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गरीबी रेखा बनाम संपन्नता रेखा

गरीबी रेखा बनाम संपन्नता रेखा

by प्रो. श्रीराम अग्रवाल
in अगस्त -२०११, आर्थिक, सामाजिक
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अनेकता में एकता वाली संस्कृति में अपने देश की भारतीय अर्थव्यवस्था का हाईस्कूल से परास्नातक तक का अध्ययन-अध्यापन एक महत्वपूर्ण अंतर्विरोधी ब्रह्मवाक्य से होता है कि ‘भारत निर्धनों से बसा हुआ एक अमीर देश है।’ जब हम इसे गहनता से समझने का प्रयास करते हैं, तो पाते हैं कि यह मामला उलटा ‘एकता में अनेकता’ का है। भारतीय अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाला नियामक वित्तीय प्रशासन व्यवस्था एक, मौद्रिक नीतियां निर्धारित करने वाला नियामक रिजर्व बैंक आफ इंडिया एक, भारत का योजना आयोग भी एक, परंतु एक भारतीय अर्थव्यवस्था में अनेक अंतर्विरोधी अर्थ-व्यवस्थाएं। देश के 0.5 प्रतिशत अति संपन्न व्यक्तियों की अलग, 39.5 प्रतिशत मध्यम वर्ग परिवारों की अलग और 60प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की अलग अर्थव्यवस्था में इनके अतिरिक्त राजनीति जनित अनेकानेक अर्थव्यवस्थाएं। (सत्तधारी दल की अलग, विपक्ष, वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमपंथी, दलित, पिछड़े वर्ग और सवर्ण गरीबों की अलग। जब सत्ताधारी दल विपक्ष में आ जाये और विपक्षी दल सत्ताधारी बन जाये तो उनकी अपनी अर्थव्यवस्था अलग।)

अभी कुछ दिनों पूर्व भारतीय योजना आयोग एवं गरीबी रेखा की सीमा निर्धारित करने पर हुई चर्चा मीडिया में खूब छा रही थी। योजना आयोग के अनुसार 578 रुपया प्रति माह, 7000 रूपये प्रति वर्ष, लगभग 19-20 रूपये प्रतिदिन आय अर्जित करनेवाला व्यक्ति गरीबों की श्रेणी में आता है। गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों (बीपीएल) की श्रेणी में नहीं आयेगा। आयोग के अनुसार 570 रूपये में से 31 रूपये किराया व आवागमन, 18 रूपये शिक्षा, 25 रूपये दवाइयों तथा 36.50 रूपये साग-सब्जी एवं शेष 467.50 रूपये राशन, दूध, चाय इत्यादि पर एक माह के व्यय के लिए पर्याप्त है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तो यह सीमा 15 रूपये प्रतिदिन, 5475 रूपये प्रतिवर्ष मानी गयी है। इससे कम आय प्राप्त करनेवाले ही गरीबी रेखा के नीचे माने जायेंगे तथा इससे अधिक आय वाले बीपीएल योजना के अंतर्गत दिये जानेवाले लोगों के दायरे में नहीं आयेंगे। इसका विरोध करने लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा राय, हर्ष मंदर व जीन ड्रेज ने एक चम्मच दूध, 25 ग्राम दाल, आधी स्लाइस ब्रेड, थोड़ा-सा वाशिंग पाउडर तथा फटे कुर्ते का एक टुकड़ा के पैकेट बनाकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिहं अहलूवालिया को भेंट दिया कि श्रीमंत भारत सरकार 20 रुपया प्रतिदिन आय में इससे अधिक कुछ नहीं खरीदा जा सकता है। देश की 77 फीसदी जनसंख्या को यह 20 रूपये प्रतिदिन की दैनिक आय (योजना आयोग के अनुसार 37 प्रतिशत) भी उपलब्ध नहीं है।

विश्व बैंक द्वारा हाल ही में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि विश्व के सभी देशों को मिलकर औसतन गरीबी रेखा 1.45 डालर (रूपये लगभग 65) है और भारत की 29% जन संख्या इस गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक शोध के अंतर्गत विभिन्न मानकों को लेकर तैयार किये गए बहुमुखी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के विश्व औसत से भारत की कुल जनसंख्या 1123 मिलियन में से से 645 मिलियन जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रह रही है। यह संख्या विश्व के सबसे गरीब अफ्रीकी देशों की कुल 410 मिलियन जनसंख्या से भी 150% (डेढ़ गुना) से भी अधिक है।

इस प्रतिदिन/ प्रतिव्यक्ति आय को अब दूसरी ओर से भी देखें। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार (मई 2010) भारत में प्रति व्यक्ति/ प्रतिवर्ष औसतन (सी.एस.ओ.) के अनुसार (2009-10) में यह रूपये 46492 आंंकी गयी। यदि दोनों का औसत लिया जाय तो लगभग रूपये 45400 की प्रतिव्यक्ति/ प्रतिदिन आय (45,400/365 दिन) लगभग 124 रुपए से अधिक होनी चाहिए। तो फिर ऐसा क्या है कि देश की 77% और यदि योजना आयोग का तेन्दुलकर समिति के आकलन 37% प्रतिशत लेकर औसत लगाया जाय तो (77%-37%) लगभग 60% जनसंख्या 20रुपए प्रतिदिन/ प्रति व्यक्ति आय से भी कम पर गुजारा करते हुए गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) रह रही है। प्रतिव्यक्ति/ वार्षिक का निर्धारण किसी वर्ष में कुल घरेलू उत्पाद का कुल मूल्य को वर्ष के मध्य में औसत जनसंख्या से भाग देने पर होती है।

अब जरा इस अंतरविरोध को समझने के लिए दूसरी ओर भी नजर डालें। देश के सर्वाधिक धनी कार्पोरेट घरानों के प्रमुखों को लगभग 6 से 15 करोड़ रूपए का वार्षिक वेतन (केवल वेतन) प्राप्त होता है। 15 करोड़ रूपये के सर्वाधिक वेतन के साथ मुकेश अम्बानी शीर्ष स्तर पर हैं। उनके अतिरिक्त 12 करोड़ से अधिक वेतन पाने वाले 30 उद्योगपति हैं। इसमें अन्य शेयरों से प्राप्त डिविडेंड या अन्य आय सम्मिलित नहीं है। इनकी समस्त सम्पत्ति आंकी जाए तो विश्व के सर्वाधिक धनी बिल गेट (40 बिलियन डालर) के साथ मुकेश (19.5 बिलियन डालर) के साथ क्रमश: 7वीं, 8वीं तथा 34वीं पायदान पर हैं। इतनी बड़ी सम्पत्ति के व्यवसायिक उपयोग से प्राप्त होने वाली वार्षिक आय का अन्दाज आसानी से लगाया जा सकता है। फिर भी यह लोग देश के सर्वाधिक आयकर दाताओं में शामिल नहीं है। सर्वाधिक आयकर देने वालों में मेक्स इंडिया के अनलजीत सिंह (2010-11) 99.7 करोड़ रूपए तथा वोडाफोन के आसिन घोष 75.4 करोड़ रुपए, पहली और दूसरी पायदान पर हैं। अर्थात् इनकी वार्षिक आय (आय पर अधिकतम 30% दर से आयकर भुगतान के आधार पर) क्रमश: 330 करोड़ तथा 250 करोड़, अर्थात मासिक आय क्रमश: 27.5 करोड़ रूपए तथा 20 करोड़ एवं प्रतिदिन क्रमश: लगभग 90 लाख रूपये तथा 66 लाख रूपए होगी। केवल उद्योगपति ही नहीं। अन्य क्षेत्रों के धुरधंरों को भी देखिए। फिल्म कलाकार शाहरूख खान रूपये 34 करोड़ आयकर (अनु. आय 110 करोड़/10 करोड़ मासिक/33 लाख रु. प्रति दिन), सचिन तेंदुलकर रूपये 9 करोड़ आयकर (अनुमानित आय 30 करोड़ वार्षिक/9 लाख प्रतिदिन) के साथ क्रमश: 13 वीं तथा 81 पायदान पर हैं। राजनीति के अर्थशास्त्र की धुरंधर सुश्री मायावती गत वर्ष 26 करोड़ आयकर देकर 20वीं पायदान (आय अनुसार 85 करोड़ रूपये-सभी जन्मदिन पर प्राप्त उपहार) पर हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि करुणानिधि परिवार और उनके सहयोगी केंद्रीय मंत्री यदि 2जी स्पेक्ट्रम में मिली रकम को अपने जन्मदिन पर समर्थकों से मिले उपहार घोषित कर आयकर दे देते तो आज तिहाड़ की हवा नहीं खाते। हो सकता है कि भविष्य में करुणानिधि एवं जयललिता या झारखंड के मुंडा जैसे लोग मायावती के शिष्य बन जाएंगे। हसन अली पर 75,000 करोड़ रूपए का आय कर बकाया देय है। वित्त मंत्रालय के रेवन्यू इंटेलीजेन्स की रिपोर्ट के अनुसार मात्र 2010-11 में लगभग 5700 करोड़ रू. की कर चोरी किये जाने का अनुमान है। अर्थात लगभग 2 लाख 60 हजार करोड़ की अघोषित आय।

जाहिर है कि उक्त सबका कोई हिस्सा 20 रुपये प्रतिदिन/ प्रति व्यक्ति से कम आय वाले व्यक्ति/ प्रतिवर्ष आय का आंकलन करते हैं तो महज कागजी आंकड़े के तौर पर वह 124 रूपये प्रतिदिन आय का भागीदार बन जाता है और अंबानी, मित्तल, शाहरूख खान, तेंदुलकर, हसन अली जैसे बड़े-बड़े आदमियों की बराबरी के सुख (?) का अहसास कर ही सकता है। वास्तविकता यह है कि यदि हमारे देश में लगभग 60% जनसंख्या मात्र 7000/‡ से कम आय पर गरीबी रेखा से नीचे रह रही है तो मात्र 0.5 (लगभग 50 लाख व्यक्ति) 10,00,000/- (एक करोड़ रूपये) वार्षिक प्रति व्यक्ति आय के औसत के अंतर्गत ऐशो आराम, विलासिता की जिंदगी गुजार रही है।

सरकार की आर्थिक नीतियां इस विषमता को बढ़ावा दे रही है। कार्पोरेट घरानों के लिए तमाम उत्पादनों पर एक्साइज ड्यूटी में कटौती, आयकर पर सरचार्ज की दरों पर छूट, जिससे कि विकास दर में कमी न आए। दूसरी ओर केरोसिन और रसोई-गैस की सब्सिड़ी में कटौती तथा पेट्रोल व डीजल के दामों में वृद्धि आम उपभोक्ताओं के उपयोग वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, किसानों की खाद्य पर सब्सिड़ी में कटौती, पानी मंहगा, बीज मंहगा और बैंको का ऋण मंहगा। नतीजा आए दिन बैंक कर्जों के समय से न चुका पाने की हालत में बैंकों द्वारा खेती की जमीन, हल, बैल, घास फूस की टपरियां जब्त। मजबूर होकर किसानों द्वारा बढ़ती आत्म हत्याएं। 2011 के पहले 5 महीनों में (जनवरी- मई 2011) में देश के सर्वाधिक पिछड़े भू‡भागों में से एक बुंदेलखंड क्षेत्र में 519 किसान बैंक कर्ज की अदायगी न करने के कारण आत्म हत्याएं कर चुके हैं। छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश, विदर्भ, तेलंगाना आदि पिछड़े क्षेत्रों में कमोबेश यही स्थिति है। बैंकों के मैनुअल में किसानों के ब्याज में या समयावधि में छूट देने का कोई प्रावधान नहीं है यद्यपि विजय माल्या जैसे उद्योगपति का बैंक आफ इंडिया की डिफाल्टर सूची में सबसे अधिक रू. 5000 करोड़ का बकाया होने पर भी सभी सरकारी व गैर सरकारी बैंक उन्हें और ऋण देने के लिए तत्पर रहते हैं।

अर्थशास्त्र के धुरंधर विद्वान हमारे प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष यह तो समझ ही सकते हैं कि विकास दर तथा महंगाई दर दोनों में एक साथ तेजी से वृद्धि नहीं हो सकती। आम उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में अनियंत्रित वृद्धि आम जनता (60% से 95%) की क्रयशक्ति कम करेगी तो उत्पादन की मांग भी कम हो जाएगी, रोजगार कम हो जाएगा तथा विकास दर नीचे आने लगेगी। हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गर्वनर श्री सुब्बाराव ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि यदि उपभोक्ता महंगाई दर बढ़ाने की यही स्थिति रही तो अर्थव्यवस्था स्थिरता की स्थिति में पहुंच सकती है।

लगभग 2 साल पहले ही अमेरिका और यूरोप के देशों से प्रारंभ हुए वैश्विक मंदी जैसी स्थिति में हमें सावधान रहने की जरूरत है। अमीर अर्थव्यवस्था- गरीब अर्थव्यवस्था जैसी दो मुहें केंचुआ की तरह है। उसमें स्पन्दन तो होता है पर आगे नहीं बढ़ता और चक्राकार स्थिति में एक मुंह से दूसरे मुंह को निगलने लगता है। हमारी मंहगाई हमारी विकास दर को क्रमश: निगलने की स्थिति में आती जा रही है।

समय आ गया है कि आय के न्यायोचित बंटवारे के लिए आर्थिक विषमताओं को न्यूनतम करते हुए क्रमश: दूर किया जाये। जिस प्रकार से गरीबी रेखा तथा गरीबी रेखा से नीचे को चिन्हित किया जाता है उसी प्रकार सम्पन्नता रेखा तथा सम्पन्नता रेखा से ऊपर को भी निर्धारित किया जाना आवश्यक है। मध्यमवर्गीय आय वर्ग के लोगों द्वारा शेयर मार्केट के निवेश, सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं अरबों रूपयों के ऋण, अघोषित आय को हवाला के माध्यम से बाहर भेज कर तथा फिर अपनी ही कंपनियों में प्रत्यक्ष विदेशी विनियोजन कराकर भ्रष्ट सरकारों, मंत्रियों तथा अधिकारियों को रिश्वत देकर सुविधाजनक आर्थिक, वित्तीय एवं मौद्रिक नीतियों तथा इन सबसे अर्जित आय की एक उच्चतम सीमा होनी आवश्यक है। एक ही अर्थव्यवस्था में एक ओर 20 प्रतिदिन से कम आय वाली 60% और दूसरी लगभग 3 लाख रूपये से अधिक प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आय वाली 0.5% जनसंख्या तथा बीच में पिसता हुआ मध्यमवर्ग। एक ही अर्थव्यवस्था के अंदर इतनी अर्थव्यवस्थाएं चलाते रहने का कोई औचित्य नहीं है। अत: बीपीएल की तरह एपीएल की भी गणना की जाय तथा निर्धारित एपीएल से अधिक प्राप्त आय को उपयुक्त आर्थिक एवं वित्तीय नीतियों तथा नियमों को निर्धारित कर उसे सार्वजनिक आय में सम्मिलित किया जाय।

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