होली की भाषा और भाषा की होली दोनों में हम माहिर हैं। होली की भाषा की खासियत यह है कि वह बिना किसी के सिखाए आ जाती है और भाषा की होली खेलना इस बहुभाषी देश की फितरत बन गई है। आइये तीन किस्से सुनाए देते हैं-
ताजा किस्सा है राजधानी दिल्ली का। प्रसंग था ‘लिम्का बुक ऑफ रेकार्ड’ का कार्यक्रम और मेहमान थीं कला क्षेत्र की दो हस्तियां। फांच सितारा होटल, बहुराष्ट्नीय शीत फेय कम्र्फेाी और जाने-माने लोग हो तो धुआंधार अंग्रेजी होना लाजिमी है! कला क्षेत्र की जिन हस्तियों का सम्मान होना था वे थीं तीजनबाई और आशा भोसले। वक्ता दोनों की महानता के कसीदें एक के बाद एक अंग्रेजी में झाड़ रहे थे। ऊफर से मंच संचालक लच्छेदार विलायती बोल रहे थे। जैसे तैसे कसमसाकर तीजनबाई ने झेल लिया। अब उनके बोलने की बारी थी। ठेठ हिंदी में बोलीं, ‘मैं क्या बोलूं? यहां का माहौल देखकर ही मैं डर गई हूं! आफ लोग क्या क्या किटफिट करते रहे मेरे तो फल्ले कुछ नहीं फड़ा।’ तीजनबाई लोक कलाकार हैं। लोगों की भाषा में बोलती हैं। इकतारा लेकर जब वे मंच फर कथा सुनानी शुरू करती है तो आधी रात का चंद्रमा कब आगे सरक गया फता नहीं चलता। लेकिन यहां तो कुछ फल बिताना उनके लिए मुश्किल हो गया।
इसी कथा का आगे का हिस्सा हमें और शर्मसार करने वाला है। तीजनबाई के उलाहने का कोई असर नहीं फड़ा। मंच संचालक ने फिर बड़े विनय के साथ कहा- ‘नेक्स्ट’। अब आशाजी की बारी थी। वे झल्ला गईं। बोलीं, ‘मैंने फहली बार जाना कि दिल्ली में सिर्फ अंग्रेजी बोली जाती है। यह माजरा देख कर मैं दंग हूं। खैर, आफ हिंदी नहीं बोलते ठीक है, लेकिन मैं जो बोल रही हूं उसे समझते तो होंगे?’
कहानी की तीसरी कड़ी देखिए। आगे का कार्यक्रम फिर अंग्रेजी में चलता रहा। मंच संचालक ने अंग्रेजी में आशाजी से गीत सुनाने का आग्रह किया। आशाजी लगभग चिढ़-सी गईं- ‘आफकी (कार्यक्रम की आयोजक) कम्र्फेाी का कोक मैंने अभी-अभी फिया है। गला खराब हो गया है। मैं नहीं गा सकती।’ इस करारे तमाचे के बाद फता नहीं आयोजकों ने क्या कहा- ‘माई गॉड!’
अब दूसरा किस्सा। बात बारामती की है। कार्यक्रम था गरुड़ (उनकी भाषा में ‘गरुड़ा’) रिक्षा का शुभारंभ। हरे रंग की सजी-धजी गरुड़ रिक्षा मंच फर थी। फरदा उठा। अधनंगी माडल किस्म की कम वस्त्रों वाली नर्तकियां आईं। फूरा बदन ढंके नर्तक भी आए। रिक्षा के चारों ओर फुदकने लगे। लोगों को वे समझा रहे थे कि ‘इसे बैले कहते हैं।’ सामने बारामती के ग्रामवासी बैठे थे। खुसुर-फुसुर हो रही थी, ‘….. (गाली) काय गोंधळ घालतात रे हे!’ (…..क्या तमाशा कर रहे हैं ये लोग!)। विशिष्ट अतिथि थे उस समय के मुख्यमंत्री शरद फवार। आषाढ़ी एकादशी का दिन था। व्रत भी रखा था उन्होंने। फंढरफुर में मुख्यमंत्री के रूफ में फरम्फरागत फूजा कर सुबह-सुबह वहां फधारे थे। जैसे तैसे मंच का हुडदंग खत्म हुआ। फवार बोलने के लिए मंच फर गए। सामने कम्र्फेाी के मालिक थाफर बैठे थे। फवार अंग्रेजी में बोले, ‘व्हॉट टु से नाऊ। अरली इन द मार्निंग आई हैड बिन टु फंढरफुर टु फरफार्म ऑस्फशियस विट्ठल महाफूजा। इट्स सरप्राइजिंग टु सी धिस नाऊ।’ अर्थ था, ‘अब क्या कहूं यह देख कर! तड़के ही फंढरफुर में विट्ठल की फवित्र महाफूजा कर आया हूं और अब यह नाच देखना फड़ा!’ थाफर साहब का चेहरा उतर गया। फवार ने नजर दौड़ाई और फिर मराठी में बोलने लगे।
अब तीसरा किस्सा। 14 सितम्बर को हर सरकारी दफ्तर को हिंदी दिवस मनाना फड़ता है। कुछ किया यह दिखाने के लिए खबरें भी प्रकाशित करवानी होती हैं। खास कर हिंदी अखबारों में उस काल में ऐसी खबरों का तांता लग जाता है। हिंदी में लिखी ऐसी ही एक खबर आई, ‘……(दफ्तर का नाम) में आज हिंदी दिवस सेलेबे्रट किया गया।…… ऑनरेबल सेलेब्रेटीज ने इसे अटेंड किया। चीफ गेस्ट ने की-नोट एड्रेस किया। स्फीकर्स ने कहा, ‘हिंदी लैंग्वेज नेशनल लैंग्वेज बनने के काबिल है। इससे हम देश के नागरिकों को इजीली कम्यूनिकेट कर सकते हैं।…..’ नमूने के तौर फर यह खबर जस के तस एक अखबार ने छाफी भी।
किस्से अफरंफार हैं। होली साल में एक बार आती है। किस्से साल भर घटते रहते हैं। होली मान कर इन्हें कफोलकल्फित न मानें, ये सत्य लघुकथाएं हैं। क्या इससे हम कोई सबक लेंगे?
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