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नए भारत में जातियता व्यवधान

नए भारत में जातियता व्यवधान

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त २०१९, विशेष, सामाजिक
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वर्णभेद, जातिभेद, अस्पृश्यता हमारे यहां उत्पन्न सामाजिक विषमता के कारण निर्माण हुए प्रश्न हैं। आज जब हम नया भारत निर्माण करने की दिशा में जाने का प्रयास कर रहे हैं तब इन प्रश्नों की ठोकर हमें लगनी ही है। नव भारत के लिए इन कुरीतियों को निर्मूल करना और सभी में एकत्व व बंधुभाव का निर्माण करना एक विशाल और राष्ट्रीय कार्य है, जिसे हमें करना ही होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नया भारत’ निर्माण करने का एक सपना समूचे देश को दिया है। न्यू इंडिया के निर्माण में आर्थिक विकास से लेकर विज्ञान विकास तक सारी बातें होंगी। सभी क्षेत्रों में शक्तिशाली भारत का निर्माण करना है। जब हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा के बारे में सोचते हैं तो हमें बड़ा गर्व महसूस होता है। आज भारत में न्यू इंडिया की इस संकल्पना तक पहुंचने का जज्बा है, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन न्यू इंडिया की अवधारणा  के संदर्भ में  सोचने लगते हैं तब भारत की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में मन में विचार उभरते हैं। एक विचार यह उपस्थित होता है कि, हम विज्ञान में प्रगति करेंगे, ज्ञान के सभी क्षेत्र में प्रगति करेंगे, अत्याधुनिकता की ओर बढ़ेंगे, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होंगे इसमें कोई दो राय नहीं है; लेकिन वर्तमान के भारत में नित्य अस्पृश्यता, जातिवाद, जाति-पंथ के विवाद को लेकर हिंसा, मारपीट, हिंसक आंदोलन, कहीं  जाति को लेकर दो गुटों में हुए दंगों की खबरें आए दिन हमें सुनाई देती हैं। ऐसे समय में मन में प्रश्न निर्माण होता है कि हम आधुनिकता की ओर तो अवश्य बढ़ेंगे ही; लेकिन हम भारतीयों के मन में जातिवाद का जो जहर पनप रहा है उससे हम कैसे मुक्त होंगे? न्यू इंडिया की ओर बढ़ते समय हमारे मन में घर कर चुके जातिवाद के जहर को प्रथमतः समूल नष्ट करना आवश्यक है। इसके बाद ही नए भारत की नींव रची जा सकती है। अन्यथा सिर्फ बाहर से आधुनिकता का परिवर्तन दिखाई देगा, लेकिन अंदर से  हम सभी पूर्णतः खोखले होंगे। एक कहावत है जिसकी बुनियाद मजबूत नहीं होती वह इमारत कितनी भी सुंदर हो, ज्यादा समय तक नहीं टिकती।

ऐसे समय में हमारे समाज में जो सामाजिक बुराइयां हैं उस पर प्रहार अवश्य होने चाहिए। साथ ही ऐसी गलत प्रथाओं के प्रति विरोध की भावना भी प्रखरता से प्रकट होनी चाहिए। अपने प्राचीन भारत की समाज व्यवस्था को हम जब देखते हैं तो ध्यान में आता है कि हमारे समाज की कुछ व्यवस्थाएं थीं जो आज भी हैं और आने वाले भविष्य में भी रहेंगी। अपने भारत देश में जो वर्ण व्यवस्था थी, वह कर्म के आधार पर बनी थी। धीरे-धीरे वह जन्म के साथ जुड़ गई। अपने देश में महर्षि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, विदुर, संत रविदास जैसे विभिन्न महापुरुष हुए हैं, जिनका जन्म पिछड़े जातियों में हुआ था; लेकिन समाज ने उनके कर्म के आधार पर उन्हें उच्चतम स्थान प्रदान किया। अपने भारतीय समाज में कहीं भी जाति के आधार पर बड़े-छोटे होने का भाव नहीं था। जो बातें होती थीं वे कर्म के आधार पर होती थीं, जाति के आधार पर नहीं, इसका यह जीवंत उदाहरण है। आज हमारे समाज में विषमता का अत्यंत दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। प्राचीन काल में विषमता, जातिभेद का अस्तित्व नहीं था। काल के प्रवाह में किसी घुसपैठ की तरह अपने समाज के दिनक्रम में विषमता एवं जातिभेद का भाव समाविष्ट होता गया और आहिस्ता-आहिस्ता हमारे समाज की रूढ़ी- परंपरा का हिस्सा बन गया। रोजमर्रे के जीवन में जाति का व्यवहार प्रभावी होता दिखाई देने लगा, जिससे धीरे-धीरे समाज की वर्ण व्यवस्था में मानवीय दोष उभरने लगे। छोटे-बड़े, स्पृश्य-अस्पृश्य, छुआछूत  का भाव निर्माण होने लगा। इसी के कारण समाज में परस्पर बंधुभाव समाप्त होकर आपसी नफरत, जातीय हिंसा ने जन्म ले लिया। इतना ही नहीं अलग-अलग पूजा पद्धतियां, अलग-अलग पहनावा बन गया, जिससे विभिन्न पंथों में भी संघर्ष निर्माण हो गया। प्रांत, भाषा के नाम पर विवाद बढ़ने लगे और समाज में भाईचारे का भाव समाप्त हो गया। ये सभी दुर्गुण आज भी हमारे भारतीय समाज को दीमक की तरह चाट रहे हैं। हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि दोष भारतीय तत्वों में नहीं है, दोष तो लोगों के लाए हुए हैं।

यह बात सही है प्रकृति के कारण, अनुवांशिकता के कारण कुछ विषमताएं निर्माण होती हैं; परंतु उस विषमता को शास्त्र का आधार बनाना कतई उचित नहीं हो सकता। अगर मनुष्य की गलतियों से निर्माण हुई विषमता यदि स्थायी रूप ले लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। ऐसे समय में हमें यही सोचना चाहिए कि हम अपने दोषों को जान कर समाज में पनपती विषमता को किस तरह दूर कर सकते हैं।

आज जातिवाद का रोग फैलता जा रहा है। जातिवाद की जिस बुराई से मुक्ति के लिए बौद्ध धर्म का प्रसार भारत और संसार में हुआ वहां भी आज यह संकट खड़ा है। जातिभेद से मुक्त होकर मुख्य धारा में आने के बजाय अल्पसंख्यक की धारा में बौद्ध धर्मी अपने आपको पसंद करने लगे हैं। इसका अर्थ यही है कि जातिवाद समाज के सभी क्षेत्रों में बंटवारा कर रहा है। समाज का बंटवारा हमेशा हानिकारक होता है। जाति व्यवस्था ईश्वर ने निर्माण नहीं की है। मनुष्य ने अपने अमानवीय हितों के लिए यह गलत व्यवस्था तैयार की है। जातीयता एक ऐसी सोच है जिससे  समाज में अलगाववाद और हिंसा की जड़ें मजबूत होती हैं। इस बात की वेदना भारतीय समाज को इतिहास काल से अब तक झेलनी पड़ रही है। भारत के माथे पर लगे जातिवाद के अभिशाप के साथ नए भारत का रूप कैसे दिखाई देगा इस बारे में हमें गंभीरता से सोचना होगा।

हमें जरूरत इस बात की है कि देश का हर व्यक्ति भारत को छुआछूत और अस्पृश्यता से मुक्त करने का संकल्प करें। यह बात  हैरान करने वाली है कि हिंदू समाज में चार वर्ण और 4000 जातियां हैं। एक अध्ययन से पता चलता है कि सिर्फ ब्राह्मणों के द्वारा जाति का चक्रव्यूह रचा गया यह सच बात नहीं है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी जातियों द्वारा सामूहिक रूप में जाति का यह जाल रचा गया है। ब्राह्मण क्षत्रियों से, क्षत्रिय वैश्यों और शूद्रों से अपने आपको बड़े मानते हैं। शूद्र महाशूद्रों से अपने आपको बड़े मानते हैं। इस तरह से  जाति का पागलपन सभी जातियों के मस्तिष्क में घुस गया है। पूरा समाज रूपी शरीर जातिभेद, अहंकार और मत्सर से ग्रस्त हो गया है। इस प्रकार का माहौल इतिहास काल से लेकर आज वर्तमान तक हमें महसूस हो रहा है।

भारत में सामाजिक सुधार का भाव निरंतर चलता आया है। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक बदलाव के दौर से गुजर रहा था। ब्रिटिशों का साम्राज्यवाद और भारतीय समाज की रूढ़िवादी परंपरा एवं जड़ता के खिलाफ देश के कुछ नेताओं ने सत्ता और समाज के साथ एकसाथ संघर्ष शुरू किया, जिसमें स्वामी विवेकानंद, डॉक्टर हेडगेवार, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, शाहू महाराज और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जैसे महान नेताओं का बहुत बड़ा योगदान रहा।  ये लोग समाज को आंतरिक रूप से सशक्त बनाना चाहते थे। जिससेे भविष्य में यह भारत देश मजबूती के साथ खड़ा हो सके। उन्होंने इतिहास को गौरवपूर्ण रूप से देखा और वर्तमान में जो भी कुछ गलतियां निर्माण हो गईं उनमें सुधार करने का प्रयास करके सुनहरे भविष्य निर्माण करने का विश्वास मन में रखा। इस कारण उन्होंने अपने कार्य को दो हिस्सों में किया- एक साम्राज्यवादी ब्रिटिशों से देश को मुक्त करने का कार्य और दूसरा जातीयवादी, जड़ता में लिप्त समाज की कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना। ये नेता जानते थे कि बाहरी आक्रांता इस देश पर हमेशा जीत हासिल करते आए हैं। भारत देश के नागरिकों में जो जातिगत विसंगतियां निर्माण हुई थीं उससे ही भारत सिकुड़ता गया। भारत का  हिंदू धर्म सिकुड़ता गया। जातिवाद के पागलपन में भारतीय समाज अंधा हो चुका था। अपने ही अपनों के साथ बैर निर्माण करने लगे थे।

आज के संदर्भ में देखा जाए तो परिस्थिति में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता के बाद जाति व्यवस्था गलत धारणाओं के साथ जिस तरह से अस्तित्व में थी उसमें वर्तमान में बहुत बड़े पैमाने में शिथिलता आ रही है। हमारे जाति-पाति से जुड़ीं जो जड़वादी बातें है, वे पुरानी हैं। और जो पुरानी बातें हैं, वे सभी अच्छी हैं यह सोचने का तरीका उचित नहीं है। इन पुरानी बातों को जकड़ेे रहने के कारण ही हमारे समाज का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है और आज भी हो रहा है। आज फिर नए ढंग से सोचने की हमें आवश्यकता है। हिंदू समाज के किसी भी वर्ग पर अन्याय और अत्याचार करना, उन्हें अपमानित करना कदापि उचित नहीं है। वे हिंदू समाज के ही अंग हैं। उनका स्वाभिमान भी बना रहना चाहिए। हमें यह मानना होगा की वर्णभेद, जातिभेद, अस्पृश्यता हमारे सामाजिक विषमता से निर्माण हुए प्रश्न हैं। आज जब हम नया भारत निर्माण की दिशा में जाने का प्रयास करते हैं उस समय इन प्रश्नों की ठोकर हमें लगती है। यह हम सभी का अनुभव है।

इन प्रश्नों का हल ढूंढते समय हमारेे सामने सबसे बड़ा संकट है राजनेता, जो कभी भी सबके हितों की बात नहीं करता। राजनेता खुद के समुदाय की बात करता है। अन्य समुदाय का अनादर करता है। आपस में एक दूसरे पर हमले करते रहते हैं। यह हमले धर्म और जाति दोनों पर होते हैं। पहले भगवान के नारे भक्ति के लिए ही लगते थे, आजकल भगवान के नारे जातिगत लड़ाई के लिए लगने लगे हैं। अपने देश को भविष्य में नव भारत की ओर ले जाना है तो ऐसे नेताओं से हमें देश को बचाना होगा। क्या भारत के नेता अपने आपमें इस प्रकार का नियम बना सकते हैं कि किसी भी जातिगत समारोह को संबोधित नहीं करेंगे। जाति-पाति को भड़काने वाला, बांटने वाला भाषण नहीं करेंगे। कभी भी दंगे में हताहत समुदाय उनकी जाति खतरे में होने का सवाल उठाता है और पूछता है कि हमारी जाति का क्या कसूर था? हम हर सवाल जाति-पाति के आधार पर ही क्यों करते हैं? हम भारतीय होने के आधार पर क्यों नहीं कर सकते? देश के हर नागरिक को  बदलाव की शुरुआत खुद से करनी होगी। जातीयता, जड़ता, अस्पृश्यभाव की बीमारी से मुक्ति पाकर हमें नए भारत की ओर आगे बढ़ना होगा। हमें सभी के सामने यह बात स्पष्ट रूप में रखनी चाहिए कि विषमता के कारण हमारे समाज में किस प्रकार दुर्बलता आई है। समाज का किस प्रकार से विघटन हुआ है। उस विषमता को आज वर्तमान में समाज से दूर करने के उपाय बताने चाहिए। सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, सेवाभावी संत-महात्माओं की आवाज देश के कोने-कोने में पहुंचनी चाहिए। समाज में घुलमिलकर जाति-पाति विरहित समाज के निर्माण के लिए प्रारंभ करना चाहिए। इस कार्य के शुभ संकेत समाज के हर क्षेत्र में महसूस होने चाहिए।

भारत देश के भविष्य के लिए जातिभेद विरहित भारतीय समाज की रचना अत्यंत महत्वपूर्ण है। उससे संबंधित सभी प्रश्नों का समाधान पाने की दिशा में मार्गक्रमण करना अत्यंत आवश्यक है। देश के नव निर्माण की कल्पना मन में लेकर कार्य करते वक्त देश के सभी नागरिकों में सामाजिक समता, समरसता और परस्पर बंधुभाव निर्माण होने के कारण जो संगठित भाव निर्माण होगा, वही समरस भाव हमें सदियों तक समर्थ भारत के रूप में मार्गक्रमण करने में उत्साहित करता रहेगा। आज देश का वंचित समाज भी किसी की कृपा नहीं चाहता है। वह बराबरी का स्थान चाहता है। वह अपने पुरुषार्थ के साथ कर्तृत्व संपन्न होना चाहता है। समाज के विभिन्न घटकों के साथ अपनी योग्यता के आधार पर बराबरी का स्थान प्राप्त करना चाहता है। हमें अस्पृश्यता के खतरे के संदर्भ में सक्रिय होकर संवाद स्थापित करना चाहिए। क्योंकि आधुनिकरण के युग में सिर्फ भारत के भौतिक विकास का दृष्टिकोण ही रख कर भारत को वास्तविक रूप से विकसित नहीं किया जा सकता। जहां हिंसा और विभाजन नहीं होता है वहां एक अच्छा भविष्य लिखा जाता है। भारत देश का सुनहरा भविष्य लिखा जाना हमारी एकता और बंधुता के तत्वों के  अमल पर आधारित है। यह हम भारतीयों के लिए एक बड़ी चुनौती भी है। स्पृश्य-अस्पृश्य, छुआछूत, जाति-पाति, धर्म पंथ, जड़ता की कुरीतियों में लिप्त समाज मानसिक रूप से बीमार समाज होता है और हमें इस बीमारी के साथ लड़ने की जरूरत है। यह नए भारत के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमें सभी भारतीयों को संगठित करना चाहिए। संगठन का अर्थ मोर्चा अथवा सभा नहीं होता है। संगठित होने का अर्थ एकत्रित होना, साथ-साथ काम करना, एक भाव से देश के संदर्भ में सोचना। महात्मा गांधी का कहना था कि स्वराज्य कभी भी असत्य, परस्पर द्वेष और जाति-पाति के विघटन के माध्यम से नहीं आ सकता। स्वतंत्रता केवल व्यक्ति-व्यक्ति में परस्पर विश्वास भाव और सत्य के तहत पूर्ण हो सकती है। वर्तमान में हमें नव भारत के निर्माण का विचार करते समय ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है कि ‘यूनाइटेड वुई स्टैंड, डिवाइडेड वुई फॉल’ अर्थात संगठन में ही शक्ति है, विभाजन में विनाश है।

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