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परम पूजनीय सरसंघचालक जी की नजर में – ‘काका जी’ खंडेलवाल

परम पूजनीय सरसंघचालक जी की नजर में – ‘काका जी’ खंडेलवाल

by विजय मराठे
in अगस्त-सप्ताह एक, विशेष
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अकोला के संघचालक रहे श्री शंकरलाल भिखमचंद खंडेलवाल उपाख्य ‘काका जी’ पूरी तरह संघमय हो गए थे। उन्होंने सदैव संघ जीया है। वे स्वयंसेवकों के वास्तव में ‘बुजुर्ग अभिभावक’ ही थे। लकवे से पीड़ित होने के बावजूद उनका संघ-कार्य अविरत चलता रहा।

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥

विदुर नीति का यह श्लोक कहता है कि दिन भर ऐसा काम करें जिससे रात्रि में शांत निद्रा आए। इसी प्रकार जीवन भर ऐसे काम करें जिससे मृत्यु के बाद सुख मिले, सद्गति प्राप्त हो।

ज्ञान – कर्म – भक्ति व्रत का आचरण करने वाले शंकरलाल भिखमचंद खंडेलवाल, जो समाज में ’काका जी’ के नाम से जाने जाते थे, ने अपना पूरा जीवन इसी प्रकार व्यतीत किया।

अकोला (महाराष्ट्र) में जनसंघ का काम करने वाले काका जी का संघ कार्यालय में भी आना जाना था। माननीय मोहन जी जब अकोला के महाविद्यालय में पढ़ते थे तब वह भी संघ कार्यालय में आते जाते थे एवं वहीं उनका जो प्रथम परिचय काका जी से हुआ। वह आगे चलकर प्रगाढ़ हुआ। बाद में काका जी अकोला के संघचालक बने। शिक्षा पूर्ण होने के बाद माननीय मोहन जी भी प्रचारक बने और संघ द्वारा उन्हें अकोला भेजा गया।

संघचालक याने क्या? संघचालक अर्थात स्वयंसेवकों का पालक। संघचालक बनने के बाद काका जी ने इस बात का अक्षरश: पालन किया। नगर कार्यकारिणी के कार्यकर्ताओं के घरों में कैसी स्थिति है? कार्यकर्ता का व्यवहार कैसा है? वर्तमान परिस्थिति कैसी है? इन सब बातों की पूरी पूरी जानकारी उन्हें रहती थी। वे स्वत: सब से मिलकर जानकारी प्राप्त करते थे। अकोला से जो भी कार्यकर्ता प्रचारक निकले, उन सब के घर वर्ष में दो बार जाकर वे पूछताछ करते थे। दिवाली के दिनों में उनके परिवारों को अपने घर नाश्ते के लिए ले जाते थे। लकवा ग्रस्त होने के बाद भी ऑटो रिक्शा से जाते थे। अक्षरशः ’एक बुजुर्ग पालक’ की संघ चालक की भूमिका का उन्होंने जीवन भर निर्वाह किया। अलग-अलग शाखाओं में और कार्यकर्ताओं के यहां नियमित रूप से जाना, उनकी चिंता करना यह काम उन्होंने सतत किया। उन्होंने सदैव संघ जीया है। स्वयंसेवकों को शंकरलाल भिखमचंद खंडेलवाल उपाख्य ‘काका जी’ उनके सच्चे अभिभावक लगते थे।

काका जी की संघ में अटूट श्रद्धा थी। जिसे संघ भक्ति कहते हैं, ऐसी भक्ति उनके पास थी। सभी ने वह भक्ति देखी। ऐसे जेष्ठ – श्रेष्ठ कार्यकर्ता की प्रेरणा से ही नित नए कार्यकर्ता वैसे ही तैयार होते हैं। उन्हें अलग से प्रशिक्षण नहीं देना होता। संघ का काम कैसे करना है वह इस प्रकार के जेष्ठ – श्रेष्ठ लोगों की ओर देखकर सीखता है। काका जी भक्ति से काम करते थे।

ज्ञान – कर्म – भक्ति इन तीनों का संयोग चाहिए ऐसा कहते हैं वैसा ही था। कुशलता एवं व्यावहारिकता रखते हुए भी, प्रेम – आत्मीयता – भक्ति का उनका व्यवहार होता था। उस समय में काका जी अकोला में संघ कार्य का एक प्रमुख आधार थे।
उन्होंने स्वदेशी का सदा पालन किया। अपना व्यवसाय भी ईमानदारी से किया। व्यवसाय में उनके साथ काम करने वाले सभी कर्मचारियों से उनके पारिवारिक संबंध थे, इसलिए उनका व्यवसाय भी सफलतापूर्वक एक परिवार की तरह ही चलता रहा है। यही कारण था कि आपातकाल (सन 1975 से 1977) में 19 महीने जेल में रहने के बावजूद भी उनके व्यापार को कोई नुकसान नहीं हुआ।

काका जी ने एक बार जिसे अपना मान लिया, और संघ का स्वयंसेवक तो हमेशा उनका अपना ही होता था, तो उसकी कितनी चिंता करना? माननीय मोहन जी जब प्रचारक होकर अकोला आए तब काका जी उन्हें अपने घर ले गए। तब वे जय हिंद चौक में अपने पुराने घर में रहते थे। उनके पुत्र गोपाल जी उस समय 10वीं या 11वीं में थे। काका जी माननीय मोहन जी को भोजन के समय घर ले गए। उन्हें और गोपाल जी को पास बिठाया और उनके सामने काकी जी को बताया, ये अब प्रचारक हैं, भोजन के लिए हमारे यहां आएंगे। उस समय के वहां के संघ कार्यवाह श्री मुकुटराव राजूरकर ने काका जी से बात कर यह व्यवस्था की थी। माननीय मोहन जी की 1 माह के लिए काका जी के यहां व्यवस्था थी, परंतु काका जी ने घर में यह नहीं बताया कि ये 1 महीने यहां भोजन के लिए आएंगे। यह है संघ का अनुशासन। काका जी ने उनका घर में परिचय करा दिया और उसके बाद गोपाल जी एवं माननीय मोहन जी रोज ही चौके में बैठकर गरमागरम भोजन किया करते थे। उस समय व्यवहार में कृत्रिमता नहीं थी वरन अपनापन था। हम कुछ विशेष कर रहे हैं ऐसा कोई भाव नहीं था। बिल्कुल घर जैसा व्यवहार होने के बावजूद प्रचारक के सम्मान की चिंता भी की जाती थी। सम्मान वगैरह की अपेक्षा मोहन जी को भले ही ना हो, फिर भी काका जी ने उसका सम्मान किया था।

दिनांक 26 जून 75 को देश में आपातकाल लागू हुआ एवं 3 जुलाई को संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। परंतु संघ कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी 28 जून से ही प्रारंभ हो गई थी। अकोला में काका जी, जवाहर लाल जी लुंकड, मांगीलाल जी इत्यादि कार्यकर्ता जेल भेज दिए गए। इन सब को इसकी कल्पना थी ही एवं सभी ने अपने – अपने घरों में वैसा बता भी दिया था। फिर भी गिरफ्तारी के बाद कुछ परिवारों में थोड़ी घबराहट फैली। परंतु काका जी के घर में काका जी की पत्नी एकदम शांत थी। उन्हें चिंता नहीं थी, ऐसा नहीं था परंतु उसे उन्होंने लोगों के सामने प्रकट नहीं होने दिया। परिवार के मुखिया की अनुपस्थिति में जवाबदारी सह-प्रमुख पर आती है, वैसे ही काकी जी पर आई। उन्होंने उसका व्यवस्थित निर्वहन किया। वे किसी के भी सामने हताश नहीं दिखी। इससे उलट उनसे मिलने वाले उनसे शक्ति ही ग्रहण किया करते थे। सभी ओर हताशा का वातावरण होते हुए भी कुछ घरों में जाकर आने पर हिम्मत बढ़ती है, ऐसे घरों में एक घर काका जी का था। वहां होकर आने के बाद, अन्य घरों में जाने की मानसिक शक्ति कार्यकर्ताओं को प्राप्त होती थी।

अकोला में अर्बन सहकारी बैंक एवं भारत विद्यालय ये दो प्रकल्प संघ स्वयंसेवकों द्वारा संचालित थे। इसके कारण वहां संघ स्वयंसेवकों के दो गुट हो गए थे। परंतु काका जी ने न कभी किसी गुट का समर्थन किया न ही किसी के साथ पक्षपात किया। वे सभी से स्वयंसेवक के नाते मिलते एवं दोनों ही गुट उनका सम्मान करते थे।

काका जी का घर सब के स्वागत के लिए हमेशा खुला रहता था। संघ के कितने भी लोग आ जाएं उनकी पत्नी याने काकी जी सबका खानपान इत्यादि यथोचित सम्मान से करती थी। काकी जी याने ममता का मूर्तिमंत स्वरूप। माननीय मोहन जी को तो वे अपने बड़े पुत्र के समान मानती थी॥ गोपाल छोटा तो मोहन बड़ा ऐसा उनका व्यवहार था। उनका भोजन हुआ या नहीं इसका वे व्यक्तिगत ध्यान रखती थी। आए हुए प्रत्येक को वे भोजन का जबरदस्त आग्रह करती थी। पति – पत्नी दोनों संघ के ही रंग में रंग गए थे। अमीर – गरीब, अच्छा – बुरा यह विचार उनके मन में आता ही नहीं था। सबके साथ एक समान व्यवहार। घर में जाति-पांति का कोई भेदभाव नहीं। उस समय यह बहुत कठिन था। वर्तमान समय में भले ही यह सरल लगता हो परंतु उस समय जाति-पांति का बोलबाला बहुत ज्यादा था। ऐसे समय में किसी भी जाति का विचार न करते हुए सभी स्वयंसेवकों की पहुंच सीधे रसोई तक थी। यह सब सहजता से होता था। हम कुछ विशेष कर रहे हैं यह भाव कभी भी दिखाई नहीं पड़ा। संघ कार्यकर्ता की संघ के प्रति निष्ठा इसी से नजर आती है। इन सब बातों का संघ कोई लिखित प्रशिक्षण नहीं देता। संघ इसका प्रत्यक्ष रूप है। फिर काका जी का घर इसका अपवाद कैसे हो सकता है?

पहले काका जी, फिर गोपाल जी और अब मधुर जी इस तरह तीन पीढ़ियों का माननीय मोहन जी से संबंध है। पहले जैसे थे वैसे वे आज भी हैं। यही संघ की विशेषता है। संघ का संबंध केवल कार्यकर्ता से नहीं होता तो वह पूरे घर से होता है। यह संबंध मित्रता का, बंधुभाव का होता है। संघ का काम बढ़ रहा है याने क्या हो रहा है? अर्थात ऐसा जीवन जीने वाले परिवार बड़ी संख्या में और ज्यादा व्यापक क्षेत्र में तैयार हो रहे हैं। उनकी व्यापकता जितनी बढ़ती है उतना संघ कार्य भी बढ़ता है।

शंकराचार्य जी ने कहा है, ’मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः’ -ये तीन बातें मनुष्य को परमेश्वर की कृपा से मिलती हैं। जन्म लेने पर हमें मनुष्यत्व मिलता है, मुमुक्षत्व कब और कैसे मिलेगा, इसके विषय में कहा नहीं जा सकता, परंतु महापुरुषों का सत्संग संघ के माध्यम से मिलता है। इसका कारण याने काका जी जैसे व्यक्ति मिलते हैं। सभी महापुरुष प्रसिद्ध ही होते हैं, ऐसा नहीं है। परंतु संघ के कारण सदगुण संपन्न व्यक्ति मिलते हैं। परोपकारी जीवन बिताने के लिए आवश्यक निष्ठा, श्रद्धा मन में रखकर महापुरुषों को जीवन व्यतीत करते का अनुभव लेने का लाभ मिलता है। इसके कारण संघ में जो आता है, वह भाग्यवान है, यह कहने में कोई हर्ज नहीं है।

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