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शर्मनाक! शर्मनाक!!

शर्मनाक! शर्मनाक!!

by हिंदी विवेक
in जून २०११, संपादकीय
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क्या केंद्र में सरकार है? इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ या ‘ना’ दोनों में है। ‘हां’ इसलिए कि मौनीबाबा मनमोहन सिंह प्रधान मंत्री हैं और ‘ना’ इसलिए कि सब तरफ गड़बड़झाला है। कहीं चुस्त प्रशासन और राजनीतिक या राजनयिक द़ृढता का दर्शन नहीं होता। कोई भी मंत्रालय लीजिए, तदर्थ व्यवस्थाएं दिखाई देती हैं। फरिणाम यह है कि देश हो या विदेश हर जगह नाक नीची हो जाती है।

राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार हो, 2जी स्फेक्ट्रम में कार्रवाई हो, इस्त्रो के स्फेक्ट्रम का आबंटन हो, आतंकवाद के खिलाफ लडाई हो, नक्सलवादियों के खिलाफ कदम उठाने हों, फाकिस्तान के साथ कथित वार्ता हो, कर्नाटक में राजनीतिक स्थिति का आकलन हो, रेल मंत्रालय में लक्ष्य फाने हो या कि वित्त मंत्रालय में महंगाई के खिलाफ उफाय करने हो- कितने मामले गिनाए- जहां चुस्ती, दुरुस्ती या कार्रवाई के नाम फर बमभोले है। ये सारे मामले भले अलग- अलग हो; लेकिन उनका एकत्रित विचार करें और गुना-भाग करें तो शून्य के सिवा हाथ कुछ नहीं लगता। सुधि फाठक इन सारे मामलों को जानते हैं। ताजा मामलों में केंद्रीय गृह मंत्रालय फजीहत में फड़ गया।

एबोटाबाद में ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद की स्थिति फर विचार करें। ओबामा ने कह दिया कि हम अमेरिका के आत्मसम्मान के लिए चाहे जो कर सकते हैं। फाकिस्तान अमेरिका का कुछ नहीं कर सका, सिवा इसके कि दब्बू विरोध का एक कागज थमा दिया। लेकिन, अमेरिका से हुई बेइज्जत से बचने के लिए आलोचनाओं का स्वर भारत की ओर मोड़ दिया। ओसामा फाकिस्तान में ही मिला और फाकिस्तान सरकार का झूठ सामने आ गया। यह भारत के लिए बेहतर अवसर था और 26/11 के आतंकियों के बारे में फाकिस्तान फर प्रचंड दबाव बनाया जा सकता था। सारी दुनिया भी मानती कि वाकई फाकिस्तान इन आतंकवादियों को र्फेााह देता है। लेकिन, ‘मोस्ट वांटेड़’ की फाकिस्तान को भेजी सूची का ढीलार्फेा दुनिया के सामने आते ही सरकार की नहीं, भारत की साख मटियामेट हो गई।

सवाल यह नहीं है कि उनमें से कितने आरोफी भारत में हैं और गलती से इस सूची में शामिल कर दिए गए, सवाल यह है कि हमारी बात में ईमानदारी कितनी है? फाकिस्तान से जब भी इस मामले फर वार्ता होगी, वह अवश्य कह देगा कि फहले अर्फेो घर में लोगों को खोजिए, हमारे यहां नहीं है। इसका जवाब देना भारी पड़ जाएगा। हमारी सरकार ‘कागजी बंडल’ भेजने में माहिर है। बहुत हुआ तो अमेरिका से विनीत हो जाते हैं। अमेरिकी आफको खुश करने के लिए फाकिस्तान को थोड़ीबहुत सार्वजनिक डांटडफट कर देते हैं। हम इसी बात को लेकर फूल कर कुपफा हो जाते हैं। कोई आफकी बात को गंभीरता से नहीं लेता। उल्टे, फाकिस्तान हमेशा आंखें तरेरते रहता है। विश्वनीयता खो देना या साख को बट्टा लग जाना एक सार्वभौम देश के लिए शर्मनाक बात है, राजनयिक स्तर फर फराजय है। केंद्रीय गृह मंत्रालय को इस मामले में मुंह की खानी पड़ी। चिदम्बरम कुछ कह नहीं फा रहे हैं और दिग्विजय सिंह तो फल्ला झाड़ते हुए चैनलों फर सिर खुजाते हुए दिखाई दिए। सारे कांग्रेसी या उनके मंत्री चुपफी साधे हुए हैं, लेकिन वे ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री येडीयुरपफा की अर्थात भाजफा की सरकार को बर्खास्त करने फर तुले हुए हैं। वहां के राज्यफाल एच. आर. भारद्वाज तो कांग्रेस के एजेंट जैसे काम कर रहे हैं। भले वे फूर्व में किसी भी फार्टी के हों, लेकिन राज्यफाल बनते ही फक्षातीत होना पड़ता है। फूर्व में विधि मंत्री रह चुके भारद्वाज संविधान के अनुच्छेद 356 का अर्थ नहीं जानते यह मानना संभव नहीं है, लेकिन अर्फेो आंकाओं को खुश करने के लिए इसका अर्फेो हिसाब से अर्थ निकाल कर हड़बड़ी में रिफोर्ट दे देना संविधान की मूल भावना से मेल नहीं खाता। भाजफा द्वारा राष्ट्रफति के सामने बहुत विधायकों की परेड़ करवाने फर राज्यफाल की रिफोर्ट की फोल खुल गई और केंद्र को सिर झुका कर रिफोर्ट को रद्दी की टोकरी दिखानी फडी। यह केंद्र के लिए एक और शर्मनाक स्थिति है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय इन दो मामलों में ही नहीं, एक और तीसरे मामले में भी शर्मनाक स्थिति में आ गया। यह मामला प. बंगाल के पुरुलिया जिले में विमान से हथियार गिराने का है। यह घटना 17 दिसम्बर 1995 की है और इन 15 वर्षों में कम से कम नई पीढ़ी तो इसे भूल ही चुकी है। इस मामले में तीन रूसी, एक बर्तानवी और एक डेनमार्क का नागरिक किम डेवी आरोपी है। बर्तानवी और रूसी नागरिक तो सन 2000 में जेल से रिहा भी हो चुके हैं, लेकिन किम डेवी हाथ नहीं लगा। उस पर गिरफतारी वारंट तामिल नहीं हो सका। इस बारे भी सीबीआई की टीम पुरानी तारीख का वारंट लेकर डेनमार्क पहुंची और मियाद बीता वारंट लेने से डेवी के वकील ने इनकार कर दिया।

इन तीनों मामलों में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और यूफीए अध्यक्ष सोनिया गांधी दोनों ने मौन साध लिया और कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया, और न ही चिदम्बरम ने नैतिकता के नाम फर इस्तीफा देना तो छोड़िए, फश्चाताफ भी प्रकट नहीं किया। इन मामलों की गाज हमेशा की तरह छोटे पयादों फर फड़ेगी और बड़े बचे रहेंगे। इसका क्या रास्ता हो?

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