फालके अवार्ड विजेता शशि कपूर

कपूर खानदान के कलाकार कभी भी ‘कैमेरा कॉन्शियस’नहीं होते। सच पूछिए तो कैमेरा ही उनकी सुंदरता ‘कवर’ करता है। यह बात कपूर खानदान की तीन पीढियों- पृथ्वीराज कपूर से लेकर करीना कपूर तक- सभी पर लागू होती है। परंतु इन सभी में सबसे सुंदर, उत्साही और जैटलमैन हैं ‘शशि कपूर’।
शशि कपूर को इस वर्ष का दादा साहब फालके पुरस्कार दिया गया है। पिता पृथ्वीराज कपूर, बड़े भाई राज कपूर के बाद कपूर खानदान को मिला यह तीसरा फालके सम्मान है।
शशि कपूर मुझे बहुत पसंद है, ऐसा कहने वाला भले ही कोई फैन न मिले पर मुुझे शशि कपूर बिलकुल पसंद नहीं है ऐसी तिरस्कारपूर्ण भाषा भी शायद ही कोई कहे। इसे ही सही मायने में उनकी लोकप्रियता कहा जाना चाहिए। पृथ्वीराज कपूर के तीन बेटों राज, शम्मी व शशि में से सबसे छोटे हैं शशि कपूर। राज कपूर द्वारा निर्देशित ‘आवारा’ में उन्होंने बाल कलाकार के रूप में काम किया। नायक के रूप में उनकी पहली फिल्म थी ‘प्रेम पत्र‘। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कपूर खानदान से होने के कारण उन्हें आसानी से मौके मिलते गए और उनकी फिल्मी यात्रा बेहद आसान रही। फिल्मी दुनिया में कभी भी इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई कि कोई किसी बड़ी हस्ती का रिश्तेदार है। इस इंडस्ट्री का यह नियम ही है कि जो भी यहां आए खुद को साबित करे।
शशि कपूर साठ के दशक के अंत में फिल्मों में हीरो के रूप में आए। तब राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार इस त्रिमूर्ति के इर्दगिर्द फिल्म इंडस्ट्री केन्द्रित हो गई थी। इसी समय में राजेन्द्र कुमार ने जुबली कुमार के रूप में अपनी जगह बनाना शुरू कर दिया था। मनोज कुमार, राज कुमार, सुनील दत्त, अपनी शैली और गति के अनुसार आगे बढ़ रहे थे। शम्मी कपूर ने ‘जंगली’ फिल्म से उछलकूद करनेवाले हीरो की इमेज बनाई थी। धर्मेन्द्र का भी उसी समय आगमन हुआ था। तात्पर्य यह कि शशि कपूर को अपना रास्ता बनाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
बी.आर. चोपडा निर्मित तथा यश चोपडा निर्देशित ‘वक्त’ में राजकुमार, सुनील दत्त के बाद शशि कपूर ही थे। इसमें शर्मिला टैगोर उनकी नायिका थी। उनकी साथ शशि कपूर की जोडी खूब जमी। सूरज प्रकाश द्वारा निर्देशित ‘जब जब फूल खिले‘ में वे नंदा के साथ नजर आये। इस फिल्म को भी बहुत सफलना मिली। परंतु इसी दौरान जितेन्द्र और राजेश खन्ना आए और शशि कपूर के सामने बड़ी चुनौती आ गई। शर्मिला टैगोर के साथ ‘आमने-सामने’, हेमा मालिनी के साथ ‘अभिनेत्री’, राखी के साथ ‘शर्मिली’, मुमताज के साथ ‘चोर मचाए शोर’ तथा आशा परेख के साथ ‘प्यार का मौसम’ आदि सफल फिल्मों के माध्यम से शशि कपूर ने इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाए रखी थी। परंतु राजेश खन्ना के क्रेज के सामने शशि कपूर चमक नहीं पा रहे थे। इसके बाद आए एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन। और, फिर शशि कपूर के साइड लाइन होने की नौबत आ गई। हालांकि इतनी लंबी यात्रा के बाद व्यावसायिक समझदारी आ ही जाती है और उनमें से कोई ‘कपूर’ कुछ न सीखे यह तो हो ही नहीं सकता। एक ओर उन्होंने शर्मिला टैगोेर और राखी के साथ नायक के रूप में काम किया तो दूसरी ओर सहनायक के रूप में भी कई भूमिकाएं कीं। प्रसिद्ध फिल्म ‘दीवार’ में नवीन निश्चल ने रवि नामक इन्सपेक्टर का किरदार निभाने से मना करने के बाद शशि कपूर ने यह किरदार निभाया। फिल्म में अपने भाई विजय (अमिताभ बच्चन) के साथ एक भावनात्मक दृश्य में वे अत्यंत शांत भाव से कहते हैं ‘मेरे पास मां है’। अपने इस छोटे से डायलॉग से भी उन्होंने दिखा दिया कि वे निरूपा रॉय या अमिताभ बच्चन से किसी भी तरह कम नहीं हैं। अमिताभ के साथ उन्होंने रोटी कपड़ा और मकान, शान, सुहाग, नमक हलाल, दो और दो पांच, सिलसिला इत्यादि ग्यारह फिल्में कीं। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि उनके मन में कोई अहंकार नहीं था।
सत्तर के दशक में तो शशि कपूर ने हर वह फिल्में स्वीकारने का साहस दिखाया जो उनके पास आईं। ‘चोरी मेरा काम’, ‘हीरा और पत्थर’, ‘चोर पुलिस’, ‘दीवानगी’, ‘कौन जीता कौन हारा’, ‘आपबीती, ‘सलाखें’, ‘शंकरदादा’, ‘प्रेम कहानी’, ‘अनाड़ी’ आदि कई फिल्में कीं, परंतु इनमें से कोई भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकीं। परंतु इतनी व्यस्तता होने के कारण वे ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ के लिए तारीखें नहीं दे पा रहे थे। इसके कारण बड़े भाई राज कपूर बहुत निराश हुए। अपने छोटे भाई की एक सेट से दूसरे सेट पर पहुंचने के लिए होने वाली भागदौड़ को देखकर राज कपूर उन्हें टैक्सी हीरो कहते थे। राज कपूर द्वारा दिया गया यह नाम चर्चा का विषय रहा। शशि कपूर की टैक्सी हीरो वाली इमेज बन गई।
शशि कपूर निर्माता के रूप में बहुत अलग थे। अभिनेता के रूप में भले ही उन्होंने कई ‘नॉनसेन्स’ फिल्मों’ में काम किया हो परंतु ‘मेकर’ के रूप में उन्होंने हमेशा ही अलग राह चुनी। उन्होंने ‘फिल्मवालाज’ नामक संस्था की स्थापना की। उसके बाद अपर्णा सेन (३६ चौरंगी लेन), गोविंद निहलानी (विजेता), श्याम बेनेगल (कलयुग व जुनून) जैसी कुछ कलात्मक फिल्मों का निर्माण किया। ये सारी फिल्में उन दर्शकों को लुभानेवाली थीं जो वास्तववादी फिल्में देखना पसंद करते हैं। परंतु इन फिल्मों ने गल्ला पेटी पर ज्यादा असर नहीं डाला जिससे शशि कपूर की आर्थिक हालात बिगड़ने लगी। इस बीच उनकी पत्नी को कैंसर ने घेर लिया। उनके इलाज पर होने वाला खर्च, इलाज के लिए लिया गया कर्ज, इत्यादि को देखते हुए उन्हें मिलने वाला हर किरदार निभाना पड़ा, हर फिल्म करनी पड़ी। राजेश खन्ना जब निर्माता के रूप में सामने आए तो उन्होंने शक्ति सामंत निर्देशित ‘अलग-अलग’ फिल्म में खुद और टीना मुनीम के साथ शशि कपूर को भी मौका दिया।
शशि कपूर ने ‘सिद्धार्थ’ जैसी कुछ अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया। उन्होंने अपने पिता की याद में जुहू में नाटकों के लिए ‘पृथ्वी थिएटर्स’ की भी स्थापना की। उनकी एक अलग पहचान बनती गई। उन्होंने अमिताभ, डिंपल, ॠषि कपूर और स्वयं को लेकर ‘अजूबा’ नामक फिल्म बनाईं। दुर्भाग्य से दर्शकों ने इस फिल्म को नकार दिया और फिल्म असफल रही। उसके बाद शशि कपूर ‘मुहाफिज’ जैसी एकाध ही फिल्म में दिखाई दिए। ‘क्रांति’ और ‘अमरशक्ति’ आदि फिल्मों में परफेक्ट लुक में नजर आनेवाले शशि कपूर अब बहुत स्थूल हो चुके हैं। यह शायद कपूर खानदान का असर है। वे जीवन पर भरपूर प्रेम करते हैं परंतु अपने शरीर को संभाल नहीं पाते। शायद उन्हें इसकी परवाह नहीं होती। धीरे-धीरे शशि कपूर यह नाम पीछे होता चला गया। कई वर्षों के बाद कपूर खानदान की एक पार्टी में वे व्हील चेयर पर दिखाई दिए। राजेश खन्ना की श्रद्धांजलि सभा में भी वे इसी व्हील चेयर पर बैठकर आए थे। उनके चेहरे पर भले ही खानदानी सुखासीनता की चमक थी; परंतु आंखों में अपने साथी कलाकार के निधन का दुख था।
शशि कपूर की एक लंबी यात्रा है, उसका बड़ा इतिहास है। वे अपनी स्वतंत्र शैली वाले जैंटलमैन हैं।
दादा साहब फालके पुरस्कार से नवाजे जाने पर उनका हार्दिक अभिनंदन।
मो.: ९८७०६१६२१६

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