न सुनवाई, न अपील, सीधे फैसला

ईनामी अपराधी विकास दुबे द्वारा आठ पुलिस कर्मियों की हत्या किए जाने से लेकर उसकी गिरफ्तारी और एनकाउंटर तक का पूरा घटनाक्रम काफी फिल्मी रहा। जिस तरह दर्शकों को अंदाजा होता है कि फिल्म में आगे क्या होने वाला है, उसी तरह विकास दुबे की कहानी में भी लोग यह समझ रहे थे कि पिछले कुछ दिनों से जिस तरह उत्तर प्रदेश की पुलिस हरकत में आई है, विकास दुबे का बचना मुश्किल है। लोग यह भी समझ रहे थे कि विकास दुबे का आत्मसमर्पण और एनकाउंटर दोनों ही उसके राजनैतिक आकाओं की मर्जी से हुआ है, चूंकि उसके पकड़े जाने और सच्चाई उगलने से कई लोगों के गले में फंदा कसने का डर था। इसलिए यही बेहतर था कि विकास दुबे को मार दिया जाए।

राजनीति, पुलिस और अपराध जगत की सांठगांठ का ताजातरीन उदाहरण है विकास दुबे। राजनीति और पुलिस इन दोनों की ही पनाह से वह अब तक बचा रहा। लेकिन जब दुबे उनके ही गले की हड्डी बनने लगा तो उसका एनकाउंटर कर दिया गया।

एनकाउंटर की एक और घटना कुछ महीनों पूर्व हैदराबाद में हुई थी। जब चार युवकों ने एक महिला डॉक्टर के साथ कुकर्म कर उसकी हत्या कर दी थी। हैदराबाद पुलिस ने उन चारों अपराधियों को गिरफ्तार किया था। कुछ अन्य जांचों तथा पूछताछ के लिए पुलिस अपराधियों को घटनास्थल पर ले गई थी। जब अपराधियों ने भागने की कोशिश की तब उनका एनकाउंटर कर दिया गया।

एनकाउंटर से जुडी इन दोनों ही घटनाओं के दो भिन्न पहलू हैं। एक है भावनात्मक और दूसरा तार्किक। हैदराबाद की घटना के पूर्व कुछ महीनों से निरंतर कुकर्मों और हत्या के समाचार सुनाई दे रहे थे। जिस अमानवीय तरह से ये कृत्य किए गए, उन्हें सुनकर आत्मा कांप उठती थी। हैदराबाद पुलिस के द्वारा किए गए एनकाउंटर के बाद पूरे देश के लोगों ने हैदराबाद पुलिस की पीठ थपथपाई थी। इससे यह संदेश जाता है कि समाज में हो रहे कुकृत्यों से समाज आहत था और पुलिस की मुस्तैदी और अपराधियों के खात्मे से उसे कुछ राहत मिली।

देश में, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में, गुंडाराज फैला हुआ था। गुंडों को राजनैतिक पार्टियों और पुलिस का आश्रय प्राप्त था। लोगों में डर फैलाने और अपना खौफ बनाने के लिए ये गुंडे कमर में तमंचे बांधे ऐसे घूमते थे, जैसे कोई बहुत बड़ा पराक्रम कर रहे हों। उनके इसी आतंक और दबदबे का फायदा राजनैतिक पार्टियां चुनावों तथा अन्य समय पर उठाती रहीं। कोई भी पार्टी ऐसी नहीं थी जिनके पास गुंडे न हों और जिसने सामान्य व्यक्ति को परेशान न किया हो। इसलिए जब-जब पुलिस द्वारा एनकाउंटर में कोई गुंडा मारा गया तब-तब जनता ने पुलिस की पीठ थपथपाई और उसे धन्यवाद दिया।

यह तो हुआ भावनात्मक पक्ष कि जिसने अपराध किया उसे सजा मिलनी आवश्यक थी और वह मिली भी। परंतु इसका एक तार्किक पक्ष भी है, जो यह पूछता है कि सजा कैसे मिली? क्या सच में केवल एनकाउंटर ही एक मात्र तरीका बचा था सजा देने का? एनकाउंटर जैसे हालात सचमुच बने थे या बनाए गए थे? क्या किसी एकाध अपराधी का एनकाउंटर करने से अपराध समाप्त हो जाएंगे? भारत एक संवैधानिक देश है। यहां संविधान के अनुसार, नियम-कानूनों के अनुसार कार्य किए जाने आवश्यक हैं। यहां किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। पुलिस केवल अपराधियों को पकड़ सकती है, उन्हें दंड देने का अधिकार न्याय पालिका का है। ये सभी प्रश्न तथा तर्क अपनी-अपनी जगह उचित हैं, परंतु इस वास्तविकता को नहीं नकारा जा सकता कि हमारी न्यायपालिका में पहले से ही इतने मामले चल रहे हैं कि कोई नया मामला आने पर उसका फैसला आने में सालों लग जाते हैं। निर्भया और कसाब का उदाहरण ताजा ही है अभी। और अपराधी अगर विकास दुबे जैसे लोग हों जो राजनीति में और अन्य महकमों में ऊंचा रसूख रखते हों तो उनको जमानत मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर तो ये चुनाव भी लड़ लेते हैं। और अगर जेल से बाहर नहीं आ सके तो जेल के अंदर से ही अपनी समांतर सरकार चलाते रहते हैं। ये भले ही जेल के अंदर हों पर इनके गुर्गे इनके नाम पर बाहर आतंक मचाए रहते हैं और जनता उसी तरह से परेशान रहती है।

तो क्या एनकाउंटर सही है? नहीं! सभी एनकाउंटर सही नहीं हो सकते। दरअसल आज एनकाउंटर हमारी न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न उठाने वाले बन रहे हैं। यह न्याय व्यवस्था का भी दोष है कि जनता का उस पर से विश्वास इतना उठ चुका है कि जब कोई एनकाउंटर होता है तो लोग खुश हो जाते हैं कि तुरंत न्याय मिल गया। परंतु इस बिना सुनवाई, बिना अपील के सीधे फैसले का कई बार गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है। कई बार फर्जी एनकाउंटर में निरपराध लोगों की भी मृत्यु हो जाती है।

विकास दुबे जैसे दुर्दांत और ईनामी अपराधी, जिसके अपराधों के बारे में सब लोग जानते हैं वह अगर पुलिस की गिरफ्त से भाग रहा है तो उसका एनकाउंटर करना और भागने की कोशिश करने वाले हर अपराधी का एनकाउंटर करना इनमें फर्क होना बहुत आवश्यक है। अगर एनकाउंटर करने की प्रक्रिया आम हो गई तो न्यायपालिका पर से बचाखुचा विश्वास भी उठ जाएगा। अब यह विचारनीय मुद्दा है कि अपराध होने के बाद अगर पुलिस और न्यायपालिका अपना-अपना काम समय पर और पूरी ईमानदारी से करे तो क्या एनकाउंटर की आवश्यकता पड़ेगी?
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This Post Has 3 Comments

  1. Abhishek Vishwakarma

    न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह तो है ही
    हमारे देश में उच्चतम न्यायलय के जज को चुनने हेतु राष्ट्रपति का सहारा लेते है फिर यही जज भी राष्ट्रपति को शपथ दिलाते है
    अब बात करे Legislative Assembly की तो यही वो कड़ी है जो पूरे देश का शासन निर्धारित करती है
    bureaucrtes इनके हाथ की कठपुतली है तो हम ऐसे शासन की कल्पना कैसे कर सकते है जो मंत्रियो के मर्जी से न चले। हमारे देश के IAS Secratrary जैसे बड़े पद के लोग इन मंत्रियो की मर्जी से नौकरी कर रहे है
    फिर विकास यादव जैसे बाहुबलियों का पैदा होना या मरना (एनकाउंटर) भी इन्ही की मर्जी से हो तो कोई आश्चर्य नहीं
    धन्यवाद

  2. Anonymous

    Encounter ya maut ki saja dene ka haq police ko kisne diya. Agar police hi mujarim ki saja tay karegi to nyay vyvastha khokhli hai kya ? Ye sawal jehan me jaroor ghoomega.yadi nyay per se etbar hat chuka hai to phir is dhanche me sansodhan kerna chahiye. Ye prajatantra hai yahan tanashahi ki prakriya ka anupalan nahi hona chahiye, chahe mujarim hi kyu n ho apni bat ka bayan dene ka haq use bhi awshya hai,.saja yakhta fansi ke mujarim se bhi uski aakhiri khwahish poochne ka chalan bhi hamare samvidhan me hai to ye vikas doobe jo 8 police karmiyon ka hatyara tha, kyu hatya hui, uske peeche karan kya the, vo polickarmi bagair kisi taiyari ke Dabish dene kaise pahunch gaye, vo kisi durrant apradhi ke gher gaye the shayd usko Giraftar kerne n ki uske gher dawat tawaje chatthi barahi me gaye the, n jane Kitne aise prashna jo uski maut ke sath dafan ho chuke..

  3. Rupali praful shinde

    Marnese pehle uska bayaan lena jaruri tha kyunki isme rajnitik partiya bhi shamil hogi

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