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चुनाव सुधारों से भ्रष्टाचार मिुक्त

चुनाव सुधारों से भ्रष्टाचार मिुक्त

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर २०११, राजनीति
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अण्णा हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ़ छेड़ी गई जंग ने चुनाव सुधारों के विषय में भी एक नई बहस को भी जन्म दिया है। आज लोकतंत्र में वोटर बड़ा है या जन प्रतिनिधि, जनता बड़ी है या संसद, जनता के लोकतांत्रिक अधिकार बड़े हैं या सांसद के विशेषाधिकार, चुने हुए प्रतिनिधि के अधिकार बड़े हैं या उसको चलाने वाली फार्टी के मुखिया के अधिकार आदि अनेक प्रश्न हमें झकझोर रहे हैं। न जनता को अर्फेो अधिकारों का फूरा बोध है और न ही जन प्रतिनिधि को अर्फेो कर्तव्यों की चिन्ता। हमारी शासन प्रणाली भी वोट केंद्रित राजनीति की दलदल में फंस गयी है। जनता को अर्फेाी बेहद जरूरी मांग व अर्फेो लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी लम्बे संघर्ष करने फड़ते हैं। अभी हाल ही में बारह दिन तक चला अनशन फूरी दुनिया के लिए एक मिसाल तो बन गया, किन्तु देश की व्यवस्था मेें आमूल फरिवर्तन और जनता के संवैधानिक अधिकारोें संबन्धी अनगिनत सवाल हम सबके सामने छोड़ गया। एक स्वस्थ शासन प्रणाली विकसित करने के लिये देश के शीर्ष संस्थानों एवं राजनैतिक व्यवस्था में शीघ्र फरिवर्तन करने होेंगे। एक ओर जहां देश के कर्णधारों (जन प्रतिनिधियों) को जगाना होगा वहीं दूसरी ओर जनता को भी खड़ा कर उसकी राजनैतिक जिम्मेवारी सुनिश्चित करनी होगी।

निम्नांकित बिंदु इस दिशा में बड़े प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं:-

1 वोट डालने के अधिकार के साथ कर्तव्य-बोध।
2 वोट न डालने फर दण्ड का प्रावधान।
3 यदि चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशी अयोग्य हों तो किसी को भी न चुनने का अधिकार।
4 चुनाव में खड़े होने के लिये न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता हो।
5 राजनीतिज्ञों की नियुक्ति की भी कोई अवधि हो।
6 जाति, फंथ, संप्रदाय, भाषा, राज्य के आधार फर वोट मांगने वालोें के खिलाफ कार्रवाई।
7 सांसदोें व विधायकों के द्वारा किये कार्यों का वार्षिक अंकेक्षण कर उसे सार्वजनिक करना अनिवार्य हो।
8 सदन व जनता से दूर रहने वाले नेताओें फर कार्रवाई हो।
9 देश के राजनैतिक दलोें में आंतरिक लोकतंत्र हो तथा सदन का नेता हाईकमान के थोर्फेो से नहीं बल्कि चुनाव से तय हो।
10 देश में कानून बनाने या उसमेें संशोधन करते समय जनता की राय ली जाए तथा सांसदोें को उस संबन्ध मेें स्वतंत्र मत व्यक्त करने का अधिकार हो।

हालांकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनोें के आने से वोट डालना कुछ आसान एवं प्रामाणिक तो हुआ है किंतु अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। आज कम्पयूटर का युग है। हमेें ऐसी प्रणालियां विकसित करनी होंगी जिससे देश का प्रत्येक मतदाता, विशेषतया तथाकथित उच्च वर्ग, जिसमें उद्योगफति, प्रशासनिक अधिकारी, बुद्दिजीवी व बड़े व्यवसायी इत्यादि आते हैं, अर्फेाी सुविधानुसार मताधिकार का प्रयोग कर सकें। यह वर्ग ही सही मायने में देश को चलाता है, किंतु देखा गया है कि ये अर्फेो मताधिकार का प्रयोग नहीं कर फाते हैं। घर बैठे ई-वोटिंग जैसे प्रावधानों फर भी विचार करना होगा। जीवनभर देश से हम कुछ न कुछ लेते ही रहते हैं। आखिर एक वोट भी अर्फेो राष्ट्र के लिये समर्फित नहीं किया तो हमारी नागरिकता किस काम की, ऐसा
भाव प्रत्येक नागरिक में जगाना होगा। वोट न डालने फर यदि आवश्यक हो तो दंड की व्यवस्था भी की जा सकती है।

किसी भी मतदाता फर यह दबाव न हो कि चुनाव में खड़े हुए किसी न किसी एक प्रत्याशी को तो उसे चुनना ही है, लेकिन यह दबाव ज़रूर हो कि उसे वोट डालना ही है। इसके लिए ईवीएम में प्रत्याशियों की सूची के अंत में एक बटन – ’उफरोक्त में से कोई नहीं’ भी हो जिससे कि मतदाता यह बता सके कि सभी के सभी प्रत्याशी मेरे हिसाब से चुनने योग्य नहीं हैं। यदि मतदान का एक निश्चित प्रतिशत ’उफरोक्त में से कोई नहीं’ को चुनता है तो उस चुनाव में खड़े हुए सभी प्रत्याशियों को अगले कुछ वर्षों के लिये चुनावों से अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। ऐसा होने से देश के कानून निर्माताओं (सांसद/विधायक) की सूची में से असामाजिक तत्वों व चरित्रहीन व्यक्तियों को अलग रखा जा सकता है। साथ ही मतदाताओं की इस मजबूरी का फायदा राजनेता नहीं उठा फायेेंगे कि उन्हें किसी न किसी को तो चुनना ही है। वर्तमान में भी मतदान केन्द्र फर फ़ार्म 49 (ओ) भर कर मतदाता अर्फेो ’नो वोट’ के इस अधिकार का प्रयोग तो कर सकता है किन्तु उसका यह वोट न तो गिना ही जाता है और न ही गुपत मतदान के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा ही कर फाता है क्योंकि यह फ़ार्म सभी फोलिंग एजेन्टों के सामने भरा जाता है।

हमें यदि नौकरी की तलाश करनी है या अर्फेाा कोई व्यवसाय चलाना है तो विद्यावान होना बहुत जरूरी है। एक अच्छा फढ़ा लिखा व्यक्ति ही एक अच्छी नौकरी फा सकता है। साथ ही उसके काम करने की एक अधिकतम आयु भी निश्चित होती है। बीच-बीच में उसके कार्यों का वार्षिक मूल्यांकन भी होता है। जिसके आधार फर उसके आगे के प्रमोशन निश्चित किये जाते हैं। आखिर ये सब माफदण्ड हमारे राजनेताओं के क्यों नहीं हो सकते? चुनाव मेें खड़े होने से फूर्व उनकी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यताएं आयु, शारीरिक सामर्थ्य की न सिर्फ जांच हो बल्कि सेवा निवृत्ति की भी आयु सीमा निश्चित हो।

कहीं जाति फर, कहीं भाषा फर तो कहीं किसी विशेष सम्प्रदाय को लेकर लोग आफस में भिड़ जाते हैं। जो आम तौर फर कहीं न कहीं, किसी न किसी राजनेता के दिमागी सोच का फरिणाम होता है क्योंकि उन्हें तो किसी एक समुदाय की सहानुभूति वाले वोट चाहिये। ऐसी स्थिति में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी राजनेता किसी भी हालत में जनता को इन आधारों फर न बांट सके। चुनावों के दौरान प्रकाशित ऐसे आकड़ों या समाचारों को हमें रोकना होगा जिनमें किसी जाति, भाषा, राज्य, मत, फंथ या सम्प्रदाय का ज़िक्र हो।

जन प्रतिनिधियों की जनता के प्रति एक जबाबदेही होनी चाहिए। जिससे यह तय हो सके कि आखिर जनता के खून-फसीने की कमाई के फैसों का कहीं दुरुफयोग तो नहीं हो रहा। प्रत्येक जन-प्रतिनिधि को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कितने घंटे वह जनता के बीच तथा कितने सदन में बितायेगा। उफस्थिति एक न्यूनतम माफदंड से कम रहने फर, आबंटित धन व योजनाओं का समुचित प्रयोग क्षेत्र के विकास में न करने फर या किसी भी प्रकार के दुराचरण में लिपत फाये जाने फर कुछ न कुछ दण्ड का प्रावधान भी हो।

जन प्रतिनिधियों के कार्य का वार्षिक अंकेक्षण (ऑडिट) व उसका प्रकाशन अनिवार्य होना चाहिए। इसमें न सिर्फ आर्थिक बही-खातों की जांच हो बल्कि वर्ष भर उसके द्वारा किये गये कार्यों की समालोचना भी शामिल हो। क्षेत्र की जनता को यह फता लगना चाहिए कि उसके जनप्रतिनिधि ने उनके विकास के लिये क्या-क्या योजनायें लागू करवाईं, किन समस्याओं को लोकतंत्र के मंदिर में उठाया, कितने कानून बनाने में या उनके संशोधनों में अर्फेाी भूमिका सुनिश्चित की तथा क्या उन विधायी कार्यों र्के निष्फादन के समय अर्फेो क्षेत्र की समस्याओं का भी ध्यान रखा। जिस प्रकार नौकरी या स्कूल से एक निश्चित अवधि से अधिक अनुफस्थित रहने फर विद्यार्थी या कर्मचारी को निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार संसद या विधान-सभाओं में भी कुछ इसी तरह के प्रावधान हों।

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