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गोरक्षा-आन्दोलन और वात्सल्य

गोरक्षा-आन्दोलन और वात्सल्य

by डॉ. रमानाथ त्रिपाठी
in कहानी, जनवरी -२०१२
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7 नवम्बर, सन् 1966 अजय का जन्मदिन था, हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक कृष्ण अष्टमी। हेम ने उसे नया सूट और अपने हाथ का बुना नीला स्वेटर पहनाया। वह बहुत ही प्यारा लग रहा था। हम बर्थडे नहीं मनाते, हम अंग्रेजियत के गुलाम थोड़े ही हैं। हम मनाते हैं जन्मदिन। हेम ने चौक पूरा, पाटे पर अजय को बैठाया। हेम ने मुझसे गणेश-पूजन कराया। अजय के माथे पर हल्दी-चावल का तिलक कर मैंने उसके गले में माला डाल दी, शुद्ध घी के दीप से आरती उतारी। हेम ने चांदी की डिबिया में बन्द सूत का मोटा धागा निकाला। मैंने हल्दी से पूजन कर उसमें दसवीं गांठ लगा दी। अजय ने अपने छोटे-छोटे हाथों से हमारे पैर छुए। मन वात्सल्य से भर उठा। जन्मदिन चिर मंगलमय हो। अब अजय अपनी मां के हाथ की बनी सुस्वादु खीर खा रहा थ।

आज ही गोरक्षा-समिति की ओर से संसद भवन पर जोरदार प्रदर्शन था। सारे देश में प्रदर्शन की धूम मच गयी थी। कई लाख प्रदर्शनकारी रात में ही दिल्ली आ गये थे, लाखों आने को थे। दिल्ली के बाहर चारों ओर हजारों सैनिक मशीन गनें लिये ट्रकों पर तैनात थे।

धामपुर से रमेश भी आ गये थे। अजय प्रदर्शन में जाने के लिए मचलने लगा। मैंने मना किया तो वह रुआंसा हो आया। रमेश बोले, ‘‘भैया, आप उसे जाने दीजिए। आप उसकी चिन्ता ने कीजिए। मैं उसका पूरा ध्यान रखूंगा।’’
‘‘ऐसी भयानक भीड़ में कहीं मारकाट हुई तो अनर्थ हो जाएगा।’’
‘‘पिछले वर्ष पांच लाख जनसंघियों ने कितना प्रभावी प्रदर्शन किया था। संसद भवन से लाल किले तक लाउड स्पीकर और पानी के नल लगे हुए थे। एक भी अप्रिय घटना नहीं हुई थी।’’

‘‘किन्तु, आज के प्रदर्शन में केवल जनसंघी ही तो नहीं हैं। इसमें कई पार्टियों के गोभक्त तथा धार्मिक संस्थाएं हैं। इनके मध्य यदि उपद्रवी तत्त्व घुस गये, तो उनकी पहचान कैसे होगी। पिछले साल के प्रदर्शन में सभी जनसंघी थे। वे संगठित हैं, उनके बीच यदि उपद्रवी तत्त्व घुस आते तो पकड़े जाते।’’
मैंने अजय को जाने दिया था। गो-रक्षा आन्दोलन से और कोई लाभ हुआ हो या नहीं, एक बात अवश्य थी कि आज देश में प्रथम बार हिन्दुत्व की प्रबल भावना जाग उठी थी। शायद गो-रक्षा के कर्णधार यही चाहते होंगे। इस आन्दोलन के द्वारा सनातनी, आर्यसमाजी, बौद्ध, जैन और सिख (विशेषत: नामधारी), कुछ मुसलमान और कुछ ईसाई एक मंच पर आ गये थे।

सांध्य-कालीन छात्रों ने बताया, संसद भवन के पास गोली चल गयी है, दर्जनों लोग मारे गये हैं। भयानक उपद्रव हुआ है। अजय के विषय में सोचकर मेरा दिल कांप उठा। मैं घर की ओर चल पड़ा। रिंग रोड पर ट्रक के ट्रक भागते आ रहे थे। इनमें छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लए महिलाएं ठसाठस भरी हुई थीं, उनके मुंह मुरझाये हुए थे। बच्चे चीख रहे थे। ट्रकों पर गो-रक्षा समिति के नामपटों के साथ दीपक वाले जनसंघी झण्डे भी लगे हुए थे। कई मोटर साइकलें और कारें भी भागी आ रही थीं। सड़क पर बदहवास चलते लोगों के मुखों में शब्द थे – आग, लूट, गोलियां, तीन मील ऊंचा धुआं, आंसू गैस। तरह-तरह की बातें – संसद पर त्रिशूल-धारी संन्यासियों ने हमला कर दिया। लोग पटापट मर रहे हैं। क्रुद्ध भीड़ ने कनाट प्लेस की दूकानों पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी है। गोलियों की बौछार हो रही है…

मुझे माथे पर तिलक लगाये और नीला स्वेटर पहने अजय याद आने लगा। पता नहीं ये दोनों सुरक्षित लौट आये हैं या नहीं। हेम मुझसे लिपटकर बोली, ‘‘मेरा बच्चा कहां है?’’ वे फर्श पर लोट-पोट होकर सिर और हाथ-पैर पटककर चीख उठीं। उनकी आंखें लाल और सूजी हुई थीं। केश छिटके हुए थे। वे बिफरती शेरनी सी उठीं और मेरे दोनों कन्धे पकड़कर बोलीं, ‘‘लाओ मेरा बेटा। मेरा बच्चा कहां है, बताओ कहां है?’’

‘‘घबराओ नहीं। मैं तुम्हारा बच्चा लेकर ही लौटूंगा।’’ मैंने ड्रावर जोर से खींचकर जितने भी रुपये मिले जेब में ठूंस लिये। मुझे घर से बाहर निकलता देख लोगों ने घेर लिया। किसी ने कहा, ‘‘हरेक नाका पुलिस ने संभाल लिया है। मशीनगनों से गोलियों की बौछार हो रही है। हजारों लोगों को पकड़कर जेल में बन्द कर दिया गया है। दो लाख की भीड़ अभी भी सड़क के किनारे की इमारतों में छिपी है। बहत्तर घण्टे का कर्फ्यू लगा है। आप कहां जाएंगे, किधर से जाएंगे? इतना बड़ा कनाट प्लेस और सरकारी इमारतें, पता नहीं ये दोनों कहां होंगे। आप इधर से घुसे और वे उधर से चल पड़े। फिर आपको खोजा जाए और आप बंद मिले हवालात में। ऐसा भी हो सकता है कि पुलिस आप पर गोली चला दे।’’

दूसरे सज्जन बोले, ‘‘टैक्सी, आटो भी तो नहीं जा रहे हैं उधर।’’
मैंने जेब पर हाथ रखकर कहा, ‘‘चार सौ-पांच सौ रुपये लेकर तो जाएंगे।’’
‘‘हां, यदि उन्हें पुलिस से पकड़े जाने या टैक्सी के जला दिये जाने से सुख मिले तो।’’
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। लोग गर्म-गर्म अफवाहों को आपबीती बनाकर बहस में जुट गये। किसी ने कहा, ‘‘संन्यासियों ने पुलिस पर हमला कर दिया तब पुलिस ने गोली चलायी।’’
‘‘नहीं भाई साहब, संन्यासियों ने तो बाद में हमला किया है। पहले पुलिस ने गोली चलायी है। अटल बिहारी वाजपेयी भाषण दे रहे थे, तभी पुलिस ने लाउडस्पीकर के तार काट दिये। जनता ध्यान से सुन रही थी। तार न काटे जाते तो नेता लोग समझा-बुझा लेते।’’
‘‘पुलिस ने आंसू गैस का गोला मंच पर फेंका, इससे गड़बड़ मच गयी।’’
‘‘अटलजी को गोली लगी है।’’
‘‘कौन कहता है।’’
‘‘मैंने उन्हें गिरते देखा है।’’
‘‘और मैं उनकी बांह पकड़कर सुरक्षित पहुंचा आया हूं।’’

मेरा धैर्य समाप्त हो रहा था। मेरी सहायता करने के बजाय ये अपनी-अपनी दास्तान सुनाने में जुटे पड़े थे। मेरी घबराहट बढ़ रही थी। कुम्भ के मेले में भगदड़ मची थी तो सैकड़ों लोग कुचल गये थे। कुछ लोग भीड़ के रेले से बचने के लिए बिजली के खम्भों पर चढ़ गये थे। पांच लाख की भीड़ भागी होगी तो अजय और रमेश भी न दब गये हों। अथवा अजय बिछुड़कर अकेला रह गया हो, या गोली से भून दिया गया हो, या भीड़ ने उसे कुचल दिया हो ओर पड़ा हो बीच सड़क पर, या रमेश घायल पड़े हों और यह चाचा के पास बैठा रो रहा हो, या ये भूखे-प्यासे हवालात में न ठूृंस दिये गये हों। हो सकता है कि किसी इमारत में दुबके बैठे हों। दोनों भूखे होंगे, पीने को पानी भी तो न मिला होगा। हेम के शब्द याद आये, ‘‘मेरा बच्चा कहां है।’’ मैं और न सोच सका और पागलों-सा दौड़ पड़ा। भीड़ ने पीछा कर मुझे पकड़ लिया, ‘‘पागल हो गये हैं आप। कहां जा रहे हैं?’’

बगल वाले मकान से मोटर साइकिल पर सवार सरदार जी बाहर आकर खड़े हो गये। उनके किरायेदार और संघ के स्वयंसेवक श्री मदन गोपाल अरोड़ा भी वैस्पा लेकर निकले। मदन जी ने कहा, ‘‘त्रिपाठी जी, आप जरा परतीच्छा कर लीजिए। अगर आधे घंटे के भीतर बच्चा न आया तो हम और सरदार जी खोजने चलेंगे, फिर चाहे गोली से क्यों न उड़ा दिये जाएं।’’

मोटर साइकिल धड़धड़ा रही थी, सरदार जी एक पैर धरती पर टिकाये खड़े थे। उनका एक हाथ हैंडल पर और दूसरा दाढ़ी पर था। आंखों में एक चमक थी। मैंने विह्वाल और कृतज्ञ दृष्टि से उन्हें देखा। मदन जी स्कूटर खड़ा कर मेरे पास आये और मेरे वेंधे पर हाथ रखकर खड़े हो गये। सड़क की बत्तियां चली गयी थीं, फिर भी दिख रहा था कि उनकी एक बांह पर केसरिया पट्टी बंधी थी, जिस पर दीपक बना हुआ था। मुझे लगा कि मैं अकेला नहीं हूं।
गोल चक्कर के पास तेज रोशनी चमक उठी। एक तिपहिया धड़धड़ाता गाड़ी के पास आकर रुक गया। एक बच्चा उतर कर खड़ा हो गया। उसके साथ ही उतरे रमेश और उनके कालेज के साथी श्री श्याम बहादुर वर्मा, शोर हुआ, ‘आ गया, आ गया!’ आटो रिक्शा चला गया। सबने अजय को घेर लिया, ‘‘अजय बेटे, कहां थे अब तक?’’ अजय घबराया हुआ था। उसके नये स्वेटर में मिट्टी लगी थी। माथे पर हल्दी का तिलक फैल गया था। वह ठीक से बोल नहीं पा रहा था। मदन लाल जी अरोड़ा ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘बच्चा घबराया हुआ है, उसे मत छेड़िए। त्रिपाठी जी, उसे जल्द मां के पास पहुंचाइए।’’
सबकी उपस्थिति में हेम ने अजय पर चुम्बनों की बौछार शुरू कर दी। मानो बहुत देर से बिछुड़ी गाय बछड़े को चाट रही हो। अब हम घर के भीतर थे। हेम अजय को गोद में लिये बैठी थीं। मेरी आंखों में आंसू उमड़ रहे थे। आज मैंने अनुभव किया था, मैं किसी का बाप हूं और किसी का अग्रज भी।
श्याम बहादुर जी रमेश के ही कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक थे। दोनों संघ के कार्यकर्ता रहे हैं। ये धामपुर से ट्रक में आये थे। रमेश उन्हें छोड़कर अजय का जन्मदिन मनाने घर आ गये थे। जब कार्यक्रम में गड़बड़ी शुरू हुई तो रमेश अजय का ध्यान रखकर तुरन्त चल पड़े थे और कई किलोमीटर पैदल चलकर लाल किले तक आये थे। यहां ट्रक के पास श्याम जी मिल गये। कोई भी सवारी उपलब्ध नहीं थी। बड़ी कठिनाई से एक तिपहिया वाला मिला। दैवयोग से यह माडल टाउन का ही था। यह न मिला होता तो तीनों को पैदल चलकर आना पड़ता। अजय तो बुरी तरह थक जाता।

हेम ने अजय के जन्म दिन के अवसर पर विशेष व्यंजन बनाए थे। सबने निश्चिन्त होकर भोजन किया। प्रात:काल अखबार पढ़कर हम दु:खी और चकित हुए। अनेक लोग गोली से भून दिये गये थे। सैकड़ों घायल हुए थे और बहुतेरे हवालात में बंद थे।

गृह मंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा बेचारे ईमानदार नेता थे। उन्होंने अपने पद से तत्काल त्यागपत्र दे दिया था। वे बेशर्म नहीं थे। कार्टून छपा था, गो-माता दुलत्ती मार रही हैं और नन्दाजी गिरे पड़े हैं। कार्टून देखकर मैं थोड़ा हंस पड़ा था, किन्तु आंखें छलछला आयी थींइस अनुभव को लेकर मैंने कहानी लिखी थी, ‘गाय, बन्दूक और बच्चा।’ यह अंश भी मेरे उपन्यास ‘काली और धुआं’ में समाहित है।

 

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