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प्रगतिशीलता ही हिंदुत्व का परमतत्व

प्रगतिशीलता ही हिंदुत्व का परमतत्व

by प्रवीण गुगनानी
in अगस्त-सप्ताह तिसरा, सामाजिक
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गणेशोत्सव का धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक व राष्ट्रीय योगदान भी रहा है। अब हमारा वर्तमान दायित्व है कि हम इस उत्सव को कोरोना महामारी के विरुद्ध एक शस्त्र की तरह उपयोग करें व हिंदुत्व के परम प्रयोगवादी, प्रगतिवादी व परम प्रासंगिक रहने के सारस्वत भाव की और अधिक प्राणप्रतिष्ठा करें।

ॐ गजाननं भूंतागणाधि सेवितम्, कपित्थजम्बू फलचारु भक्षणम्।
उमासुतम् शोक विनाश कारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्॥

इस महाआपदा कोरोना के कालखंड में स्वाभाविक ही है कि प्रथम पूज्य श्रीगणेश का जन्मदिवस अर्थात गणेशोत्सव का हमारा प्रिय उत्सव भी तनिक फीका-मद्धम ही जाएगा। किंतु श्री गणेश के भक्त ये भी जानते हैं कि भगवान गणेश इतने सरल, सहज व सह्रदय हैं कि वे लॉकडाऊन व अन्य प्रतिबंधों वाले इस दौर में भी बड़ी ही सहजता से हम सबके मध्य आ बिराजेंगे और हम पर कृपालु होकर हम सभी को आनंदप्रसाद भी देंगे। गणपति अर्थात गण के पति। गण अर्थात पवित्रक और पति अर्थात स्वामी अर्थात पवित्रकों के स्वामी; हम सभी को भी और इस कोरोना कालखंड को भी पवित्र व शुभस्व में बदल देने वाले देवता हैं एकदंत, विनायक, श्रीगणेश।

हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद या भादो मास की चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक चलने वाला यह सर्वप्रिय हिंदू उत्सव हमारे उत्सवों का राजा है व उत्सव ऋतु अर्थात देवशयनी से लेकर देवउठनी ग्यारस तक के उत्सवों की शृंखला का प्रारम्भिक प्रमुख उत्सव भी है। विशेषकर महाराष्ट्र व समूचे उत्तर भारत में मंगलमूर्ति गजानन से पूजे जाने वाले लंबोदर दक्षिण भारत मे कला शिरोमणि के नाम से पूजे जाते हैं।

महाराष्ट्र में सर्वप्रथम सातवाहन, राष्ट्रकूट व चालुक्य राजाओं द्वारा व बाद में पेशवाओं व शिवाजी महाराज द्वारा गणेशोत्सव को राजोत्सव के रूप में मनाया जाता था। वर्तमान कालखंड मे देखें तो इस तत्कालीन राजोत्सव को लोकोत्सव बनाने का कार्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया। महाराष्ट्र में इसके पूर्व भी गणेशोत्सव घर घर मनाया जाता था किंतु गुलामी की जंजीरों मे जकड़े हुए भारत के जनतंत्र को जागृत व चैतन्य करने हेतु लोकमान्य ने ही सर्वप्रथम गणेश स्थापना के दस दिवसीय उत्सव को घरों से निकालकर चौक चौबारों तक लाया व इसे सार्वजनिक व सामाजिक उत्सव का स्वरूप प्रदान किया और इस उत्सव को भारत का सर्वधर्म प्रिय सांस्कृतिक उत्सव बना दिया।

तिलक जी ने इस उत्सव के सार्वजनिक पंड़ालों से अंग्रेजों के विरुद्ध जागरण, चर्चा व योजना करने का कार्य प्रारंभ कराया व समूचे हिंदू समाज की भागीदारी स्वतंत्रता आंदोलन में निश्चित कराई। लोकमान्य तिलक ने स्वराज के ध्येय को इन गणेश पंड़ालों के माध्यम से ही राष्ट्रीय ध्येय बना दिया और अद्भुत समाज जागरण का कार्य किया। तिलक जी ने गणेशोत्सव का उपयोग न केवल राष्ट्रजागरण में किया बल्कि समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने हेतु भी इस उत्सव का समुचित उपयोग किया। भारत में सामाजिक समरसता का वातावरण आगे बढ़ाने में भी इस पुनीत अवसर व तिलक जी का अविस्मरणीय योगदान है। माना जाता है कि लोकमान्य प्रेरित इस गणेशोत्सव के लगभग 50 हजार पंडाल केवल महाराष्ट्र में ही लगते हैं व सम्पूर्ण भारत में लगभग तीन लाख पंड़ाल गणेश स्थापना हेतु लगते हैं। इस उत्सव से लगभग दो करोड़ मानव दिवस के रोजगार की उत्पत्ति होती है व अरबों रुपयों का कारोबार इस दस दिवसीय उत्सव में चलता है। दुख है कि इस वैश्विक महामारी के चलते इस बड़े उत्सव का अर्थतंत्र ठप ही पड़ा रहेगा।

कहा जाता है कि आधुनिक गणेशोत्सव की चर्चा हो तो वह बाल गंगाधर तिलक के बिना पूर्ण नहीं होती व वीर सावरकर व कवि गोविंद की चर्चा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। वीर सावरकर जी ने तिलक जी के ध्येय को आगे बढ़ाते हुए मित्रमेला नाम की एक संस्था बनाई थी जिसका प्रमुख कार्य था पोवाडे गाना। पोवाडा एक प्रकार के मराठी लोकगीत होता है। इस संस्था के पोवाडे गायन ने समूचे महाराष्ट्र विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र मे बड़ा ही उल्लेखनीय समाज जागरण किया व चहुंओर अंग्रेजों के विरुद्ध हल्ला बोल जैसी स्थिति का निर्माण कर दिया था। मित्रमेला के मंच पर कवि गोविंद के पोवाडे सुनने हेतु नगर के नगर उमड़ पड़ते थे।

तिलक प्रेरित सार्वजनिक गणेश पंडालों से अंग्रेज़ शासन भयभीत हो गया था व इस उत्सव हेतु विशेष प्रशासनिक व गुप्तचरी की योजना बनाने लगा था। अंग्रेजों की रोलेट समिति की रिपोर्ट में अंग्रेजों के इस भय का विस्तृत उल्लेख है। गणेशोत्सव के इन सार्वजनिक पंडालों में एकत्रित होने वाली बड़ी भारी भीड़ को लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, महामना मदनमोहन मालवीय, मौलिकचन्द्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे व सरोजिनी नायडू जैसे दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी संबोधित किया करते थे।

इस प्रकार हमारे गणेश उत्सव का एक विशिष्ट धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक व राष्ट्रीय योगदान रहा है। वर्तमान कालखंड में जबकि हमारे भारतवर्ष सहित समूचा विश्व कोरोना महामारी से पीड़ित है तब निश्चित तौर पर इस उत्सव का यानि इस उत्सव को मनाने वाले हम हिंदू बंधुओं का भी एक बड़ा भारी दायित्व बनता है कि हम इस उत्सव को कोरोना महामारी के विरुद्ध एक शस्त्र की तरह उपयोग करें व हिंदुत्व के परम प्रयोगवादी, प्रगतिवादी व परम प्रासंगिक रहने के सारस्वत भाव की और अधिक प्राणप्रतिष्ठा करें। यही लोकमान्य तिलक को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

स्वाभाविक ही है कि महाराष्ट्र के लगभग 50 हजार सार्वजनिक गणेश पंड़ाल व देश भर के लगभग तीन लाख पंड़ालों का खर्च अरबों रुपए का होता है व इससे हिंदू बंधुओं की एक बड़ी अर्थव्यवस्था लाभान्वित होती थी। अब इस वर्ष जबकि सामाजिक व राष्ट्रिय प्रतिबद्धता को हम धार्मिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर गणेश स्थापना अपने घरों में तो करेंगे किंतु सार्वजनिक पंड़ालों को सीमित कर देंगे तब निश्चित ही हमारी हिंदू अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर कुप्रभावित होगी। इस कठिन समय में हजारों मूर्तिकार परिवार, पंडाल व्यवसायी, साजसज्जा वाले, पंड़ित, पुरोहित, कथावाचक, भजन गायक, कलाकार अपनी रोजी-रोटी से वंचित हो जाएंगे। निश्चित ही इस कठिनतम समय में हिन्दुत्व की सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया की वैश्विक विचारधारा वाले हम हिंदू बंधु एक विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर सदा की तरह समूचे विश्व को एक नई राह दिखाएंगे ऐसा विश्वास है।
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प्रवीण गुगनानी

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