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मजदूरों का स्थलांतर त्रासदी और अवसर

मजदूरों का स्थलांतर त्रासदी और अवसर

by अमोल पेडणेकर
in मई - सप्ताह चार, विशेष, सामाजिक
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स्थलांतर, विस्थापन, पलायन यह हमारे देश और समाज की सबसे बड़ी समस्या है, इसमें कोई दो राय नहीं है। समाज व्यवस्था की जब बात आती है तो ऐसा कहा जाता है कि, जो व्यक्ति जहां जन्म लेता है उसे वहीं उसके जीवन के लिए जरूरी सभी बातें उपलब्ध होनी चाहिए। और, उसकी अंतिम सांस भी उसी मिट्टी में समानी चाहिए। इस प्रकार की आदर्श स्थिति होनी आवश्यक होती है। लेकिन विश्व के सभी मानवों का संपूर्ण इतिहास स्थलांतर, विस्थापन, पलायन से जुड़ा है। विस्थापन या पलायन अलगअलग कारणों से होता है। कभी-कभी मनुष्य का एक बड़ा समूह अन्न और पानी के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश की ओर स्थानांतरित होता है, तो कभी अपनी भूख को मिटाने के लिए रोजगार को ढूंढते हुए स्थलांतर होता है। युद्ध, रोग, आतंकवाद, नैसर्गिक आपदा जैसे भय के कारण भी स्थलांतर होते हैं। वर्तमान में कोरोना वायरस के कारण देशभर के मजदूरों का अपने घर की ओर पलायन हो रहा है।

कोरोना वायरस से निर्माण हुई यह स्थिति इस सदी की सबसे बड़ी दर्दनाक घटना है। पहले स्थलांतर होते थे वह रोटी की तलाश में होते थे, लेकिन यहां स्थलांतर अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए और जानलेवा कोरोना वायरस से जान बचाने के लिए हो रहा है।लोग अपने साथ जितना हो सके उतने सामान की गठरी लेकर, तो कोई अपने बदन पर पहने वस्त्र के साथ घर के बाहर निकले हैं। लाखों की संख्या में ये काफिले अपने गांव की ओर अनिश्चितता के साथ चल पड़े हैं। वे व्याकुल और असहाय हैं।

एक श्रमिक महिला को पैदल अपने गांव जाते हुए प्रसव पीड़ा हुई। उसने मार्ग में ही शिशु को जन्म दे दिया। उसी नवजात शिशु को गोदी में संभाल उस मां ने एक सौ साठ किलोमीटर की यात्रा पूरी की। संकट की इस घड़ी में किसान पति-पत्नी दूसरे बैल की जगह जुए में बारी-बारी खुद ही जूतते और गाड़ी खींचते रहे। यह आज का भारत है। आजादी के सात दशक बाद भी गरीबी के भयावह हृदय विदारक दृश्य पीड़ादायी हैं। बीमारी, भूख- प्यास और राह चलते हुए दुर्घटना में जो साथी मर गए हैं, उन्हें पीछे छोड़कर काफिले आगे बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। वे बड़ी आशा के साथ अपने घर की ओर निकल पड़े हैं, लेकिन नहीं जानते कि कब घर पहुंचेंगे।

हजारों काफिलों मे समाई लाखों लोगों की बहती हुई नदी जैसा चित्र पूरे भारतवर्ष की सड़कों पर दिखाई दे रहा है। हां, ऐसे समय में विरोधाभासी चित्र भी हमें दिखाई दे रहा रहा है। विदेश में रहने वाले अमीर विस्थापित होकर हवाई मार्ग से अपने घर की ओर प्रयाण कर रहे हैं। अपने घरों की ओर लौटते मजबूर मजदूरों की तस्वीरें सभी जगह एक ही है। देश के तमाम राज्यों में राष्ट्रीय राजमार्गों पर गाड़ियां कम और लुटे-पिटे दिखते इंसान अधिक नजर आ रहे हैं। तपती सड़क पर चलते कई मजदूरों की चप्पलें टूट चुकी हैं। किसी के कंधे पर बच्चा है तो किसी की झुकी कमर पर भारी गठरी। कहीं बूढ़े मां-बाप डगमगाते हुए चल रहे हैं। जिंदगी का यह महाभारत मजदूर रोज लड़ रहे हैं।

बाहरी लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं, जिससे अपने शहर की सभी व्यवस्थाएं तहस-नहस हो रही हैं- यह कहकर लोगों का बुद्धिभेद करने वाले बहुत सारे मिलते हैं। अब वर्तमान में उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाएगी। देश के प्रमुख शहरों से लाखों मजदूरों का पलायन हुआ है। उसके बाद जीवन के लिए आवश्यक सभी व्यवस्थाओं में बहुत बड़ी रिक्तता निर्माण हो रही है। उसे भरने के लिए स्थानीय लोगों को रोजगार के लिए उत्साहित करने की जिम्मेदारी अब इन्हीं नेताओं पर आ गई है।

पलायन करने वाले मजदूरों की उपयोगिता के बारे में सच्चे दिल से हमें सोचने की जरूरत है। जब हम सच्चे दिल से सोचने की कोशिश करेंगे तो हमें यह बात माननी पड़ेगी कि अपने शहरों के विकास के लिए जिस प्रकार से आईआईटीयन्स की जरूरत है, उसी प्रकार से मजदूरों की भी बड़ी मात्रा में जरूरत होती है। बाहरी मजदूर आने के कारण अपने शहरों की व्यवस्था बिगड़ रही है, ऐसी भावना यदि हमारे मन में निर्माण होती है, तो आत्म-परीक्षण करने के लिए हमारे पास वर्तमान में सही अवसर है।

इस स्थिति में भी विस्थापन की समस्या की ओर हम आंख नहीं मूंद सकते। आज के आधुनिक युग में भी केवल पेट भरने के लिए लाखों बेरोजगारों को शहरों की ओर आना पड़ता है, जहां अत्यंत चिंताजनक स्थिति है। सामाजिक दृष्टिकोण से समस्याओं का निर्माण करने वाली स्थिति है। गांव की उजड़ती हुई अर्थव्यवस्था और महानगरों की अमानवीय बस्तियां हमारी ही मुनाफा आधारित विकास की देन है। जीवन की आपाधापी में शहरों की ओर दौड़ लगाने के कारण गांव वीरान होते गए हैं। गांव छोड़ने वाले शहर को अपना कहते हैं, अपना सपना मानते हैं। लेकिन शहर कभी किसी का नहीं होता। अगर गांव और कस्बे खाली नहीं होते तो देश के महानगर कैसे बनते? अपने बेहतर जीवन की तलाश में जो लोग अपने गांव को छोड़कर शहरों की ओर आ गए हैं, आज उनके गांव का क्या हाल है? आज कोरोना वायरस के कारण क्या हाल है? आज फिर से अपने गांव की ओर लौटते लाखों कदम अपने गांव की गलियों का सन्नाटा और अंधियारा दूर करने के लिए कुछ सोचेंगे?

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव जल्द ही होने वाले हैं। कोरोना के कारण जो बेरोजगारी वहां पर निर्माण हुई है, उसे निपटने के लिए वहां पर बसे प्रवासी भारतीयों को अपने देश वापस भेजने की मांग उठ रही है। इस  कारण अमेरिका में निवास करने वाले भारतीयों में खलबली निर्माण हुई है। भारत के विभिन्न शहरी क्षेत्रों में आकर वहां सस्ती दरों में काम करने वाले मजदूरों पर स्थानीय लोगों का गुस्सा होता है। पढ़े-लिखे भारतीयों को भी अमेरिका जैसे विकसित देशों में इसी प्रकार के अनुभवों का सामना करना पड़ता है। असल में विदेश हो या भारत के शहर, यहां पर आर्थिक केंद्र होने के कारण मजदूरों को आकर्षित करने की चुंबकीय ताकत बहुत बड़ी होती है। जो लोग शहरों की ओर आते हैं वे सिर्फ मौज करने के लिए शहरों में नहीं आते हैं। आने वाले सभी लोगों की भूख प्यास मिटाने की ताकत इन शहरों में होती है। आज भारत के सभी शहरों से मजदूर अपने-अपने घर पर विस्थापित हो रहे हैं। इस कारण नई समस्या देश के विभिन्न शहरों में निर्माण होने वाली है। वह है मजदूरों की कमी के कारण शून्य अवकाश की समस्या। हमारे रोजमर्रे के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें जो इन मजदूरों से पूरी होती थीं, ऐसी बातों की पूर्ति के लिए आने वाले भविष्य में सक्षम योजना बनाने की आवश्यकता होगी।

अमेरिका को सबसे सामर्थ्यवान राष्ट्र बनाने में आप्रवासियों की बहुत बड़ी भूमिका है। वर्तमान और भविष्य में अमेरिका को यदि दुनिया में अपना पहला स्थान कायम रखना है तो स्थलांतरितों एवं निर्वासितों पर अपनी रणनीति स्पष्ट होनी चाहिए इस बात पर अमेरिका विचार कर रहा है। स्थलांतर के कारण समाज में अनेक प्रश्नों का जन्म होता है यह बात जितनी सही है उतनी यह बात भी सही है कि समाज को बहुरंगी बनाने के लिए स्थलातरितों का ही उपयोग होता है। विेश का सबसे समृद्ध देश अमेरिका केवल स्थलांतरित लोगों के कारण ही अस्तित्व में आया है। जो प्रदेश जितना समृद्ध – संपन्न होता है वहां पर स्थलांतरित लोगों का प्रवाह भी उतना ही बड़ा होता है। निर्वासित और स्थलांतरित लोगों के कारण उस प्रदेश को एक बहुरंगी विकास का चेहरा भी मिलता है। यह बात भी भारत के शहरों के लिए भी उतनी ही सही है।

इतिहास हमेशा राजा महाराजाओं का लिखा जाता है। सामान्य जनता को उसमें कभीकभार भूलेभटके स्थान मिलता है । इसकी वजह अत्यंत सीधी-सादी है। इतिहास रचने वाले राजा महाराजा ही होते हैं और प्रजा उनके अधीन होती है। और जो अधीन होते हैं उनकी आवाज को सुना नहीं जाता। उनकी आवाज को इतिहास में कोई स्थान नहीं होता। हां, कभीकभार प्रजा का छोटा-मोटा किस्सा इतिहास में बताया जाता है। इतिहास में अपना स्थान पाने के लिए नया इतिहास लिखना पड़ता है। इस प्रकार का इतिहास दूसरे विेश युद्ध के समय मारे गए यहूदियों के संदर्भ में लिखा गया है। इसका कारण यह है कि जर्मनी के यातना शिविरों में, गैस चेंबर में जानवरों से भी बदतर मौत-यातनाएं सहने वाले यहूदी पुरुषों, यहूदी स्त्रियों, लड़के-लड़कियों की यातनाओं के संदर्भ में जानकारी देने वाले हजारों रजिस्टर उपलब्ध हैं। इसके साथ ही इज़राइल की स्थापना के बाद वहां की सरकार ने विश्व के हर कोने से यहूदियों के संदर्भ में उपलब्ध सभी जानकारियां इकट्ठा कीं और यहूदियों की यातनाओं के इतिहास को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। भारत के विभाजन के समय भी इसी प्रकार की परिस्थिति निर्माण हुई थी। भारत के विभाजन, स्वतंत्र भारत के संदर्भ में बहुत लिखा गया है। लेकिन उस समय मारे गए लाखों निर्वासितों, विस्थापितों के संदर्भ में उल्लेख आता है, लेकिन उन विस्थापितों – निर्वासितों के अंतर्मन की गहरी यातनाएं भारत के लोगों तक पहुंची नहीं है। विभाजन की आग में झुलझे सामान्य लोगों की हमारे मन की गहराई तक पहुंचने वाली व्यथा अपने इतिहास में मौजूद नहीं है। कोरोना के कारण विस्थापित हो रहे लोगों की कठिनाइयां इसी प्रकार की पीड़ादायक हैं। भारत के इतिहास में मजदूरों की इन व्यथा-कथाओं को गहराई से दर्ज किया जाना चाहिए।

कोरोना संक्रमण में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उपायों की तलाश हो रही है। उत्पाद, उत्पादन और बाजार के विकास की संभावनाओं के बीच शहरों से गांव की ओर बढ़ रहे बेरोजगार मजदूरों की भीड़ को काम देना भी बड़ी चुनौती है। ऐसी अवस्था में हमें अपनी पुरानी लीक से हटकर उन संभावनाओं पर भी गौर करने की जरूरत है, जो इन सबसे परे हैं। विशेषकर देहातों, गांवों में बहुत से ऐसे उत्पाद भी निर्मित किए जाते हैं, जिनका न तो कोई बाजार है और न ही बड़े पैमाने पर उनकी बिक्री हो पाती है। हमें संकट की इस घड़ी में अर्थव्यवस्था के इस देसी आधार को सहारे के रूप में अपनाने की जरूरत है।

शहरों से गांवों की ओर बढ़ रहे प्रवासी मजदूरों को उनके कौशल के आधार पर स्थानीय स्तर पर ही रोजगार और विकास के साधन मुहैया कराना उचित रहेगा। गांव को अर्थव्यवस्था की धुरी बनाकर ये लोग क्रयशक्ति बढ़ा सकते हैं। गांव आधारित वैकल्पिक आर्थिक पुनर्रचना की रणनीति हमारी अर्थव्यवस्था को भी हमेशा के लिए संजीवनी दे सकती है। हम भारत को कृषि प्रधान देश मानते हैं, पर वास्तव में यह गुजरे जमाने की बात है। हम सिर्फ नासमझी में ये शब्द को दोहराते रहते हैं। कोरोना संकट के इस काल में दुनियाभर में समाधान के नए-नए रास्ते सुझाए जा रहे हैं। हम महात्मा गांधी की राह पर फिर से चलकर अपनी अर्थव्यवस्था को जीवन शक्ति प्रदान कर सकते हैं। कृषि की बेहतरी और कृषि आधारित उद्योगों के जरिये बेहतर भविष्य का निर्माण भी इसी में अपेक्षित है। गांव को अर्थव्यवस्था की धुरी बनाने का शंखनाद तो महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के समय ही कर दिया था। कोरोना ने देश को अब नव निर्माण की चुनौतियां भी दी हैं। संघर्ष के बजाय समन्वय, सहयोग और उपलब्ध साधन शक्ति से आगे जाना है। कोरोना ने एक नई विेश रचना प्रारंभ की है और भारत भी उससे अछूता नहीं है।

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