राजनीति का स्तरतय करना हमारी जिम्मेदारी

2019 के संसदीय चुनाव में बयानबाजी ने सारी हदें पार की हैं। नेता लोकतंत्र के शिष्टाचार और मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं। ऐसे बिगड़ैल नेताओं के साथ कैसे पेश आए यह प्रबुद्ध मतदाताओं को भविष्य में तय करना ही होगा। अन्यथा, राजनीतिक अराजकता का खतरा पैदा हो जाएगा।

चुनाव की घोषणा होते ही आचार संहिता पर अमल प्रारंभ हो जाता है। चुनाव सही वातावरण में सम्पन्न हों, सभी को प्रचार के समान अवसर प्राप्त हों, सत्ता का गलत उपयोग करके या सत्ता के प्रभाव में चुनाव ना हों और चुनाव के माहौल में समाज में दरार डालने वाले वक्तव्य न दिए जाएं इत्यादि पर कड़ी निगरानी रखने का कार्य चुनाव आयोग करता है। भारत मेें चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने सर्वप्रथम चुनावी आचार संहिता की सही पहचान करवाई थी। टी.एन.शेषन के आने से पहले भाषणबाजी के शोरगुल में, पोस्टरबाजी से रेलमपेल माहौल में चुनाव सम्पन्न होते थे। चुनाव के दौरान निर्माण होने वाले इस तरह के गंदे वातावरण को तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने पूरी तरह बदलने का प्रयास किया। देर रात तक चलने वाले चुनाव प्रचार को बंद किया। चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशी के आर्थिक व्यवहारों की पूरी जानकारी चुनाव आयोग को देने का कड़ा नियम बनाया। टी.एन.शेषन द्वारा लागू की गई चुनावी आचार संहिता उस समय के राजनेताओं को बहुत अन्यायपूर्ण लगती थी। लेकिन किसी भी राजनैतिक दबाव को ना मानते हुए टी.एन.शेषन ने चुनावी  माहौल में परिवर्तन लाने का बहुत प्रयास किया था।

2019 के लोकसभा चुनावों में जिस प्रकार का चुनावी माहौल सभी दलों के नेताओं की भाषणबाजी से निर्माण हुआ है, उसे देखते हुए यह महसूस हो रहा है कि भारतीय राजनेताओं पर टी.एन.शेषन द्वारा बनाए गए नियमों का कोई असर नहीं हो रहा है। ’चुनाव जीतने के लिए द्वेषपूर्ण वातावरण का निर्माण करना आवश्यक है’, इस प्रकार के विचारों की बुनियाद पर वर्तमान राजनीति चल रही है। शायद इसी सूत्र को लेकर आज के राजनेता और राजनीतिक दल अपनी चुनावी रणनीति बनाते हैं। जैसे-जैसे 2019 के चुनाव आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे राजनीतिक नेताओं की बौद्धिक मर्यादाओं और वक्तृत्व शैली से देश परिचित हो रहा था। जातिगत ध्रुवीकरण, व्यक्तिगत टीका- टिप्पणी, महिलाओं का अनादर करने वाले वक्तव्य सभी दलों के नेता कर रहे थे। चुनाव प्रचार का रंग जैसे-जैसे गहरा हो रहा था वैसे-वैसे नेताओं की जिव्हा तेज होती जा रही थी। चुनाव प्रचार के दौरान अपनी पार्टी की योजना देश की जनता के सामने रखना, जनता के विकास के लिए आवश्यक विकल्पों पर विचार प्रस्तुत करना, अपनी पार्टी की विचारधारा को लोगों तक पहुंचाना इत्यादि चुनाव प्रचार के मुख्य मुद्दे हों, यह सभी दलों से अपेक्षा होती है। लेकिन आज के राजनेता इन अपेक्षाओं का दहन कर रहे हैं। आजकल राजनेता चुनाव मैदान में जो खेल खेल रहे हैं वह चुनाव के मुख्य उद्देश्य को ही दिशाहीन करने वाला है। ऐसा प्रतीत होता है  मानो ऐसी दिशाहीनता लाने के उद्देश्य से ही सभी दलों के राजनीतिक नेता जानबूझकर अपना व्यवहार कर रहे हैं।

चौकीदार चोर है,  शमशान-कब्रस्तान,  रामजादे-हरामजादे, अली-बजरंगबली, हरा वायरस इस प्रकार की भाषा का उपयोग चुनाव में सीधे-सीधे हो रहा है। मेनका गांधी ने तो मुसलमानों को दो टूक कह दिया था कि, ‘चुनाव में मेरी विजय निश्चित है। अगर आप मुझे अपना वोट देते हैं तो ठीक, नहीं देते तो आपके कोई भी काम नहीं होंगे।’ यह भारत के नेताओं के मन में पनपते साम्प्रदायिक भाव को स्पष्ट करता है। मेनका गांधी कीइस धमकी भरे वक्तव्य पर चुनाव आयोग ने कड़ा रुख अपनाया। मायावती ने तो इससे भी आगे बढ़कर मुस्लिम समुदाय को साप्रदायिक आवाहन करते हुए कहा कि मुसलमान अपने एकगठ्ठा वोट सपा-बसपा गठबंधन को ही दें। यह आवाहन मायावती को बहुत भारी पड़ा। धार्मिक आधार पर सीधे वोट की गुहार लगाने वाले इस वक्तव्य पर चुनाव आयोग ने आक्षेप लिया। मायावती पर दंडात्मक कार्रवाई करते हुए दो दिन तक उनके चुनाव प्रचार में भाग लेने पर पाबंदी लगा दी गई। गिरिराज सिंह ने एक सभा में कहा कि अगर मोदी जी को वोट नहीं देना है, तो पाकिस्तान में जाओ। ऐसा महसूस हो रहा था कि इन नेताओं को भारतीय संविधान की जानकारी नहीं है। आचार संहिता को दरकिनार करते हुए ये बड़बोले नेता अत्यंत चालाकी से अपने वक्तव्यों से जातिगत-धार्मिक ध्रुवीकरण की व्यूहनीति बना रहे हैं। परंतु इस चुनाव में नेताओं की दबंगई और चालाकी पर चुनाव आयोग ने अपना शिकंजा कसने का प्रयास किया है। इस चुनाव में नेताओं की  मनमानी नहीं चली। चुनाव आयोग ने लगभग हर बडबोले नेता पर दंडात्मक कार्रवाई की है।

समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान तो बड़बोलेपन में सभी नेताओं का शिरोमणि हैं। उनके गैरजिम्मेदार वक्तव्य हमेशा ही चर्चा में रहते हैं। 2019 के चुनाव में तो उन्होंने सभी मर्यादाएं लांघ दीं। भाजपा की उम्मीदवार अभिनेत्री जयाप्रदा पर की गई उनकी टिप्पणी ने यह स्पष्ट कर दिया कि आजम खान असभ्यता के किस शिखर तक जा सकते हैं। मुसलमानों के एकगठ्ठा वोट उम्मीदवारों को निरंतर आकर्षित करते रहते हैं। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी  मुसलमानों के वोटों पर अपना दावा मानती है और आजम खान उस पर अपना अधिकार समझते हैं। आजम खान इस बार अत्यंत निचले स्तर तक पहुंच गए थे। अत: चुनाव आयोग को भी उनके वक्तव्य पर सख्त रुख अपनाना पड़ा। आजम खान पर 3 दिन की प्रचार पाबंदी लगा दी गई थी।

किसने क्या कहा?

राजनीतिक स्वार्थ के लिए पीएम मोदी ने अपनी पत्नी को भी छोड़ दिया।

– मायावती बसपा

अगर कांग्रेस को 40 से ज़्यादा सीटें मिल गईं तो क्या मोदी दिल्ली के विजय चौक पर फांसी लगा लेंगे?

– मल्लिकार्जुन खड्गे, कांग्रेस 

 नरेंद्र मोदी वोट मांगने बंगाल आ रहे हैं, लेकिन लोग उन्हें कंकड़ भरे और मिट्टी से बने लड्डू देंगे, जिसे चखने के बाद उनके दांत टूट जाएंगे।

– ममता बैनर्जी, तृणमूल कांग्रेस

अगर नरेंद्र मोदी फिर से पीएम बन गए तो हिंदुस्तान खत्म हो जाएगा।

– नवजोत सिंह सिद्धू, कांग्रेस

मैं तो चुनाव जीत रहीं हूं, ऐसे में आप हमारा साथ दीजिए वरना कल जब आप काम के लिए हमारे पास आओगे तो समझ लीजिए मैं क्या करूंगी।

– मेनका गाँधी, भाजपा

चुनाव में जाति और धर्म पर आधारित गणित अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्याशियों को टिकट देने से लेकर चुनावी मुद्दे तय करने तक जाति धर्म से जुड़े हुए विभिन्न घटकों का अस्तित्व महसूस होता रहता है। 2019 के चुनाव में भी इसका प्रकटीकरण हो रहा था। सभी राजनीतिक दलों के लिए धार्मिक-जातिगत ध्रुवीकरण चुनाव जीतने का मंत्र बन गया है तथा इस ध्रुवीकरण के लिए नेताओं की जबान कितने निचले स्तर तक  फिसल सकती है, इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव 2019 के चुनाव में भारतीय जनता ने लिया। प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर विविध दलों के नेताओं पर चुनाव आयोग को कुछ समय के लिए पाबंदी लगानी पड़ी। आम तौर पर राजनीति में भाषा की गिरावट के लिए जुबान फिसलने को दोषी ठहराया जाता है। परंतु सही मायने में यह जुबान फिसलने से ज्यादा खुद को फिसलने से बचाने का तरीका होता है। राजनीति में चुनावी विजय महत्वपूर्ण मानी जाती है और इस विजय को पाने के लिए कुछ झूठे अभिनय से लेकर भाषाई गिरावट तक सब कुछ करने के लिए नेता तैयार होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में हमारी राजनीति का स्तर लगातार गिर रहा है। राजनीतिक बैठकों में, विधान सभा में चप्पल-जूतें फेंके जा रहे हैं। कभी-कभी अपने ही दल के विधायक को जूते से नवाजते हुए सांसद हमें दिखाई देते हैं।

राफेल के विषय को लेकर देश कीसबसे पुराने पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनाव के तीन चरणों तक ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारों की रट लगाई। इस पर न्यायालय ने जब राहुल से जवाब मांगा तो राहुल गांधी ने इस आशय का जवाब दिया कि मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं थी। चुनावी माहौल में जोश के कारण यह बात मुंह से निकल गई। देश के प्रधानमंत्री के संदर्भ में अत्यंत घिनौनी और गलत बयानबाजी करना, गलत बात का आधार लेकर देश की जनता के सम्मुख जाना, देश की जनता के सामने गलत बातें रखकर उनसे मतों की गुहार लगाना और न्यायालय के जवाब तलब करने पर अपनी गलती को मान लेना। यह सब दर्शाता है कि चुनाव जीतने के लिए आज के नेता किस हद तक जा सकते हैं। यह बात अब देश की जनता के सामने उजागर हो रही है। दलगत राजनीति में आपसी मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन जो राष्ट्र की उपेक्षा करते हैं, दूषित उद्देश्य से देश के प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा पर, सेना के कर्तृत्व पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं, उन पर गलत बयानबाजी करते हैं, वे राजनीति के स्तर को रसातल पर ले जाते हैं। आतंकवादियों के विरोध में की गई कार्रवाई को भी सरकार प्रायोजित बताने से विरोधी पक्ष जब बाज नहीं आता, तब देश की जनता के सम्मुख प्रश्न निर्माण होता है कि ये विरोधी दल के नेता है या पाकिस्तान के नेता। कोलकता में अमित शाह के रोड शो में आगजनी और रक्तरंजीत हमला ममता बॅनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओंने किया है। चुनाव आयोग ने 19 घंटे पहले ही पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार रोकने का आदेश जारी किया था। उसके पहले ममता बॅनर्जी ने प्रचार सभा में जो असंवैधानिक बयान बाजी की है, वह निचले स्तर की ही है। “मै नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री नहीं मानती“ और “मुझे नरेंद्र मोदी के मुंह पर लोकशाही की थप्पड जडनी है।“ ममता बॅनर्जी सत्ता के लोभ में आकर लोकशाही को मजाक बना रही है।

प्रसिद्ध सिने अभिनेता कमल हासन ने “स्वतंत्र देश का पहला आतंकवादी हिंदू था, नथुराम गोडसे के रुप में” यह बात कहकर समस्त हिंदूओं के मन में पीडा दे दी है। नथुराम गोडसे ने महात्मा गांधी पर गोलियां चलाई, यह बात भारतीय जनमानस किसी तरह सहन नहीं कर सकता। भारतीय समुह मन की मानसिकता अच्छी तरह से जाननेवाले यह राजनीतिज्ञ इसी कारण भारतीय जनमानस को अस्वस्थ करने के लिए गांधी हत्या का लांच्छन हिंदुओं पर लगाने का निरंतर प्रयास करते है। जब भी संघ परिवार का कोई सामाजिक-राजनीतिक कार्य जनमानस पर प्रभावी होने लगता है तब ये सारे हिंदु विरोधी लोग महात्मा गांधी का विषय कुरेद कर निकालने का प्रयास करते है। कमल हासन ने यह उद्दगार निकालकर समस्त हिंदुओं को आतंकवादी करार दे दिया है। यह उनका कोई नया पैतरा नहीं है, निरंतर चलने वाली बात है। अब हिंदू विरोधियों की बौद्धिक यात्रा अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुकी है। समस्त हिंदुओं पर इस प्रकार का हीन आरोप लगाकर भाजपा को चुनाव के अंतिम चरण में झूठे आरोपों मे लपटने का घिनौना प्रयास किया गया है। गांधीजी की हत्या को लगातार पूंजी बनाने वाले हिंदू विरोधी लोगों के चालाकी वाले झूठे झांसे में अब भारतीय जनता नहीं आनेवाली है। जनता के मन में दिशाभ्रम करने की इस प्रवृत्ती को देश का हिंदू उखाड़ फेकेंगा। अब अंतिम फैसला 23 मई को होगा ही।

2019 के चुनाव में सभी दलों के नेताओं ने मिलकर अत्यंत घिनौना प्रदर्शन किया है। इनकी हरकतों से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले हमारे लोकतंत्र की व्यवस्था बदनाम होती नजर आ रही है। यह नेता लोकतंत्र के सच्चे सिपाही कभी नहीं हो सकते। अपने स्वार्थ के लिए जो शाब्दिक मर्यादा का उल्लंघन कर सकते हैं, लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को भी ठेंगा दिखा सकते हैं, जो लोकतंत्र को नहीं वरन् स्वयं को मजबूत बनाने के लिए राजनीति का उपयोग करते हैं, अपने वादे पूरे न करने पर दूसरों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लोकतंत्र की शालीनता और मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं, जिन नेताओं को लोकतंत्र की मर्यादा स्वीकार नहीं है, ऐसे बिगड़े हुए नेताओं के साथ किस प्रकार से पेश आना चाहिए इस पर भविष्य में प्रबुद्ध मतदाताओं को अपनी भूमिका तय करनी होगी। नहीं तो यह राजनीतिक अराजकता का समीकरण भारतीय लोकतंत्र को सही ढंग से काम करने के लायक नहीं रहने देगा। अब यह इसी पर निर्भर करेगा कि भारत की भविष्य की राजनीति का स्तर किस प्रकार से होगा और राजनीतिक दलों को यह बात हरगिज़ नहीं भूलनी चाहिए की राजनीति में मर्यादा का महत्व अब तक समाप्त नहीं हुआ है। आज की राजनीति में ऐसे अनेक चेहरे हैं जो कीचड़ में भी अपना दामन बचाने में सफल रहे हैं।

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