धार्मिक स्थलों पर असमानता

महिलाओं के शनि मंदिर या शबरीमाला के प्रवेश का विचार करते समय मस्जिद और मजार पर महिला प्रवेश, अन्य पंथियों से विवाह करने वाली पारसी महिला का अग्यारी में प्रवेश, धर्मगुरू के स्थान पर ईसाई महिला को पाबंदी जैसे विषयों पर भी चर्चा होना अनिवार्य लगता है। केवल हिंदू समाज को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं है।

शबरीमाला मंदिर में महिला के प्रवेश को लेकर बड़ी बहस छिड़ गई है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय को भी कुछ सवालों पर विचार करने के लिए वृहद् संविधान पीठ को यह विषय सौंपने की नौबत आई है। हमारे संविधान में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने हेतु अनेक प्रावधान किए गए हैं। लेकिन कुछ विषय परस्पर विरोधी होने के कारण कई बार समस्या खड़ी हो जाती है। जैसे कि सूचना का कानून भी है और निजी जीवन की रक्षा का भी कानून है। ठीक वैसे ही आस्था के मामले में हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का सिद्धांत, अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और अनुच्छेद 26 में आस्था के विषय में परंपरा से चलती आई व्यवस्था के अनुसार उपासना करने का धार्मिक समूह या संस्था का अधिकार मौलिक अधिकार में सम्मिलित है। ऐसे एक दूसरे के विरोधी लगने वाले विषयों पर व्यवहार करते समय विवेक और संयम की जरूरत पड़ती है। इन विषयों का सुवर्णमध्य तलाशना पड़ता है। आस्था के विषय में महिला के अधिकार का विषय भी समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच अटक गया है। आस्था के विषय में सोचते हुए समय के साथ आने वाली नई परिस्थिति का संदर्भ लेकर निर्णय के अंतिम चरण पर आना होगा।

दूसरा एक पहलू समानता के बारे में सोचते समय केवल हिंदू समाज की आस्था पर प्रहार करना, हिंदू समाज को कोसना और अन्य पंथों मे चली असमानता और कुरीति का विषय चालाकी से दरकिनार करना यह भी ठीक नहीं है। समानता के विषय में सोचते समय ऐसी असमानता निंदनीय है। जीवन मूल्यों का विचार जब हम करते हैं तो सभी पंथों के लिए समान रूप से मानवी जीवन के संदर्भ में कल्याणकारी विचार करना होगा। महिलाओं के शनि मंदिर या शबरीमाला के प्रवेश का विचार करते समय मस्जिद और मजार पर महिला प्रवेश, अन्य पंथियों से विवाह करने वाली पारसी महिला का अग्यारी में प्रवेश, धर्मगुरू के स्थान पर ईसाई महिला को पाबंदी जैसे विषयों पर भी चर्चा होना अनिवार्य लगता है। केवल हिंदू समाज को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं और केवल हिंदू समाज को कटघरे में खड़े करने के विषय को आगे कर मूल महिला समानता के विषय को अनदेखा करना भी उचित नहीं लगता।

नगर जिले के शिंगणापुर में शनि मंदिर के चौथरे पर महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित था। कुछ महिलाओं ने जब इस का विरोध किया और न्याय संस्था में चली गई तो न्यायालय ने समानता के तत्त्व का अनुसरण करते हुए सभी को समान रूप से प्रवेश देने का आदेश दिया। अब वास्तव में शिंगणापुर में शनि के चौथरे पर महिला और पुरूष सभी को प्रतिबंधित किया गया है। शबरीमाला का विषय अब उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका के रूप में विचाराधीन है, जिसे संविधान पीठ को सौंपा गया है। अब यह मसला केवल शबरीमाला तक सीमित नहीं रहा। उच्चतम न्यायालय में अब सभी पंथों और मतों के रिवाजों में महिलाओं और पुरूषों से व्यवहार में जो असमानता है, उसके बारे में मूलभूत विचार करने हेतु कुछ सवाल उपस्थित हुए हैं। अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने श्वेतांबर जैन समुदाय, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन दरगाह के पीरजादे अल्तमश निजामी जैसे विभिन्न संबंधित लोगों को अपना पक्ष रखने की इजाजत दी है।

उच्चतम न्यायालय के इस रवैय्ये से इस विषय का दायरा और ज्यादा बढ़ गया है। उच्चतम न्यायालय ने केवल एक मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर निर्णय करने से आगे बढ कर संविधान के अनुच्छेद 25 में निहित धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का दायरा, अनुच्छेद 25 में अपेक्षित धार्मिक स्वतंत्रता और अनुच्छेद 26 के अंतर्गत धार्मिक संस्थानों को मिले अधिकार के बीच का संतुलन कैसे होगा, मौलिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में इन मुद्दों को कैसा देखा जाना चाहिए, अनुच्छेद 25 में मिली धार्मिक स्वतंत्रता में दी गई धार्मिक परंपरा में न्याय संस्था किस हद तक दखलअंदाजी कर सकती है, किसी धार्मिक संस्था से संबंध न रखने वाला व्यक्ति जनहित याचिका के माध्यम से धार्मिक समूह या संस्था में प्रचलित परंपरा पर सवालिया निशान लगा सकता है या नहीं ऐसे सवाल विचार करने हेतु बड़ी पीठ के सम्मुख रखे हैं।

महिला समानता का विषय जब भी चर्चा में आता है तब धार्मिक पंथों की गतिविधियों में महिलाओं को हो रहे प्रतिबंध का विषय आता है। कई बार पंथों की रचना और आस्था पर विश्वास रखने वाली महिलाओं की कोई शिकायत न रहने पर भी सवाल उठाए जाते हैं। सामाजिक परिवर्तन और सुधार के नाम पर आस्था के विषयों पर सवालिया निशान लगाने के प्रयास जानबूझ कर किए जाते हैं। अंधश्रद्धा की चर्चा करने का ढोंग करते-करते श्रद्धा पर कुठाराघात करने का प्रयास किया जाता है। संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। लेकिन ऐसी संघर्षमय परीक्षा से ही समाज उन्नयित और नए प्रकाशमान मार्ग पर अग्रसर होता है यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए।

जहां तक हिंदू जीवन दर्शन का सवाल है इसमें कई कर्मकांड लगने वाली चीजें वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती हैं। वैज्ञानिक कारणों का हवाला देकर समाज को इन विषयों पर अनुसरण करना कठिन होता है इसलिए उसे आस्था का विषय बना कर समाज के सम्मुख रखा गया। बाद में इन विषयों के मूलतत्व को दरकिनार कर कर्मकांड हावी हो गया तो इन बातों ने रूढ़ी और अनुचित परंपरा का रूप धारण कर लिया। जब नया विज्ञान, नया तंत्र सामने आया है तो इस नए वैज्ञानिक सत्य की कसौटी पर इन परंपराओं को परखने की आवश्यकता है।

जननी का रूप महिला की विशेष शक्ति है। माता के रूप में वह सब को सर्वाधिक प्रिय भी है। यह पवित्र, प्रिय, विशेष रूप और इसलिए महिला की शारीरिक विशेषता को उसे धार्मिक स्थानों में, धार्मिक क्रियाओं मे नकारने का कारण बनाना यह अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण है। जननी की शक्ति धारण करने की प्रक्रिया में शरीर की पवित्रता, शुद्धि को बनाए रखना प्राचीन काल में इतना आसान नहीं था इसलिए महिलाओं को कई धार्मिक जगहों पर प्रवेश मर्यादित किया गया। लेकिन अब विज्ञान के कारण पवित्रता, शुद्धता को बनाए रखना आसान हो गया है। धार्मिक स्थलों पर शुद्धता और पवित्रता के साथ जाकर भक्तिभाव से धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेना हरेक के भक्तिभाव पर छोड़ देना चाहिए या पवित्रता के नाम पर केवल महिलाओं को प्रतिबंधित कर अवमान करने से पुरूष और महिला सभी के प्रवेश को एक समान मर्यादा पर रोकना ज्यादा उचित रहेगा? किसी भी दृष्टि से, किसी भी कारण महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम आंकना, उन्हें अपमानित करना, दोयम दर्जा का स्थान देना घोर आपत्तिजनक है।

जब भी धार्मिक स्थलों पर महिला से होने वाले व्यवहार की चर्चा होती है तो हिंदू धर्म को बेवजह लक्ष्य किया जाता है; जब कि सभी पंथों में महिलाओं के प्रति असमान रवैय्या ही अपनाया गया है। मस्जिद अौंर मजार में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है। दाउदी बोहरा मुसलमानों में महिलाओं का खतना एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पारसी महिला के गैर-पारसी से विवाह करने पर अग्यारी में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है। महिला मुक्ति की भाषा करने वाले सभी पंथों में महिलाओं की समानता के बारे में नहीं बोलते। केवल हिंदू धर्म को कोसना, नीचा दिखाना है इसलिए ऐसे विषयों पर बहस की जाती है। मस्जिद में और मजार में महिलाओें का प्रवेश, पारसी और बोहरा महिलाओं की समस्या इन विषयों पर उच्चतम न्यायालय में अलग-अलग याचिकाएं दायर हैं। न्यायालय के निर्णयों का आदर करने का पाठ पढाने वाले जब न्यायालय का निर्णय अपने लिए असुविधाजनक लगता है तो न्यायालय पर भी सवाल उठाने लगते हैं। ये दोहरे मापदंड बेहद आपत्तिजनक हैं।

धार्मिक परंपराओं को खंडित न करते हुए महिला का सम्मान एवं समानता के लिए व्यापक चर्चा की आवश्यकता है। इस चर्चा में संकुचित आग्रह, उत्तेजना, अस्मिता का बवाल न मचाते हुए मानवीय व्यवहार, प्रेम और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना ज्यादा जरूरी है। महिला को दुर्गा के रूप में वर्णन करना, शक्ति का प्रतीक कहना और उस के प्रति असमान व्यवहार करना, उसे दूसरे दर्जे का स्थान देने की कोशिशें करना, प्रस्थापित गलत मान्यताओं का आग्रह करना यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

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