पुलिस सीबीआई टीम को पकड़ कर थाने ले गई और स्थानीय सीबीआई दफ्तर को घेर लिया। इस बीच ममता बड़े ही नाटकीय अंदाज में पुलिस आयुक्त के घर पहुंच गईं। ममता सीबीआई के जरिए केंद्र पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए सभी राजनीतिक दलों और देश के सभी सुरक्षाबलों को ललकारते हुए धरने पर बैठ गईं और बाद में पश्चिम बंगाल में सीबीआई के प्रवेश पर रोक लगा दिया।

शारदा चिटफंड की तरह ही रोज वैली घोटाले पर भी काफी वक्त से हड़कंप मचा हुआ है। इसमें कई बड़े नेताओं का नाम भी शामिल होने  की बात सामने आ चुकी है। तृणमूल के दो सांसदों सुदीप बनर्जी और तापस पाल को तो महीनों जेल में रहना पड़ा था। इसी कड़ी में नारद स्टिंग विवाद का जिक्र भी आता है। पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के समय नारद न्यूज पोर्टल ने कई सारे वीडियो अपलोड किए थे, जिनमें तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को एक फर्जी कंपनी का पक्ष लेने के बदले रुपये स्वीकारते देखा गया था। इस मामले में अप्रैल 2017 में सीबीआई ने तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं सहित 13 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की। हालांकि ये मामले सीबीआई ने कोलकाता हाईकोर्ट के आदेश के बाद दर्ज किए थे, लेकिन ममता बनर्जी शुरू से ही मोदी सरकार पर सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) समेत तमाम एजेंसियों को प्रदेश सरकार के खिलाफ राजनीतिक हथियार बनाने के आरोप लगाती रहीं। भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में अपना जनाधार बढ़ाने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। 2014 में भाजपा को यहां सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन पांच साल बाद भाजपा मुख्य लड़ाई में आ गई और दीदी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गई।

यह आलेख प्रकाशित होने तक लोकसभा चुनाव के नतीजे भी आ चुके होंगे और वास्तविक आंकड़े चाहे जो भी हों भाजपा के शीर्ष नेताओं का आकलन है कि इस बार पश्चिम बंगाल में भाजपा का आंकड़ा दो अंकों में पहुंचेगा। भाजपा से तृणमूल की सीधी लड़ाई का कारण भी यही है, जिसे तृणमूल के जनाधार में कमी और भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के बाद भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच तेज हुई सियासी जंग में चुनाव आयोग भी गैर भाजपा दलों के निशाने पर आ गया। राज्य में प्रचार की अवधि कम करने के चुनाव आयोग के फैसले को इन दलों ने अन्यायपूर्ण बताया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कहा, ‘ऐसा लगता है कि आयोग भाजपा के हाथों बिक गया है। अगर यह कहने के लिए मुझे जेल भेजा जाता है तो मैं तैयार हूं।’ दीदी के इन आरोपों के बावजूद, ले-देकर पश्चिम बंगाल ही हिंसा और बवाल की त्रासदी झेल रहा है। लोकतंत्र को खून से सींचने वाले राजनेताओं को सत्ता मिल जाती है, लेकिन हिंसा की भेंट चढ़ने वाले उस आम आदमी को क्या मिलता है?

 

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