अग्र-अग्रसेन-अग्रोहा की कुलदेवी माँ महालक्ष्मी

आदिकाल से ही मानव जीवन में धन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। धन जीवन का सर्वस्व नहीं तो बहुत कुछ अवश्य है। एक संस्कृत श्लोक के अनुसार जिसके पास धन है, वही कुलीन है, वही सम्पन्न और गुणवान है, क्योंकि सब गुण कंचन के आश्रित हैं। इसलिए सभी देवताओं में धन की अधिष्ठात्री देवी-महालक्ष्मी का प्रमुख स्थान है।

लक्ष्मी सृष्टि नियंता भगवान विष्णु की पत्नी हैं। वह क्षीरसागर शायिनी हैं। समुद्र से उत्पन्न इस सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ रत्न हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर भगवान का अवतार होता है, वे उनके साथ अवतरित होती हैं। वे जगादाधार शक्ति का साक्षात् रूप है। उनके रूप-ऐश्वर्य एवं स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है-

जिनकी कान्ति सुवर्ण वर्ण के समान प्रभायुक्त है और जिनका हिमालय के समान अत्यंत उज्ज्वल वर्ण के चार गजराज अपनी सूंड से अमृत कलश द्वारा अभिषेक कर रहे हैं, जो अपने चारों हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अभयमुद्रा और दो कमल धारण किये हुए हैं, जिनके मस्तक पर उज्ज्वल वर्ण का किरीट सुशोभित है, जिनके कटि प्रदेश पर कौशेय (रेशमी) वस्त्र सुशोभित हैं। कमल पर स्थित ऐसी भगवती लक्ष्मी की मैं वंदना करता हूँ।
उनकी उपासना से ऐश्वर्य, सौभाग्य, धन, पुत्रादि की प्राप्ति तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि होती है। वे ऋद्धि-सिद्धि प्रदायिनी है। उनके अवलोकन मात्र से सब प्रकार की सुख-शांति प्राप्त होती है। श्रीसूक्त में उनकी महिमा का गान करते हुए कहा गया है-

लक्ष्मी के दृष्टिमात्र से निर्गुण मनुष्यों में भी शील, विद्या, विनय, औदार्य, गांभीर्य, कान्ति आदि ऐसे समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य सम्पूर्ण विश्व का प्रेम तथा उसकी समृद्धि प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार का व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व के आदर तथा श्रद्धा का पात्र बन जाता है-

त्वया विलोकिता सद्य:शीलाधैर खिलैर्गुणै:।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यते पुरुषा निगुर्णा अपि॥

आर्य ग्रंथ उनकी दिव्य महिमा से परिपूर्ण हैं। उनके अनुसार वे सर्वाभरण भूषित कमल के आसन पर स्थित हो अपने कृपा कटाक्ष से भक्तों की सर्वविध मनोकामनाओं को पूर्ण करती हैं। उनकी उपासना अत्यन्त श्रेयस्वरूपा है तथा वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री तथा फल रूप में सम्पूर्ण सम्पत्तियों को प्रदान करने वाली हैं-

सर्वेश्वर्याधिदेवी सा सर्वसम्पत्फलप्रदा।
स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मी राजसु॥

इस प्रकार की सर्वगुणसम्पन्ना धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी अग्रवालों की कुलदेवी हैं। महाराजा अग्रसेन को अपने राज्य में जब-जब कठिनाई और विपदाओं का सामना करना पड़ा, उन्होंने महालक्ष्मी की उपासना की और उन्हें अपने इष्ट में सफलता प्राप्त हुई। एक बार जब उन्होंने अपने राज्य में अकाल पड़ने पर विजय प्राप्त करने हेतु हरिद्वार मे गंगा के तट पर माँ महालक्ष्मी की आराधना की तो लक्ष्मी जी ने साक्षात् अवतरित होकर महाराजा अग्रसेन को आशीर्वाद प्रदान किया-

हुई प्रसन्न मैं तुमसे, होंगे सफल सभी अरमान।
अग्रवंश के हो संस्थापक, देती मैं तुझको वरदान॥
अखिल भूमि यह तेरे कुल में, वैभव से पूरित होगी।
तेरे कुल में जाति-वर्ण के, नेता की सृष्टिहोगी॥
कुल के आदि स्वरूप मूल में, तेरा नाम विश्व जानेगा।
तेरे अग्रवंशी प्रजा का, तीन लोक में आदर होगा॥
तेरे भुजबल का प्रसार, सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त होगा।
युगों-युगों तक पूर्ण सिद्धि का, अग्रसेन अधिकारी होगा॥
मेरी पूजा तेरे कुल में, जब तक मन से बनी रहेगी।
तब तक तेरे अग्रवंश में, मेरी कृपा सर्वदा बनी रहेगी॥

महालक्ष्मी व्रत कथा के अनुसार कुल दैवी महालक्ष्मी ने कहा कि हे अग्र! भविष्य में यह अग्रकुल तेरे नाम से प्रतिष्ठित होगा और जब तक सूर्य-चन्द्रमा हैं, तब तक तुम्हारे कुल का अस्तित्व बना रहेगा। मैं तुम्हारे कुल की देवी के रूप में प्रतिष्ठित हो ऊँगी और जब तक तुम्हारे कुल में मेरी पूजा होती रहेगी, तुम्हारा कुल सब प्रकार के धनधान्य से सम्पन्न रहेगा।

कहते हैं, महालक्ष्मी की इस कृपा के कारण ही अग्र कुल धन-धान्य से सम्पन्न हैं और अग्रवाल लक्ष्मी को अपनी आराध्य कुलदेवी मानते हुए दीपावली को उसका पूजन करते हैं। महाराजा अग्रसेन ने भी इसलिए नगर के मध्य मार्ग में महालक्ष्मी का विशाल मन्दिर बनवाया था, जहाँ अहर्निश लक्ष्मीपूजन होता और यज्ञादि पवित्र कार्य चलते रहते थे।

इसलिए जब अग्रोहा का पाँचवे तीर्थधाम के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया गया तो अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने महाराजा अग्रसेन के साथ कुलदेवी महालक्ष्मी का भव्य मन्दिर बनाने का संकल्प लिया और उच्च कोटि के वास्तुविदों से उसके नवशे तैयार करा उसके निर्माण की नींव रखी गईं। अग्रोहा के मंदिर में स्थापित कमलासन पर स्थित चतुर्भुजी माँ महालक्ष्मी की यह प्रतिमा बड़ी ही भव्य है। उसके दोनों हाथों में कमल इस बात का परिचायक हैं कि व्यक्ति के पास चाहे कितना भी धन हो जाए, उसे कमलवत् अपने आपको असम्पृक्त रखना चाहिए। जो व्यक्ति उसमें लिप्त हो भोग विलास में रत हो जाता है उसकी समृद्धि का क्षय होने लगता है।

शेष दोनों हाथों में जो अभय और वर देने की मुद्रा में हैं, इस बात को प्रकट करते हैं कि व्यक्ति के सद्कार्यों के लिए अपने धनका सदुपयोग मुक्त हस्त से करना चाहिए और दोनों हाथों से दान देना चाहिए, क्योंकि लक्ष्मी उन्हीं से प्रसन्न होती है, जो अपनी समृद्धि का उपयोग दूसरों को अभय बनाने के लिए करते हैं। उसी से व्यक्ति के यश, पुण्य की वृद्धि होती है।

लक्ष्मी कमल के पुष्प पर स्थित है। उसके पृथ्वी की ओर फैले नाल इस ओर अंगित करते हैं कि संसार की सम्पूर्ण सम्पदा धरती के गर्भ में छिपी है और लक्ष्मी मैया उसे ही धन प्रदान करती है, जो धरती से विविध प्रकार के खनिजों, रत्नों, कृषि जन्य पदार्थों का दोहन करते हैं। ऐसे उद्यमी पुरुष ही लक्ष्मी को प्रिय लगते हैं और लक्ष्मी वहीं निवास करती है। इसलिए लक्ष्मी के उपासक होने के नाते अग्रवाल वैश्य अत्यन्त उद्यमी, लग्नशील एवं परिश्रमी होते हैं।

इस प्रकार लक्ष्मी जी की प्रतिमा अत्यन्त ही भव्यता लिये है। उससे अग्रवाल समाज की कर्मठता, उद्योगशीलता, दान देने की प्रवृत्ति, लोकहित की भावना का प्रकटीकरण होता है, इसलिए तो उनके यहाँ लक्ष्मी का वास माना गया है।

पूरे भारत में जब लक्ष्मीजी के मन्दिरों की संख्या नगण्य है, अग्रवालों के पाँचवे धाम अग्रोहा में स्थित इस महालक्ष्मी जी के मन्दिर का अत्यन्त महत्व है। आइए, हम भी माँ महालक्ष्मी जी की भक्ति एवं श्रद्धाभावना से वन्दना करते हुए इच्छित फल को प्राप्त करें।

नमस्ते सर्व देवानां वरदासि हरिप्रिये।
या गतिस्त्वप्रपन्नाना सा मे भूयात्वदर्चनात्॥

सम्पूर्ण लोकों की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रों वाली, भगवान विष्णु के वक्षस्थल में विराजमान कमलोद्भवा श्री लक्ष्मी जी को मैं नमस्कार करता हूँ।

देवी! जिस पर तुम्हारी कृपा-दृष्टि है, वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यधान्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर तथा पराक्रमी है।
अत: हे कमलनयने!

अब मुझ पर आप प्रसन्न होवें और मेरा कभी परित्याग न करें।

बोलो अग्रोहा वाली कुलदेवी महालक्ष्मी की जय!

– अग्रवाल सेवा योजना
राजस्थान-जयपुर द्वारा प्रकाशित
‘महान अग्र विभूतिया’ ग्रंथ से साभार

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