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मुझे नहीं बुलाया

मुझे नहीं बुलाया

by हिंदी विवेक
in कहानी
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बाल हृदय चोट खाकर तिलमिलाता हुआ घर पहुंचा था, ‘‘मम्मा, पापा को कहो कितनी भी देर हो जाए, वह मुझे कार से ही स्कूल पहुंचाएं. लड़के मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे. वैभव कह रहा था, ‘मेरे घर तो 3 कारें हैं… मेरे पापा 200 रु. कमाते हैं.’’ स्मिता को 200 रु. सुनकर हंसी आ गई कि बच्चों को अभी सौ और हज़ार-लाख की क्या समझ, फिर भी उसका मन कड़वाहट से भर उठा.

स्मिता ने सारी तैयारियां कर लीं. कमरे में आती शीतल हवा से पर्दे हिल रहे थे. सुबह की ताज़ी हवा का आनंद लेने के लिए स्मिता ने खिड़कियों के पर्दे सरका दिए. तरुण के टिफ़िन के लिए आज उसने कुछ विशेष बना रखा था. कनॉट प्लेस से कल रात ही उसने काफ़ी ख़रीदारी कर ली थी. उसकी दिली ख़्वाहिश थी कि तरुण आज ख़ूब आनंद उठा ले. समीर शेव कर रहे थे अन्यथा वह तरुण के हृदय में उठ रहे सवालों के भंवर में अकेले न फंसती. यद्यपि तरुण ने स़िर्फ इतना ही तो पूछा था, ‘‘मम्मा, मैं अपने जन्मदिन पर सुरजीत को बुलाऊं?’’ सवाल बहुत साधारण था, लेकिन उसका जवाब उसे बहुत सोचकर देना था. किसी और को बुलाने की स्वीकृति देने में उसे देर नहीं लगी थी. लेकिन सुरजीत ने जो पीड़ा तरुण
को पहुंचाई थी, उससे नन्हा तरुण कितना आहत हो गया था. स्मिता का वात्सल्य भी असहाय हो उठा था.

तरूण की उदास दृष्टि रिक्त कमरे की दीवारों से सरसराती लौट आई थी. वह खिड़की के परदे को परे सरका कर बाह्य सौन्दर्य को निहारने में व्यस्त होने की कोशिश करता. सप्ताह भर पहले की स्मृतियों की यंत्रणा स्मिता के लिए असह्य थी, जब नन्हें तरुण ने कहा, ‘‘मम्मा, सुरजीत ने अपने बर्थडे पर सभी दोस्तों को मैकडॉनल्स में बुलाया, पर मुझे नहीं बुलाया. मैंने सोचा, कल भूल गया होगा, पर आज ज़रूर शाम को मैकडॉनल्स में आने को कहेगा, पर उसने मेरी ओर आज भी देखा तक नहीं, जबकि रोज़ मेरे ही साथ खेलता था.’’ बाल सुलभ पीड़ा से तरल दृष्टि उठाकर तरुण ने जब कहा, तो स्मिता के हृदय में कुछ पिघलने लगा जिसे उसने आंखों के कोनों में छिपा लिया.

सुरजीत से तरुण की गहरी दोस्ती थी, फिर उसने ऐसा क्यों किया? उसके अभद्र आचरण से तरुण कितना मर्माहत हो उठा था. स्कूल की छुट्टी के वक्त सुरजीत ने तरुण से कहा था, ‘‘कार्ड ख़त्म हो गए, इसलिए तुम्हें नहीं बुला सका.’’ इससे तरुण के हृदय को वह दूसरी ठेस लगी थी, क्योंकि पल भर पहले ही उसने बचे कार्ड को समेटकर बैग में रखते हुए सुरजीत को देखा था.

तरुण ने सारी बातें स्मिता को बताकर अपनी शीत दृष्टि उसके चेहरे पर क्षण भर को निर्बद्ध करके पूछा, ‘‘मम्मा, उसने मुझे क्यों नहीं बुलाया?’’ स्मिता अप्रस्तुत हो गई. क्या जवाब दे अपने नन्हें मासूम बेटे को. उसे ख़ुद भी आश्‍चर्य हो रहा था कि 5 वर्ष के बच्चे के हृदय में ऐसी मलीनता के लिए ज़िम्मेदार कौन है, उसके माता-पिता अथवा वह ख़ुद? पब्लिक स्कूल में पढ़नेवाले प्रतिष्ठित परिवारों के संस्कार इस नवीन युग की तीव्र धारा में असहाय तिनके समान बहे चले जा रहे थे, तभी तो शीघ्रतावश स्कूटर से तरुण को स्कूल पहुंचाने के कारण उसके पिता ने उसे घातक व्यंग की बौछारों के बीच छोड़ दिया था. सबसे पहले सुरजीत ने ही कहा था, ‘‘मेरे पापा तो मुझे सोनाटा अथवा ऐसेन्ट से स्कूल पहुंचाते हैं. स्कूटर तो हमारे यहां नौकर चलाते हैं.’’

बाल हृदय चोट खाकर तिलमिलाता हुआ घर पहुंचा था, ‘‘मम्मा, पापा को कहो कितनी भी देर हो जाए, वह मुझे कार से ही स्कूल पहुंचाएं. लड़के मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे. वैभव कह रहा था, ‘मेरे घर तो 3 कारें हैं… मेरे पापा 200 रु. कमाते हैं.’’ स्मिता को 200 रु. सुनकर हंसी आ गई कि बच्चों को अभी सौ और हज़ार-लाख की क्या समझ, फिर भी उसका मन कड़वाहट से भर उठा. पारिवारिक वातावरण का बच्चे के चरित्र पर बहुत प्रभाव पड़ता है. चरित्र निर्माण में एक मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण होती है. फिर इन अबोध बच्चों के हृदय में अहंकार की भावना इतनी प्रबल कैसे हो उठी? क्या इनके जनक अपने ही पांव में कुल्हाड़ी नहीं मार रहे?

स्मिता ने महसूस किया कि इनके अभिभावकों को बुद्धि के संस्कार के साथ ही हृदय के संस्कार पर भी ध्यान देना चाहिए. वह सुरजीत के मनोभाव को अपनी पारखी दृष्टि से तौल चुकी थी. तरुण को निमंत्रण न मिलने का कारण कांच की तरह स्वच्छ एवं पारदर्शी हो गया था.

समीर को उसने फ़ोन करके शाम जल्दी घर आने का अनुरोध किया, ‘‘तरुण के मन पर बहुत चोट पहुंची है. आज इसे हम लोग भी मैकडॉनल्स घुमा लाएंगे.’’ तरुण दिनभर की बेचैनी एवं अपमान को मैकडॉनल्स जाकर भूल गया, पर स्मिता एवं समीर के हृदय में झंझावत उठते रहे.

तरुण स्कूल से लौटने पर प्रत्येक बातें स्मिता को बताता. उन्हीं बातों से वह इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि अहंकार की भावना उन बच्चों के दिलो-दिमाग़ पर छाई रहती है. कोई खिलौने संग्रह करने की होड़ में दूसरे को पछाड़ता, तो कोई अपने घर में मौजूद कारों एवं मोबाइल की संख्या को बड़ी ऐंठ के साथ बताता. तरुण की मारूति कार को सभी बड़ी हिकारत की नज़र से देखते.

स्मिता ने स्वयं ही पिज़ा एवं बर्गर बनाने की सोची, उसे दिखावा तनिक भी पसंद नहीं था. वीडियो गेम, चैनल और कम्प्यूटर के दलदल में फंसे बच्चे अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं. उपभोक्तावाद की अंधेरी सुरंग में उनकी संवेदनशीलता और सृजनशीलता लुप्त होती जा रही है. इसमें दोष किसका है? अपने बच्चे को वह बदलती हवा के रुख से दूर रखना चाहती थी. वैचारिक प्रदूषण की इस बाढ़ में वह तरुण को डूबने से बचाना चाहती थी. वह संस्कारहीनता, दिशाहीनता एवं उच्छृंखलता से कोसों दूर रखना चाहती थी उसे. अन्य बच्चों के समान उसे संवेदनहीन नहीं बनाना चाहती थी, इसलिए वह उसे अच्छी शिक्षाप्रद कहानियां सुनाया करती.

तरुण के जन्मदिन पर वह सुरजीत को भी बुलाना चाहती थी, ताकि तरुण के हृदय में बदले की भावना का जन्म न हो. अचानक उसके मस्तिष्क में यह विचार कौंधने लगा कि इससे सुरजीत के व्यवहार में कैसे बदलाव आएगा? वह तो हमेशा अन्य लड़कों को नीचा दिखाएगा तथा अपने जन्मदिन पर किसी को भी आहत कर देगा. उसे बुलाने पर तो वह इसे अपना अधिकार समझकर चला आएगा उसे उस पीड़ा का एहसास कराना चाहिए, जो पीड़ा उसने तरुण को दी. जब उसे इस पीड़ा का एहसास होगा, तो उसकी इस आदत का सुधार बचपन में ही हो जाएगा. वैसे तो यह काम हर बच्चे की माता का होता है, पर वह यह काम ख़ुद करेगी. एक पीड़ा दंश देकर उसे अनुभव के दरिया में डूबने-उतराने को अवश्य छोड़ेगी. वह इतनी क्रूर नहीं, पर एक बच्चे की आदत का सुधार वह स्वयं करेगी, जो उसकी मां को करना चाहिए था.

आज समीर भी द़फ़्तर से जल्दी ही आ गए थे. पति-पत्नी ने मिलकर गुब्बारों को पूरे कमरे में सजा दिया. फूल-पौधों की भी सजावट की. स्मिता के बनाए स्वादिष्ट व्यंजनों की ख़ुशबू से वातावरण निखर उठा. पति-पत्नी ने महसूस किया कि दोस्तों के आ जाने के बावजूद तरुण के मासूम चेहरे पर उदासी छाई है. वह बार-बार फ़ोन के पास जाकर रिसीवर उठाता और फिर रख देता.

स्मिता तथा समीर तरुण के हृदय में चल रही आंधी से बेख़बर नहीं थे. उन्हें महसूस हुआ कि सुरजीत को नहीं बुलाने का दुख तरुण को साल रहा है. उन्हें भी ‘जैसे को तैसा’ की सीख देने की इच्छा नहीं थी, लेकिन जिस पीड़ा से तरुण उबर नहीं पाया था, वही पीड़ा सुरजीत को देकर क्या लाभ? फिर तरुण और सुरजीत के व्यवहारों में क्या फ़र्क़ रह जाएगा. पति-पत्नी ने आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को देखा और समीर ने अपनी कार निकाली.
‘‘आओ बच्चों, सुरजीत को ले आएं. वह तो पास में रहता है, इसलिए उसे लाने-पहुंचाने की ज़िम्मेदारी मेरी.’’ बच्चे हर्षोल्लास से शोर मचाते कार में चढ़ बैठे कार जिस समय सुरजीत के बंगले पर पहुंची, उस समय वह लान में बिछी मखमली दूब पर घुटनों में सिर छिपाए बैठा था. आज उसे तरुण को अपने जन्मदिन पर न बुलाने का बेहद पश्‍चाताप हो रहा था. तरुण के घर पर होनेवाली पार्टी का वह काल्पनिक आनंद ले रहा था. लेकिन यह सोचकर उसका हृदय व्यथित हो उठता कि उस पार्टी में शामिल होने का वह हक़दार नहीं. कार की आवाज़ सुनकर उसने घुटनों से अपना सिर उठाया. तब तक सारे बच्चे दौड़ते हुए उसके पास पहुंच चुके थे.

‘‘सुरजीत, चलो तुम्हें ही लेने हम सब आए हैं.’’ तरुण ने सुरजीत का हाथ थामकर कहा. सुरजीत की आंखें भर आईं. उसने दृढ़तापूर्वक तरुण के हाथ पकड़ लिए. सुरजीत की आंखों में पश्‍चाताप एवं ग्लानि के भाव को समीर ने अच्छी तरह से पढ़ लिया और उसे सुरजीत के सुधर जाने का पूरा विश्‍वास हो गया.

– लक्ष्मी रानी लाल

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