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‘कोलावरी डी’ फयूजन या कंफयूजन?

‘कोलावरी डी’ फयूजन या कंफयूजन?

by अमोल पेडणेकर
in मार्च २०१2, सामाजिक
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बेहद अमीर हो या सिग्नल पर भीख मांगने वाला गरीब हो, बालक हो या युवा हो, महिला हो या पुरुष हो सभी ‘कोलावरी डी’ गाने पर ठुमका लगाते हुए दिखाई देते हैं। पिछले तीन माह में इस गाने ने सब को मानो पागल कर दिया है। यू ट्यूब से लेकर फेसबुक और ट्विटर तक सभी सोशल नेटवर्क में इस गाने ने धूम मचा दी है। एक ही गाने को चार करोड़ लोग यू ट्यूब पर देखें यह आज के आधुनिक युग में एक तरह का कीर्तिमान ही है। टाइम पत्रिका से लेकर बीबीसी तक ने इस पर गौर किया है। आज इंटरनेट पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां इस गाने का जिक्र न हो। सर्च इंजन और सभी अखबार और पत्रिकाएं इस गाने के बारे में खूब लिख रहे हैं।

‘व्हाय धिस कोलावरी… कोलावरी डी’ इस गीत का धु्रपद सुनकर आसानी से अर्थ समझ में नहीं आता, फिर भी सारी दुनिया इस गाने परे मोहित हो गई है। यही नहीं, बच्चा भी ‘व्हाय धिस कोलावरी… कोलावरी डी’ अपनी तुतलाती जबान में कहता सुनाई देता है। गीत तमिल और अंग्रेजी भाषा का मिश्रण है। गीत बजना भले आरंभ हो जाए पर उसका अर्थ समझ में नहीं आता। अर्थ समझने का प्रयास करने पर वह निरर्थक लगता है। फिर भी यह निरर्थक गाना लोगों के दिलों पर राज कर रहा है। तब सवाल उठता है कि क्या इस गाने में ऐसा कौनसा जीवनदर्शन पेश किया गया है? क्या इस गाने में अर्थ को प्रवाहित करने वाले शब्द वाकई है? क्या इस गाने का अत्यंत सुंदर प्रस्तुतिकरण और उसका संगीत मधुर है? पुराने लोकप्रिय गानों की कसौटियां इस गाने को लगाने का प्रयास करें तो इन सभी सवालों का उत्तर नकारार्थी ही आता है।

ऊपर की सभी कसौटियां इस गाने को लगाएं तो ‘कोलावरी डी’ में विपरीत स्थिति दिखाई देती है। काव्य, कर्णमधुर संगीत का इसमें अनुभव नहीं होता। अर्थप्रवाही शब्दों की मारामारी ही है। तमिल और अंग्रेजी के कुछ शब्दों की उठाईगीरी दिखाई देती है। उनका अर्थ खोजना पड़ता है।

कोई गाना क्यों लोकप्रिय हुआ इसके वास्तविक कारण खोजें तो जान पड़ता है कि ऐसे गीतों के बोल सुंदर होते हैं। कभी कभी कोई गायक भी अपने सुरीले कंठ से पूरे गाने का श्रेय ले पा जाता है। कभी संगीत बेहतर होने से गाना श्रेष्ठ हो जाता है। वैसे कोई गाना किस कारण से रसिकों के मन पर राज करेगा यह बताना कुछ कठिन है। गाना कोई गणित नहीं है, जिसमें हर बात की मात्रा निश्चित की जा सके। वह तो एक जादू है, जो अनजाने में ही रसिकों के मन को भरमा लेता है।

‘गुलाम’ फिल्म का गाना ‘आती क्या खंडाला’ याद कीजिए। इसमें ताल, सुर, अर्थप्रवाही शब्द न होने वाला यह गाना है, लेकिन आमिर खान की अदाकारी से आज भी लोगों को याद रहा है। इसी तरह ‘बीड़ी जला ले’ और ‘कजरारे कजरारे’ ये या इसी तरह के गाने उनकी किन खासियतों के कारण रसिकों में प्रिय रहीं यह बताना मुश्किल है। इन गानों में न काव्यमयता है, न अर्थ है, फिर भी वे ‘म्यूजिकल हिट’ में शामिल हुए। ऐसे गीत लोगों के होठों पर राज कर रहे हैं यह एक आश्चर्य ही है।

‘कोलावरी डी’ और उसके जैसे गीतों को मिलने वाली प्रसिध्दि से एक बात अनुभव हो रही है कि ऐसे गीत अपनी आधुनिक संस्कृति में घुलमिलकर एक नई संगीतीय संस्कृति को जन्म दे रहे हैं। ‘कोलावरी डी’ जैसी ‘फयूजन’ की नई किस्म को अपनाते हुए समाज के मन में कहीं ‘कंफयूजन’ तो नहीं है न? ऐसे ‘फयूजन’ से कहीं हम संगीत, गीत के क्षेत्र में हम अपना चेहरा बदलने का नया प्रयोग जरूर कर लेंगे, लेकिन इससे यह खतरा भी है कि कहीं हम अपनी पहचान ही भूल न बैठे।

गायन और संगीत के क्षेत्र में प्रस्तुतकर्ताओं और रसिकों के दोनों वर्गों में बड़े पैमाने पर बदलाव देखा जा रहा है। जगजीत सिंह को सुनने के लिए थिएटरों में लम्बी कतारें लगाने वाला, टिकट खरीद कर संगीत का चस्का लेने वाला रसिक वर्ग आज दुर्लभ होता जा रहा है। श्रोतागण आज एलबम, सीडी, वीडियो सीडी के माध्यम से अब गीत‡संगीत का आनंद ले रहा है। प्रत्यक्ष श्रोताओं के समक्ष उपस्थित होने वाले कलाकार श्रोताओं की बदलती रुचि के अनुसार रसिकों की प्रत्यक्ष वाहवाही लूटने के बजाय एलबम, वीडियो सीडी जारी करना बेहतर मानने लगे हैं। आज तो संगीत, गीत फेसबुक, यू ट्यूब पर सीधे पेश होने लगा है। यह व्यावसायिकता है या मजबूरी?

संगीत पहले एक पूर्ण अनुभव लेने का विषय था। कलाकार के साथ श्रोता भी पूरी तैयारी के साथ सभागार में आते थे। वह रसिकता आज क्या खत्म हो रही है? कुछ वर्ष पहले एम.एफ. हुसैन और पं. भीमसेन जोशी की जुगलबंदी हुई थी। पंडितजी के गायन के दौरान हुसैन ने मंच पर चित्र बनाया था। वह उस जमाने में एक सराहनीय ‘इवेंट’ बनी थी। इस घटना का एक अर्थ यह होता है कि संगीत, स्वर, गीत के बोल सुनने वाले रसिकों के मन में कुछ तरंगों को जन्म देते हैं। रसिक जब संगीत का आनंद उठाते होते हैं तब उनके मन में रंग, रेखाएं, आकार बनते हैं। हुसैन और पं. भीमसेन जोश के बीच जो हुआ वह उसीका साक्षात्कार है।

नाटक, नृत्य, गीत, संगीत इन कलाओं के बारे में एक बात बार‡बार रखी जाती है और वह यह कि इन कलाओं के जरिए व्यक्त होने वाला भाव यदि रसिकों के दिलों तक नहीं पहुंचा तो कला का मूल उद्देश्य ही खत्म होने की संभावना ही अधिक होती है। ‘कोलावरी डी’ जैसे नए गानों से क्या कला के उद्देश्य की रक्षा होगी? ऐसे गीत सबकी जबान पर आकर ‘मासिकल’ (सामूहिक) हो जाते हैं यह सही है, लेकिन ‘मासिकल’ के मार्ग पर चलते समय यह सोचना जरूरी है कि क्या हम अपनी भावी पीढ़ियों को ‘एंटी‡क्लासिकल’ तो नहीं बनाने जा रहे हैं?

स्वर‡संगीत के क्षेत्र में विहार करते समय कलाकारों को अज्ञात की खोज में जुटना पड़ता है। इसके लिए कोई निश्चित ढांचा बनाया नहीं जा सकता। वहां विभिन्न ढांचे बनाने की स्वतंत्रता होती है और पहले जो प्रकट नहीं किया जा सका उसे भी पेश करने की छूट होती है। इस सृजनता से ही कला की नई भाषा आकार लेती है। नई भाषा निर्माण करना आसान काम नहीं है। इसके लिए उच्च स्तर का ज्ञान जरूरी होता है और ऐसे प्रतिभाशाली कलाकारों के कारण कला प्रवाही रहती है। नई प्रतिभा व नई प्रतिमा आकार लेती है।

‘कोलावरी डी’ जैसे गीतों के कारण एक नई संगीत संस्कॄति जन्म ले रही है। नई पीढ़ी की संगीत रुचि बदल रही है। लेकिन यदि यह कोई कहे कि ‘कोलावरी डी’ सॄजन का चमत्कार है यह कहे तो कहीं न कहीं गलती जरूर हो रही है यह तय है। किसी प्रकार का आविर्भाव न रखते हुए खुले दिल से नवीनता का स्वागत करने का प्रयोग भारतीयों ने आरंभ किया यह सच है, फिर भी कहीं कुछ गलत हो रहा है इसका ध्यान रखना रसिक होने का लक्षण है।
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Tags: fusionhindi vivekhindi vivek magazineindian classical musickolaveri dmusicold is gold

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