सतीश और विवेक एक ही क्लास में पढ़ते थे और उनमे बहुत गहरी दोस्ती थी। विवेक एक अमीर खानदान से था जबकि सतीश का परिवार मुश्किल से उसे पढ़ा पा रहा था।
विवेक को सतीश की सब बातें और आदतें अच्छी लगती थी लेकिन एक बात से वो नाराज़ रहता था। विवेक के साथ सतीश कई बार उसके घर गया था लेकिन सतीश उसे अपने घर ले जाने की बात को अनदेखा कर देता। एक दिन विवेक ने उसे दोस्ती का वास्ता दिया और अपनी कसम भी दिला दी तो सतीश ना नहीं कर पाया और विवेक को अपने घर ले गया।
सतीश का छोटा सा घर शहर के बाहर खेतों में था जहाँ उसके पिता दिन रात मेहनत कर सब्जियां उगाते थे और और उन सब्जियों को मंडी में बेच कर घर चलाते थे। सतीश को शर्म सी महसूस हो रही थी कि इतने आलीशान मकान में रहने वाला विवेक उसके बारे में क्या सोचेगा। कुछ घंटे वहां रह कर विवेक लौट गया।
अगले दिन जब दोनों मिले तो विवेक कुछ चुप था। सतीश समझ गया कि शायद विवेक उसका घर और हैसियत देख अब मुझसे दोस्ती रखना नहीं चाहता। सतीश भी बहुत मायूस हो गया कि अब हमारी दोस्ती ख़तम ही समझो।
कुछ देर ऐसे ही दोनों चुप चाप बैठे रहे। आखिर चुप्पी तोड़ते हुए सतीश ने कहा ” विवेक, इसी लिए मैं तुझे अपने घर नहीं ले जाना चाहता था। तू कहाँ और मैं कहाँ।”
कह कर सतीश उठ कर चल पड़ा तो विवेक ने पीछे से आवाज दी ” सतीश, तू सही बोला भाई। तू कहाँ और मैं कहाँ, कुछ मेल ही नहीं खाता।
मेरे घर में एयर कंडीशनर है तो तेरे घर सारे जहाँ की खुली हवा, मैं घर की एक ही छत ताकता हूँ और तू खुले आसमान के टिम टिम करते तारे।
मेरे घर के बाहर एक गार्डन है और तेरे घर के आसपास हरे भरे खेत, हम खाना खरीद कर खाते हैं और तुम सब अपना खाना खुद पैदा करते हो।
हमारी रक्षा के लिए चौकीदार खड़ा रहता है और तुम्हारी रक्षा सारे गांव के लोग और दोस्त करते हैं। सच में भाई, मुझे आज एहसास हुआ कि हम असलियत में कितने गरीब हैं।”
इतना कह कर विवेक की आँखों में आंसू आ गये, जिन्हें आगे बढ़ कर सतीश ने पोंछा और एक दूसरे को गले लगा लिया।