मेरा एकात्म विश्ववंद्य भारत

“भारत देश – मेरा देश। मेरी माता और परमेश। मेरे जीवन, मेरे प्राण। भारत माता को कुर्बान। यही मेरे सपनों का भारत तेजयुक्त भारत है।”

‘नया भारत’ आज प्रमुख चर्चित विषयों में है। कोई आदर्श रखता है इग्लैण्ड, जापान या अमेरिका का परंतु भारत को सत्यार्थ से भारत बनाने की बात कम ही होती है। ‘भा-रत’- ‘भा’ अर्थात् ‘तेज’ भारतीय तेज से युक्त भारत यह विचार प्रमुख होना चाहिए। इसके आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक राजनीतिक जैसे कुछ बिंदु हो सकते हैं। परंतु ‘नकारात्मकता मुक्त’ भारत से अधिक सकारात्मक बिंदु है तेजोमय- तेजयुक्त भारत। जैसे भ्रष्टाचारमुक्त के बदले सदाचारयुक्त या अनीतिमुक्त के बदले नीतियुक्त नीतिसंपन्न भारत, चारित्र्यसम्पन्न वैभवसंपन्न भारत, राष्ट्रधर्मसंपन्न, एकात्म भारत यह विचार अधिक प्रेरक होगा। नवीनता का विचार करना जीवंतता का लक्षण है। रमणीयता का भी।

क्षणे क्षणे यन्नवतां विधेति तदेव रूपं रमणीयतायाः।

रमणीयता के रूप, विधाएं आदि के बारे में सोच अलग- अलग हो सकती है। सामाजिक, वैज्ञानिक, आर्थिक, नैतिक, राष्ट्रीय आदि विविध छटाएं हो सकती हैं। मा.अटलजी ने भी कहा था, ‘नवीन पर्व के लिए नवीन प्राण चाहिए।’ और ‘पुरानी नींव नया निर्माण।’ एक और मराठी कवि कहते हैं- ‘जुने जाऊ द्या मरणालागुनी’(जो भी पुराना है उसे मरने दो)। हरेक की अपनी सोच होती है। एक अंग्रेजी कविता है-

The old order changeth its yielding

place to new,

lest one -good practice would

corrupt the world

भारत में शाश्वत जीवन सिद्धान्त रूप में श्रुतियां निर्माण हुईं। कालांतर में उसमें परिवर्तन की जब-जब आवश्यकता हुई तो नई- नई स्मृतियां निर्माण हुईं। याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति, देवल स्मृति इत्यादि। पुराने शाश्वत सिद्धांतों का कालानुरूप प्रस्तुतीकरण किया गया। ‘पुरानी नींव नया निर्माण’ का तत्व तब भी साकार हुआ था। समाज ने भी वह स्वीकारा सहजता से। यही हमारी विशेषता है। अन्य देशों में उनके प्रस्थापित सिद्धांतों को बदलकर नए विचार (स्पष्टीकरण) प्रस्तुत करने वालों को देश से निकाला गया या प्राणदंड तक की सजा तक दी गई। आज पुनः नई स्मृतियां निर्माण होने की आवश्यकता है।

एक बालक जन्म लेता है। कालानुसार उसमें शारीरिक, मानसिक इत्यादि परिवर्तन होते हैं परंतु उसका व्यक्ति के नाते परिचय बदलता नहीं है। एक जलप्रवाह निरंतर बहता है, हर क्षण उसके बिंदु बदलते हैं- एक बिंदु आगे जाता है दूसरा उसका स्थान लेता है- हमें पता भी नहीं चलता।  बरगद का पेड़ है- पत्ते, टहनियां बदलती रहती हैं परंतु उसका 70-75 साल पुराना- 90 साल पुराना वटवृक्ष यह परिचय नहीं बदलता है। भारतीय संस्कृति के तत्वज्ञान का सार ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में समाया है। कालांतर में वहीं तत्वज्ञान ‘ज्ञानेश्वरी’ में संत श्री ज्ञानेश्वर ने तत्कालीन भाषा में बताया। बाद में और सरल सामायिक शब्दों में वहीं तत्व अनेकों ने बताया- उसमें से एक उदाहरण है- प्रज्ञाभारती श्रीयुत्
श्री. भा. वर्णेकर जी की ‘सुबोध ज्ञानेश्वरी’। इसी तरह नए भारत की चर्चा करते हुए शाश्वत आधारभूत भारतीयता को ध्यान में रखना होगा।

एकात्म भाव ही दार्शनिकता

अध्यात्म भारत की पहचान है। यह हमारी संपूर्ण सृष्टि एक ही ईश्वरीय तत्व का प्रकटीकरण हैं। अतः हम परस्परसंबंद्ध है यह हमारा विश्वास हैं तो आज भाषा, प्रांत, जाति, धर्म, देश, के बिंदुओं पर संघर्ष क्यों निर्माण करेंगे? मानवी शरीर का उदाहरण लेंगे तो उसके विविध अंग हैं- आंख, कान, हाथ, पैर, मुंह आदि। आज तक ऐसा सुनने में नहीं आया कि उनका आपस में स्थान, कार्य आदि पर संघर्ष हुआ और ‘काम बंद’ का आवाहन किया गया। अनुभव ऐसा है पैर को कांटा चूभता है तो वेदना सारे शरीर में फैलती है। आंखों में आंसू आते हैं- हाथ अपने आप उठता है कांटा निकाल देता है, दवाई लगाता है। क्योंकि शरीर में एकात्मभाव है- परस्परावलंबी, परस्परसंबंध होने का भाव जागृत है। पैर को कांटा चुभा है तो पैर देखेगा मुझे क्या करना है ऐसा अन्य अंगों का भाव होता नहीं वैसे ही नए भारत की सोच में परस्परसंबंधता एवं परस्परावलंबिता का यह तत्व सर्वोपरि होना चाहिए। हरेक को अपना कर्तव्य निभाना है। कर्तव्याधारित जीवनपद्धति का विस्मरण हुआ तो हम अधिकारों को प्रधान बनाकर लड़ने लगे। फिर मानवाधिकार आयोग बनाया- कर्तव्य भूल गए- स्पर्धा- बैर- कटुता बढती गई। मा. सुदर्शनजी कहते थे कि हर कोई अपना कर्तव्य करता है तो उसके अधिकार अपने आप सुरक्षित रहते हैं। मां का कर्तव्य है बालक की देखभाल करना- बालक का अधिकार है- मां उसकी देखभाल करें। बड़े होने पर बालक का कर्तव्य है मां की चिंता, सेवा करें- मां का अधिकार हैं बालक उसकी चिंता करें। दोनों अपने कर्तव्य निभाएं तो उनके अधिकार सुरक्षित रहें। नए भारत की संकल्पना में यह होना चाहिए।

 

*जिस तरह शरीर के अंगों में परस्पर एकात्म भाव है, उसी  तरह नए भारत में भी हो।

* कर्तव्य – अधिकार समतोल रहें।

* नियम तोड़ने नहीं पालने पर ध्यान केन्द्रित करें।

* पुरातन भारत – नया भारत जैसे पुरानी नींव पर नई इमारत।

 

अपनों का बोझ नहीं

मेरे प्रवास में एक बार पहाड़ों पर स्थित एक पुराने मंदिर में दर्शन करने के लिए जाना तय हुआ। हम जा रहे थे तो देखा एक बालिका एक मोटे से बालक को गोद में लेकर पहाड़ चढ़ रही थी। उसके लिए वह कठिन हो रहा था। रास्ते में एक साधु खड़े थे। उन्होंने उससे पूछा- तुम क्यों इतना बोझ उठा रही हो? उसने उत्तर दिया,

‘स्वामी जी यह मेरा भाई है।’ दो-चार बार ऐसा होने पर साधु महाराज चिढ़ गए और बोले, ‘मैं, तुम्हें रिश्ता नहीं पूछ रहा हूं। उस बालक का बोझ क्यों उठा रही हो?’ यह पूछ रहा हूं। तब उस बालिका ने कहा, ‘मैं, भी तो वहीं बता रही हूं- यह बालक मेरा भाई है, उसका बोझ मुझे कैसा होगा?’ कितना बड़ा जीवन सिद्धांत उसने बताया कि जो अपना है- या जिसको अपना मानते हैं उसका बोझ हमें कभी भी नहीं लगता है। क्या नए भारत में यह देश मेरा है- उसके लिए किसी भी काम का बोझ मुझे नहीं होगा- यह विचार, संस्कार होगा? होना चाहिए। विद्यालय, धार्मिक स्थल ही नहीं तो परिवार में विशेष रूप से मां के कारण। नए भारत में यह विचार केवल व्यक्तिगत परिवार नहीं अपितु राष्ट्र और विश्व परिवार तक पहुंचना चाहिए। ‘यत्र विश्वं भवति एक नीडम्’ यह हमारी प्राचीन मान्यता है। महिलाओं की मातृ भावना के कारण होगा। हमारी जीवन पद्धति कर्तव्याधारित है- उसी को धर्म कहा गया है- एक समय ऐसा था कि सभी अपने-अपने कर्तव्य करते थे। कानून पालन के लिए अलग व्यवस्था नहीं थी- ‘धर्मेणैव प्रजाः सर्वाः रक्षन्ति स्म परस्परम्’। श्रीराम ने राजपाट का अपना अधिकार छोडकर पितृआज्ञा पालन का धर्म (कर्तव्य) निभाया इसीलिए वे हमारे राष्ट्रपुरुष बने- स्वयं कष्ट उठाकर भी कर्तव्य पालन करना हमारा धर्म बन गया- ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ ऐसा आदर्श श्रीराम ने निर्माण किया।

आज परिस्थिति बदल गई- कर्तव्य, नियम पालन करने से भी अधिक गौरव नियम तोड़ने में अनुभव होने लगा। हेल्मेट पहने बिना स्कूटर चलाना, लाल बत्ती होने पर भी स्कूटर/गाड़ी नहीं रोकना, धड़ल्ले से निकलते हुए किसी से टकराना, उसकी चिंता न करते हुएं छद्म हास्य के साथ निकल जाना, कर चोरी करना, खराब वस्तु वजन कम करके देना, परिवार, समाज, राष्ट्र से द्रोह करना, इसी में पौरुष है, ऐसा हम मानने लगे हैं। कानून का पालन न करने के साथ -साथ कानून अपने हाथ में लेना यह नई दुष्प्रवृत्ति प्रभावी हो रही है। छोटे-छोटे अहंकार को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किसी को भी जान से मारना, सार्वजनिक संपत्ति लूटना, आग लगाना यह सर्वसामान्य बात हो गई है- यह वेदनादायक है। चरित्र बनाने में विश्वभर के लोग जिसका आदर्श मानते थे उस भारत देश में यह होना अतीव वेदनादायक हैै।

तुम ही मेरे सच्चे शिष्य हो

हर स्त्री को ही नहीं अपितु भूमि, नदी, वृक्ष, ग्रंथ, संतों को भी हमने मां माना है- स्वर्ग से भी श्रेष्ठ माना। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि यह धारणा धूमिल होती जा रही है। स्त्री की छेडखानी, अपहरण, बलात्कार की, मातृभूमि से बेईमानी कर शत्रु से हाथ मिलाने की दुष्ट प्रवृत्ति का विदारक दर्शन सर्वदूर हो रहा है। कानून निर्माण करने वाली व्यवस्था से संलग्न लोग ही कानून तोड़ने में अगेसर है। महिलाओं का अपमान लोकसभा में भी हो रहा है। उन्हें दंड़ित करने वाला कोई नहीं है ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है। जहां कोई देखता नहीं है ऐसी जगह जाकर मिठाई खाकर वापस आना है ऐसा एक आश्रम के गुरुजी ने शिष्यों को बताया। कुछ घंटों के बाद सभी वापस आए, केवल एक शिष्य नहीं आया। उसको खोजने स्वयं गुरुजी चल पड़े। दूर एक पेड़ के नीचे वह बालक हाथ में मिठाई पकड़े हुआ खडा दिखाई दिया। गुरुजी ने पूछने पर बालक ने बताया कि कोई मनुष्य तो मुझे देख नहीं रहा था। पर जहां-जहां मैं गया, मुझे स्मरण हुआ कि आप बताते हैं कि ईश्वर हर जगह है, वह सब देखता रहता हैै। मैंने जहां भी मिठाई खाने का प्रयत्न किया तो मुझे आपके ‘ईश्वर सब देखता है’ इस कथन का स्मरण हुआ। कोई नहीं देख रहा ऐसा स्थान मुझे नहीं मिला- मैं मिठाई नहीं खा पाया- ऐसा कहकर वह गुरुजी के चरणों में नम्र हुआ। गुरुजीने उसको उठाकर कहा कि, ‘तुम ही मेरे सच्चे शिष्य हो जिसने प्रामाणिकता से सीखा।’

मेरे जीवन, मेरे प्राण

अंत में इतना ही कहेंगे कि एक ही ईश्वरी तत्त्व सभी में है इसका ध्यान रखकर आपसी द्वेष, ईर्ष्या, संघर्ष छोड़ें। साथ-साथ उस छोटी बालिका ने जो बताया- ‘मेरा भाई है उसका बोझ मुझे नहीं है।’ वैसेही ‘यह देश मेरा है मेरा अपना है,’ श्रेष्ठ जीवन पद्धति पालन करने वाला, परस्परासंबंधता का संदेश देने वाला, मेरा देश मेरी परम पवित्र मातृभूमि है, उसके गौरव को प्रधानता देना ही है। हम सभी का वही प्रण हो। व्यक्तिगत सत्ता, सम्पत्ति, प्रसिद्धि, सुरक्षा, इसके सामने गौण है, ऐसा जीवनाधार प्रस्तुत करनेे वाला मेरा नया भारत-

भारत देश- मेरा देश। मेरी माता और परमेश।

मेरे जीवन, मेरे प्राण। भारत माता को कुर्बान।

ऐसा आचार विचार सम्पन्न नया भारत- मेरा सपना है। साकार होगा? हां, निश्चित होगा- हम सभी उसे प्रण के साथ बनाए तो।

                                                                                                                                लेखिका राष्ट्रसेविका समिति पूर्व प्रमुख संचालिका हैं

 

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