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भ्रष्टाचार – असंतोष का प्रेशर कुकर

भ्रष्टाचार – असंतोष का प्रेशर कुकर

by विश्वनाथ सचदेव
in मई २०११, सामाजिक
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क्रिकेट में जीत वाली रात में देश भर के युवा और बूढ़े-बच्चे भी खुशी से झूम उठे थे और जिस तरह उस रात सड़कों-गलियों में तिरंगा फहराते हुए नाचे थे, उसे देखकर मेरे एक परिचित ने मोबाइल पर एसएमएस भेजा था: ‘‘काश,भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी देश ऐसे ही सड़कों पर उतर आये!’’

यह पहली बार नहीं है जब अण्णा हजारे ने जनता के अधिकारों की लड़ाई में इस तरह का मोर्चा खोला है। अन्य कई  समर्पित कार्यकर्ता भी ऐसे कदम उठाते रहे हैं। सवाल ऐसे कदमों के सफल-असफल होने का उतना नहीं है, जितना इस बात का है कि एक जीवंत जनतांत्रिक समाज में नागरिक कब और कैसे अपने कर्त्तव्यों के प्रति और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ता है। अण्णा हजारे के नेतृत्व में आज देश ऐसी ही लड़ाई लड़ रहा है। मुद्दा लोकपाल विधेयक को पारित करने का है। सरकार ने इस संदर्भ का एक विधेयक तैयार किया है। और यह बात भी कही है कि संसद के मानसून सत्र में इस विधेयक को पारित कराना चाहती है। अण्णा और उनके समर्थकों को यह विधेयक मंजूर नहीं है। उन्हें नहीं लगता इस सरकारी विधेयक से भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्थक लड़ाई लड़ी जा सकती है। इसलिए उन्होंने एक जन-लोकपाल विधेयक तैयार किया है, जो सरकार द्वारा प्रस्तावित विधेयक से कहीं अधिक सक्षम है; लेकिन उसकी उपयुक्तता को लेकर सवाल उठ रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि इस तरह कानून बनाने की प्रक्रिया में जन-संगठनों, जन-आंदोलनों ने हस्तक्षेप शुरू कर दिया, तो उस व्यवस्था का क्या होगा, जो हमने अपने लिए स्वीकार की है।

दोनों ही सवाल अपनी जगह गलत नहीं है। मगर इनके उत्तर भी हमें तलाशने होंगे। इस समय जो स्थिति बनी है, वह यह है कि देश में भ्रष्टाचार के राक्षस का आकार लगातार बढ़ता चला जा रहा है। किसी छोटे-से सरकारी दफ्तर के चपरासी से लेकर देश में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों पर भ्रष्टाचारी होने के आरोप लग रहे हैं। पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री, उच्चाधिकारी, न्यायाधीश इत्यादि सब आरोपों के घेरे में हैं। सब भ्रष्ट नहीं हैं, यह सही है; लेकिन भ्रष्टाचार सब जगह है- यह भी हकीकत है। लोकपाल की व्यवस्था इस भ्रष्टाचार से लड़ाई की एक माध्यम थी। हमने यह भी देखा कि वर्तमान व्यवस्था अपर्याप्त ही नहीं; दोषपूर्ण भी है। देश के सत्रह राज्यों के लोकायुक्तों ने अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति असंतोष व्यक्त किया है, बल्कि प्रस्तावित सरकारी विधेयक को भी त्रुटिपूर्ण बताया है। उनका कहना है, ‘‘हम दंतहीन शेर हैं, इस बारे में कुछ किया जाना जरूरी है ।’’

अण्णा हजारे इन दंतहीन शेरों को दांत देने के लिए लड़ रहे हैं। सरकार भी यही कह रही है कि वह लोकायुक्तों को अधिक प्रभावशाली बनाना चाहती है, तो फिर मतभेद क्यों है?

यह एक जांचा-परखा तथ्य है कि लोकायुक्त की वर्तमान व्यवस्था भ्रष्टाचार को मिटाने में कारगर सिद्ध नहीं हो रही है। अब सरकार ने भी जो विधेयक तैयार किया है, वह भी व्यवस्था के बहुत-से पदों और कार्यो ंको लोकपाल या लोकायुक्त के अधिकार-क्षेत्र से बाहर रख रहा है। अण्णा हजारे के नेतृत्व में कुछ जन-प्रतिनिधियों ने भी एक प्रस्तावित विधेयक तैयार किया है। सरकार को यह अव्यावहारिक लग रहा है। अब दोनों एक संयुक्त-समिति के गठन पर सहमत हो गये हैं,जो विधेयक का प्रारूप तैयार करेगा।

भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए सरकारों के अब तक के सारे प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं। इसके उलट बीमारी बढ़ती ही जा रही है। था कोई ज़माना जब मात्र 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले ने देश को हिलाकर रख दिया था। अब तो हजारों करोड़ रुपये के घोटालों से भी हमारी व्यवस्था को कोई शर्म नहीं आती। एक दिन एक टीवी कार्यक्रम में द्रमुक के एक नेता कह रहे थे, ‘‘2जी घोटाला तो मात्र 32 हजार करोड़ रुपये का था। आप मीडिया वालों ने बिना बात के उसे पौने दो लाख करोड़ रुपये का बना दिया!’’ बात कहने के उनके अंदाज़ से स्पष्ट लग रहा था जैसे 32 हजार करोड़ रुपये का घोटाला तो कोई घोटाला ही नहीं होता!

हमारी राजनीति की वर्तमान स्थिति और राजनेताओं की मानसिकता देश को खतरनाक मोड़ पर ले जा रही है। सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार का ही नहीं है; सवाल व्यवस्था में फैल रही सड़ांध का है। आज हमारे राजनीतिक दल सत्ता की राजनीति तक सीमित हो गये हैं। और इसकी ओर राजनीति के अपराधीकरण ने स्थिति को और विस्फोटक बना दिया है। यह अनायास ही नहीं हुआ है कि आज बूढ़े अण्णा हजारे के समर्थन में देश में जगह-जगह युवा मशाल जुलूस निकालते रहे हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि देश का मध्यम वर्ग भी अब अपना असंतोष खुलेआम व्यक्त कर रहा है। यह स्थिति के बिगड़ने का ही संकेत नहीं है; इस बात का भी प्रमाण है कि असंतोष का प्रेशर कुकर फटने का आसार दिखा रहा है – भयंकर होगी वह स्थिति। बेहतर है उससे पहले ही हम चेत जायें। इस चेतने का एक ही मतलब है – राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर  सोचना सीखें। जन असंतोष की आग पर पानी डालने के बजाये उन कारणों की जांच करके उन्हें दूर करने की कोशिश करें जो असंतोष की आग को भड़का रहे हैं। किसी अनशन को जनतंत्र -विरोधी बताने से बात नहीं बनेगी। जनतंत्र को जनहितकारी बनाना होगा। यही एक रास्ता है, जो हमें बेहतर समाज की मंजिल तक पहुंचा सकता है।

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