हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
न्यायपालिका गंभीर संकट में

न्यायपालिका गंभीर संकट में

by अवधेश कुमार
in जून २०१९, राजनीति, सामाजिक
0

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर जो बवंड़र उठा, उसके पीछे बड़े ताकतवर लोग और समूह हैं, जो न्यायपालिका को प्रभावित कर अपने पक्ष में फैसले करवाना चाहते हैं। ऐसे शक्तिशाली लोगों की साजिश में भूमिका पकड़ पाना आसान नहीं है। पकड़ में आ भी गई तो उनके खिलाफ कार्रवाई कठिन और कार्रवाई हो गई तो फिर कई स्तरों पर विरोध…

यह दृश्य हतप्रभ करने वाला था। उच्चतम न्यायालय के बाहर महिला अधिकार कार्यकर्ता, मानवाधिकारवादी के नाम से जाने जानी वाली एक्टिविस्ट महिलाएं, जिनमें काफी संख्या में वकील भी थीं, मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रदर्शन कर रहीं थीं। आजाद भारत के इतिहास में इसके पूर्व कभी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इस तरह का प्रदर्शन नहीं हुआ था। इसके पूर्व भी वकीलों के कुछ संगठन ने यह मांग की थी कि मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को तब तक अपने को न्यायिक कार्यों से अलग रखना चाहिए जब तक वे यौन शोषण के आरोप से बरी नहीं हो जाते। मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, कमला भसीन समेत अन्य एिक्टिविस्टों ने बयान जारी कर कहा कि मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप गंभीर हैं जिनकी एक स्वतंत्र समिति से जांच करानी चाहिए।

उच्चतम न्यायालय में राफेल मामले को लेकर जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने तो यौन उत्पीड़न की जांच करनेवाली समिति के माननीय न्यायाधीशों को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने ननी पालकीवाला व्याख्यान में कहा कि उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को यौन उत्पीड़न के एक मामले में क्लीन चीट देकर न्यायालय की आंतरिक जांच समिति के न्यायाधीशों ने शिकायतकर्ता, प्रधान न्यायाधीश और एक संस्था के रूप में उच्चतम न्यायालय के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। शौरी ने यहां तक कह दिया कि प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में इसकी जांच कर रहे तीन न्यायाधीशों ने एक क्लब के सदस्यों की तरफ व्यवहार किया। आरोप पर विचार करने में दुर्बलता दिखाई गई और यह संदेह हमेशा बना रहेगा कि समिति के तीन सदस्य प्रधान न्यायाधीश का बचाव कर रहे थे।

मुझे याद नहीं कि कभी मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को लेकर इस तरह का विरोध प्रदर्शन और ऐसी टिप्पणियां की गईं हों। उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की आंतरिक जांच समिति ने 5 मई को मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत को निराधार बता दिया। न्यायमूर्ति एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली समिति में दो अन्य सदस्य थीं, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी। जांच रिपोर्ट का विस्तृत विवरण हमारे पास नहीं है। किंतु तीन सदस्यों की इस समिति को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों में कोई ठोस आधार नहीं मिला।

उच्चतम न्यायालय के सेक्रटरी जनरल की ओर से जारी बयान में बताया गया कि आंतरिक समिति ने अपनी रिपोर्ट 5 मई 2019 को सौंपी। आंतरिक प्रक्रिया के अनुसार अगले वरिष्ठ जज को यह रिपोर्ट दी गई और इसकी एक कॉपी संबंधित न्यायाधीश (मुख्य न्यायाधीश ) को भी भेजी गई। बयान में आगे बताया गया कि आंतरिक जांच समिति को उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व कर्मचारी द्वारा 19 अप्रैल 2019 को की गई शिकायत में लगाए गए आरोपों में कोई भी ठोस आधार नहीं मिला।

प्रेस वक्तव्य में साफ कहा गया है कि कमिटी की रिपोर्ट की विषय वस्तु (जो इन-हाउस प्रोसीजर यानी प्रक्रिया का हिस्सा है) को इंदिरा जयसिंह मामले में उच्चतम न्यायालय के 2003 के फैसले के अनुसार सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। इसे लेकर भी हंगामा मचा हुआ है। प्रदर्शन करने वाले या विरोधी बयान देने वालों का कहना है कि इस मामले में शिकायतकर्ता महिला को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर नहीं मिला, उसे वकील रखने की भी अनुमति नहीं दी गई, इसलिए यह रिपोर्ट एकपक्षीय है। यह बात ठीक है कि आरंभ में महिला सुनवाई में शामिल हुई लेकिन 30 अप्रैल को उसने कार्यवाही से अपने को अलग कर लिया। उसकी ओर से एक विस्तृत बयान जारी हुआ जिसमें कहा गया कि समिति का वातावरण बहुत ही भयभीत करने वाला था और उसे अपना वकील ले जाने की अनुमति भी नहीं मिली। ध्यान रखिए, स्वयं मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी 1 मई को समिति के समक्ष पेश होकर अपना बयान दर्ज कराया था।

इस तरह तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति ने भले अपनी रिपोर्ट दे दी, लेकिन इसे अविश्वसनीय बनाने का पूरा प्रयास चल रहा है। यह विचार करने वाली बात है कि आखिर ये लोग हैं कौन जिनकी इस मामले में इतनी रुचि है? किसी महिला के साथ यदि यौन उत्पीड़न हुआ है तो उसका साथ जरुर देना चाहिए, उसे न्याय भी मिलना चाहिए। किंतु महिला ने मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप लगाया उसे ही सच कैसे मान लिया जाए? हम उच्चतम न्यायालय के तीन बड़े न्यायाधीशों पर विश्वास क्यों नहीं करते? आखिर वे न्यायमूर्ति हैं। उनका अब तक का रिकॉर्ड बिल्कुल निष्पक्ष फैसला करने वाला रहा है। इसलिए यह मान लेना कि उन्होंने जानबूझकर समिति में सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया, मुख्य न्यायाधीश को बचाने के लिए पक्षपात किया होगा यह मान लें तो हमारे शीर्ष न्यायालय को ही स्थायी रूप से संदेहास्पद बना देना होगा। समिति में दो सदस्य महिला हैं।

उच्चतम न्यायालय की जिस महिला कर्मचारी ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न पर आरोप लगाया था उसने उनके आवास स्थित कार्यालय पर डेढ़ महीने तक काम किया था।  उसने एक लंबा चौड़ा पत्र 22 न्यायाधीशों को लिखा तथा वह प्रेस  में भी आ गया। पहले कुछ वेब पोर्टलोंं ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया और उसके बाद फिर कुछ अखबारों ने इसे उठाया। तो यह भी विचार करने वाली बात है कि आखिर एक सामान्य कर्मचारी का इतना विशाल संपर्क कैसे हो गया कि उसकी बातें जैसा वह चाहती थी उसी तरह प्रेस में आ गईं? यदि कोई सामान्य महिला मुख्य न्यायाधीश जैसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप लेकर जाए तो उसे मीडिया में स्थान मिलना मुश्किल होगा, लेकिन इसे मिला। उसके बाद वकीलों के संगठन से लेकर तथाकथित मानवाधिकार संगठन, महिला संगठन, देश के नामी-गिरामी वकील, बुद्धिजीवी, वकीलों के कुछ संगठन और मीडिया का एक वर्ग जिस तरह सामने आया है उससे साफ लगता है कि इसके पीछे निश्चय ही कुछ लोग योजनापूर्वक लगे हुए हैं। अगर वे लगे हैं तो उनका साफ उद्देश्य भी होगा। तो क्या हो सकता है उद्देश्य?

आप देखेंगे कि इस एक प्रकरण के साथ न्यायपालिका की कई दुरवस्थाएं सामने आईं हैं  जिनकी चिंता हमें आपको करनी चाहिए या जिनसे न्याय की आस में आए आम आदमी को निराश होना पड़ता है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा है कि उन पर आरोप लगाकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला किया जा रहा है और इसके पीछे एक बड़ी ताकत काम कर रही है। उन्होंने कहा कि ये लोग मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को ही निष्क्रिय करना चाहते थे क्योंकि वह कुछ संवेदनशील मामलों की सुनवाई कर रहे थे। मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि उन्हें दुख इस बात का है कि 20 साल न्यायपालिका में काम करने के बाद भी उनके बैंक अकाउंट में सिर्फ 6,80,000 रुपये हैं और उनके पीएफ़ खाते में 40 लाख रुपये। ऐसे में जब वे लोग किसी और तरह से उन पर शिकंजा नहीं कस सके तो उन्होंने यौन उत्पीड़न जैसे किसी आरोप की तलाश की।

शुरुआत में उन्होंने इस मामले की सुनवाई के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया। आरंभ में इस पीठ की अध्यक्षता करने का अभूतपूर्व कदम उन्होंने उठाया और अपनी बात रखी।  हालांकि इसके बाद उन्होंने कहा कि ़फैसला देने का अधिकार न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के पास है। उन दोनों न्यायाधीशों ने ही उस समय फैसला लिखा। मुख्य न्यायाधीश ने ही तीन न्यायाधीशों की समिति बना दी जिसकी अगुवाई दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश एस.ए. बोबडे को सौंपी गई। उन्होंने इस समिति मेें न्यायाधीश एन. वी. रामन्ना और इंदिरा बैनर्जी को शामिल किया।

आरोप लगाने वाली महिला ने कह दिया कि रामन्ना तो गोगोई के दोस्त हैं वे कैसे न्याय करेंगे तो उन्होंने समिति से अपने को अलग कर लिया तथा उनकी जगह दूसरी महिला न्यायाधीश इन्दु मल्होत्रा आ गईं। जो लोग इस समय चिल्लपों कर रहे हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि रिपोर्ट के बाद मामले की सुनवाई तीन सदस्यीय पीठ करेगी। इस मामले को सीबीआई को सौंपे जाने की एक याचिका भी लंबित है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका को गंभीर खतरे में मान रहे हैंं तथा महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के पूर्व उनके सहित अन्य न्यायाधीशों को दबाव में लाने की साजिश की ओर संकेत कर रहे हैं तो इससे गंभीर स्थिति शीर्ष न्यायपालिका के लिए कुछ हो ही नहीं सकती।

उस समय यह कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश की पीठ को राहुल गांधी पर अवमानना याचिका, नरेन्द्र मोदी की बायोपिक, कुछ भूमि अधिग्रहण मामले की सुनवाई करनी थी। किंतु बाद में पता चला कि उनके पास प्रसिद्ध एक्टिविस्ट वकील इंदिरा जयसिंह एवं उनके पति अशोक ग्रोवर का मामला है, आम्रपाली का मामला है, कई अन्य बिल्डरों के खिलाफ मामला है, कुछ उद्योगपतियों के मामले हैं,……। अगर इस महिला का हथियार की तरह उपयोग किया गया तो इसके पीछे कौन शक्तियां हो सकती हैं? नरेन्द्र मोदी का बायोपिक ऐसा मामला नहीं जिससे मुख्य न्यायाधीश और पूरे शीर्ष न्यायालय को दबाव में लाने का दुस्साहस किया जाए।

मामले के आरंभ में उत्सव बैंस नाम के वकील ने उच्च्तम न्यायालय में एक शपथपत्र दिया जो चौंकाने वाला था। शपथपत्र में बैस ने कहा है कि अपना नाम अजय बताने वाले एक शख़्स ने उनसे संपर्क किया है। यह शख़्स खुद को शिकायत करने वाली महिला का रिश्तेदार बताता है। बैंस ने शपथपत्र में बताया है कि अजय चाहता था कि वह इस मामले में आरोप लगाने के लिए एक प्रेस कॉऩ्फ्रेंस का आयोजन करें और इसके लिए उन्हें 50 लाख रुपए देने की पेशकश हुई थी जो कि बाद में डेढ़ करोड़ रुपये तक पहुंच गई। अपने शपथपत्र में बैंस ने कहा है कि उनके विश्वासपात्र सूत्रों ने उन्हें बताया है कि इस पूरे मामले के पीछे वो लोग शामिल हैं जो रिश्वत देकर अदालती ़फैसले बदलवाने की दलाली करते हैं, अपने अनुसार पीठ गठित करवाने की कोशिश करते हैं। बैंस का कहना है कि मुख्य न्यायाधीश ने ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कदम उठाए हैं इसलिए गोगोई के खिलाफ़ एक साजिश रची गई है ताकि वह अपने पद से इस्तीफ़ा दे दें।

इस तरह दूसरे न्यायाधीशों को भी धमकाने की कोशिश की जा रही है जो कि देश के अमीर और ताकतवर लोगों के खिलाफ़ फैसला सुनाते वक्त स्वतंत्र और निडर रहते हैं। यह सनसनी पैदा करने वाला वाकया है। इसमें यह भी शामिल है कि देश के प्रभावी लोग अपने अनुसार पीठ गठित करवाने की भी कोशिश करते हैं। इसे बेंच फिक्सिंग नाम दिया जा रहा है। अगर इन दोनों में वाकई संबंध है तो फिर यह मानकर चलना चाहिए कि हमारी शीर्ष न्यायपालिका को गहरे संगट में फंसा दिया गया है या फंसाया जा रहा है। अगर फैसला हमारे अनुकूल नहीं आया तो किसी महिला से मुख्य न्यायाधीश पर ही आरोप लगा दो। फिर अपने अनुसार पीठ गठित करवाओ। इससे खतरनाक स्थिति तो कुछ हो नहीं सकती। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने सीबीआई और दिल्ली पुलिस को तलब किया तथा सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ए. के. पटनायक की अध्यक्षता मेंं एक जांच समिति बना दी जो पूरे मामले की गहराई से छानबीन करे तथा जांच एजेंसियां उसमें पूरा सहयोग करे। इतने बड़े अपराध और भ्रष्टाचार के जाल को बगैर सीबीआई एवं पुलिस के सहयोग के सामने लाना संभव नहीं है। इस तरह देखें तो एक प्रकरण से शीर्ष न्यायपालिका की भयावह दुरवस्थाओं की सफाई की संभावना बन रही है। हो सकता है जांच और छानबीन उच्चतम न्यायालय से निकलते हुए कुछ उच्च न्यायालयों तक भी पहुंचे। आरोप लगाने वाली महिला के पीछे की शक्तियां भी पकड़ में आ सकतीं हैं।

न्यायपालिका का भ्रष्टाचार कोई छिपा तथ्य नहीं है। जिसे न्यायालय का चक्कर लगाना पड़ता है उसे सब कुछ समझ में आ जाता है। न्यायपालिका की महानता की छवि कुछ ही दिनों में धूल धुसरित हो जाती है। किंतु न्यायापालिका के खिलाफ कोई जाए तो कहां? कोई साहस करता ही नहीं। न्यायपालिका कैसे चल रहा है इसका कुछ उदाहरण देखिए। मुख्य न्यायाधीश की पीठ के सामने नोएडा टोल का मामला आ गया। उन्होंने कहा कि यह मामला तो लिस्टेड था नहीं फिर कैसे आया? और उसे सुनवाई से अलग किया गया। जरा सोचिए, जो मामला लिस्टेड नहीं था उसे सुनवाई के लिए रख दिया गया। ऐसा करने वाले कौन होंगे? नोएटा टोल का डीएनडी जबसे टोल मुक्त हुआ है कंपनी की छटपटाहट बढ़ गई है। वह हर हाल में अपनी सुनवाई तथा अपने अनुकूल फैसला कराना चाहती है। इसलिए उसे जितना खर्च करना पड़े करेगी। जाहिर है, उसने न्यायालय के कर्मचारियों को मिलाया होगा। उन्होंने मामले की तारीख ही बदल दी। ऐसा जब उच्चतम न्यायालय में हो सकता है तो फिर निचले न्यायालयों में क्या हो रहा होगा इसकी कल्पना करिए।

यही नहीं राफेल मामला भी सुनवाई के लिए आ गया। फिर मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि इसमें अवमानना का मामला कहां है? किसी के पास कोई जवाब नहीं था। न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा कि हमने तो 30 अप्रैल को दोनों मामलों की साथ सुनवाई का आदेश दिया था फिर यह अलग से कैसे आ गया? देखा गया कि उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर भी केवल पुनर्विचार याचिका की तिथि अंकित थी। रंजन गोगोई भी भौचक्क थे कि यह हो क्या रहा है। खैर, मामला सुनवाई से हटा।

ये कुछ बानगियां हैं जिनसे समझा जा सकता है कि शीर्ष न्यायालय में कैसे चल रहा है? हमारा आपका मामला हो तो पता नहीं कहां और कब तक दबा रहे, लेकिन पैसे वाले प्रभावी लोगों का मामला तुरंत सुनवाई में आ जाता है। इन मामलों में तो मुख्य न्यायाधीश ने अपने याददाश्त से समझा कि गलत हो रहा है, अन्यथा इनकी सुनवाई होती। अन्य पीठोंं में इसी तरह हो रहा होगा। देश चाहेगा कि न्यायपालिका को गिरफ्त में लेने वाले भ्रष्टाचारियों, अपराधियों का तंत्र टूटे और वे जेल में जाएं। न्यायपालिका हर हाल में स्वच्छ हो। पिछले कुछ सालों से हमने अजीब स्थितियां देखीं हैं। मूल फैसले में हेर-फेर करके वेबसाइट पर डाला गया।

आजकल एक्टिविस्ट वकीलों, जिनमें कुछ राजनीतिक दल के वकील भी शामिल हैं, हर तरह से न्यायालय को दबाव में लाने की कोशिश करते हैं। जिस मामले की सुनवाई वे जल्दी चाहते हैं उसके लिए अलग रास्ता अपनाते हैं और जिसकी नहीं चाहते उसके लिए अलग। हर न्यायाधीश अपने वकालत काल में किसी न किसी का वकील होता है। इसके आधार पर अगर प्रश्न उठाया जाएगा तो फिर कोई बचेगा ही नहीं। मुख्य न्यायाधीश ने पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर ऐसे होगा तो फिर मामले की सुनवाई कौन करेगा?

ये एक्टिविस्ट वकील अपने प्रभाव से न्यायालय में अपनी याचिकाएं किसी न किसी तरह स्वीकृत कराने में सफल हो जाते हैं। उदाहरण के लिए राफेल पुनर्विचार याचिका। सरकारी वकील कुछ नहीं कर सके। याकूब मेमन की फांसी पर राष्ट्रपति की मुहर लग चुकी थी लेकिन इतनी रात में न्यायालय खुलवाने को मजबूर किया। इस तरह कुल मिलाकर अलग-अलग चरित्रों वाले विधि माफियाओं का वर्चस्व हमारे न्यायपालिका पर हो गया है। इनके अनेक निहित स्वार्थ हैं और उसकी पूर्ति ये करते हैं।

इसीलिए महिला के यौन उत्पीड़न के आरोप के पीछे साजिश की गंध आती है। उस महिला पर उच्चतम न्यायालय में डी वर्ग में भर्ती के लिए घूस लेेने का आरोप है जिसकी प्राथमिकी दर्ज है। उसमें जब भर्ती नहीं हुई तो पैसा मांगने वाले को डराया धमकाया गया। न्यायमूर्ति गोगोई के कार्यालय में उसने डेढ़ महीने काम किया था। पिछले साल 11-12 अक्टूबर को गोगोई के निजी सचिव ने शिकायतकर्ता की ओर से किए अनुचित व्यवहार की एक शिकायत रजिस्ट्री विभाग को भेजी थी। यह बात दिल्ली पुलिस को बताई गई जिसके बाद उसका निलंबन हुआ। इसके बाद उसे नौकरी से निकाल दिया गया। उसके पति ने फ़ोन करके मुख्य न्यायाधीश से मदद मांगने की कोशिश की ताकि उन्हें नौकरी में वापस ले लिया जाए। जब उसने काम करना शुरू किया था तो भी उसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 324 (जानबूझकर ख़तरनाक हथियारों से किसी को नुकसान पहुंचाना) और धारा 506 (आपराधिक धमकी) के तहत प्राथमिकी दर्ज थी। इसके बाद दूसरी प्राथमिकी इस साल की शुरुआत में दर्ज की गई।

लॉयर्स वॉइस नाम के संगठन की ओर से अधिवक्ता पुरुषेंद्र कौरव ने गृह मंत्रालय के 31 मई, 2016 और 27 नवंबर, 2016 के आदेश का हवाला देते हुए न्यायालय को बताया कि जयसिंह और आनंद ग्रोवर ने विदेशी चंदा अधिनियम का उल्लंघन कर धन हासिल किया। इसके अलावा दोनों ने देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हुए सांसदों और मीडिया के साथ लॉबिंग कर कई महत्वपूर्ण निर्णयों और नीति निर्धारण को प्रभावित करने की कोशिश की। यह सब कुछ तब किया गया, जब इंदिरा जयसिंह एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के पद पर थीं। इस पद पर तैनात व्यक्ति अपनी कानूनी राय के जरिए सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सकता है।

याचिकाकर्ता ने कहा कि केंद्र सरकार इस मामले में जांच कराने में असफल रही। कायदे से इसकी पूरी जांच होनी चाहिए। किंतं जांच न हो इसलिए ये अपनी रणनीति अपना रहे हैं। इनके पक्ष में उच्चतम न्यायालय के ऑन रिकॉर्ड वकीलों का एसोसिएशन सामने आ गया। इसने कहा है कि यौन उत्पीड़न आरोप मामले में कानून के मुताबिक़ कार्यवाही होनी चाहिए थी लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने इस पूरे मामले में जो भूमिका निभाई वह आपत्तिजनक़ है। इस मामले की खुली अदालत में सुनवाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएसन एग्जिक्युटिव कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें कहा गया कि इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया जाना कानून और न्याय के सिद्धांतों के अनुसार भी ग़लत है।

क्रिमिनल लॉ एसोसिएसन में महिलाओं के एक समूह में से 1282 महिलाओं ने एक बयान पर हस्ताक्षर करके मांग की है कि शिकायत करने वाली महिला को अपना पक्ष रखने का मौका मिलना चाहिए था। इस बयान में यह भी कहा गया है कि जब तक इस मामले में जांच जारी है तब तक मुख्य न्यायाधीश अपने पद पर बने नहीं रह सकते ताकि न्यायालय की गरिमा को बनाए रखा जा सके। आदर्श स्थिति में होना यह चाहिए था कि मुख्य न्यायाधीश को न्यायालय की इंटरनल कंपलेंट कमेटी को इन आरोपों की निष्पक्ष जांच करने का आदेश देना चाहिए था जिसके नियम-कानून बिल्कुल स्पष्ट हैं कि जांच समिति में कम से कम आधी महिलाएं हो, एक बाहर का व्यक्ति हो, वगैरह। हालांकि ये भूल गए कि यौन उत्पीड़न के मामलों में इंटरनल कंपलेंट कमेटी के काम करने की प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों पर लागू नहीं होती है। सामान्य तौर पर नियम है कि पुलिस को यौन उत्पीड़न के मामलों में प्राथमिकी दर्ज करे। लेकिन 1991 में न्यायालय ने ़फैसला सुनाया था कि किसी भी सेवारत न्यायाधीश के खिलाफ़ मुख्य न्यायाधीश से बात किए बिना आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। यहां तो आरोप ही मुख्य न्यायाधीश पर लगा है। यह कहीं नहीं लिखा है कि अगर आरोप मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ़ हों तो ऐसी हालत में क्या किया जाए।

अब उच्चतम न्यायालय को अपनी जेबी संस्था मानने वाले कुछ वकील, एक्टिविस्ट तथा यहीं से प्रसिद्धि, प्रभाव और पैसा पाने वालों के गिरोह को यह नागवार गुजर रहा है तो वे सीधे सड़कों पर उतर रहे हैं। हालांकि रंजन गोगोई उन चार न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने उच्चतम न्यायालय के इतिहास में पहली बार पिछले वर्ष 12 जनवरी को पत्रकार वार्ता करके अंदरुनी बातों का उजागर किया था। उसमें पीठ गठन को लेकर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को नाम लिए बिना निशाना बनाया गया था। आज वही रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश हैं और उनको सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है। मीडिया, एक्टिविस्टों एवं नेताओं का जो वर्ग रंजन गोगोई को हीरो बना रहा था वही उनको घेरने में लग गया है।

ये एक्टिविस्ट वकील अपने प्रभाव से न्यायालय में अपनी याचिकाएं किसी न किसी तरह स्वीकृत कराने में सफल हो जाते हैं। उदाहरण के लिए राफेल पुनर्विचार याचिका। सरकारी वकील कुछ नहीं कर सके। याकूब मेमन की फांसी पर राष्ट्रपति की मुहर लग चुकी थी लेकिन इतनी रात में न्यायालय खुलवाने को मजबूर किया। इस तरह कुल मिलाकर अलग-अलग चरित्रों वाले विधि माफियाओं का वर्चस्व हमारे न्यायपालिका पर हो गया है।

न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के सामने पीठ गठन में धांधली और बाहरी हस्तक्षेप का प्रश्न खड़ा हो गया है। इनने सभी न्यायाधीशों की बैठक की मांग की थी। आज यही मांग हो रही है। दीपक मिश्रा को मीडिया की आलोचना से लेकर इन एक्टिविस्टों का विरोध तो झेलना ही पड़ा, उनके खिलाफ राज्य सभा में महाभियोग तक का नोटिस आया जिसे उप राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया। यह भी दबाव बनाने की साजिश थी। नेशनल हेराल्ड मामला की अपील थी, राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी के आयकर अंकेक्षण को रोके जाने की अपील थी। तो क्यों न माना जाए कि दीपक मिश्रा को दबाव में लाने की कोशिश की गई? याकूब मेमन को फांसी का आदेश देने के कारण वैसे ही उनके खिलाफ एक बड़ी लॉबी थी। इस लॉबी को उम्मीद थी कि रंजन गोगोई अनुकूल मुख्य न्यायाधीश साबित होंगे। ऐसा हुआ नहीं। राफेल में इन्होंने सरकार के पक्ष में फैसला दे दिया, राहुल गांधी और सोनिया गांधी के 2012-13-14 के आयकर रिटर्न की संवीक्षा के आदेश दे दिए, अयोध्या मामले पर बातचीत के लिए समिति बना दी, इंदिरा जयसिंह को कठघरे में खड़ा होने की स्थिति पैदा कर दी…। ये सब बहुत लोगों को सहन नहीं हो रहा है।

न्यायापालिका में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर शक्तिशाली बने लोगों के समूह ने बिल्कुल ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि इनके चंगुल से मुक्त कराने के लिए लंबे संघर्ष की आवश्यकता है।  सीबीआई एवं पुलिस जांच करे तथा साहस के साथ दोषियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो। किंतु जो संदेह के घेरे में आ रहे हैं वे इतने शक्तिशाली हैं कि उनकी भूमिका को पकड़ पाना आसान नहीं, अगर एकाध की साजिश पकड़ में आ गई तो उनके खिलाफ कार्रवाई कठिन और कार्रवाई हो गई तो फिर कई स्तरों पर विरोध। इस तरह आने वाला समय काफी बवंडरों वाला हो सकता है।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: hindi vivekhindi vivek magazinepolitics as usualpolitics dailypolitics lifepolitics nationpolitics newspolitics nowpolitics today

अवधेश कुमार

Next Post
सुप्रीम कोर्ट और विवादित फैसले

सुप्रीम कोर्ट और विवादित फैसले

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0