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स्वास्थ्य का मूलाधिकार आत्मनिर्भरता की बुनियाद

स्वास्थ्य का मूलाधिकार आत्मनिर्भरता की बुनियाद

by डॉ. अजय खेमरिया
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, सामाजिक, स्वास्थ्य
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मोदी सरकार ने जिस राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को 2017 में लागू किया है उसके मूल प्रारूप में ’जनस्वास्थ्य’ को शिक्षा और खाद्य की तरह बुनियादी अधिकार बनाने का प्रस्ताव था; लेकिन राज्यों के कतिपय विरोध के चलते इसे विलोपित कर दिया गया। कोरोना महामारी के अनुभव ने हमें अब पुनः इस पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में हम तभी आत्मनिर्भर बन सकते हैं, जब स्वास्थ्य को हम नागरिकों का बुनियादी अधिकार मानें।
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आत्मनिर्भर भारत की बुनियादी आवश्यकता है जन आरोग्य। इसके अभाव में किसी भी संकल्पना को सिद्धि में तब्दील किया जाना संभव नहीं है। इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य के लिए हम भारतीय शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य हैं या नहीं यह बहुत ही निर्णायक तत्व है। दुनिया के दूसरे सर्वाधिक मानव बल का स्वस्थ्य औऱ सामर्थ्यवान होना आत्मनिर्भरता की पहली शर्त है।

इस आलोक में आज भारत के स्वास्थ्य ढांचे औऱ व्यवस्था को समझने की आवश्यकता है। सवाल यह है कि क्या शिक्षा और खाद्य सुरक्षा की तर्ज पर भारत के नागरिकों के लिए स्वास्थ्य का बुनियादी अधिकार नहीं होना चाहिए? मौजूदा स्वास्थ्य नीति के समावेशी होने पर तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं। मोदी सरकार ने जिस राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को 2017 में लागू किया है उसके मूल प्रारूप में ’जनस्वास्थ्य’ को शिक्षा और खाद्य की तरह बुनियादी अधिकार बनाने का प्रस्ताव था लेकिन राज्यों के कतिपय विरोध के चलते इसे विलोपित कर दिया गया। कोरोना महामारी से लड़ते हुए जो राष्ट्रव्यापी अनुभव सामने खड़े हैं वह ’नए विकल्प’ को विमर्श के केंद्र में लाने के लिए पर्याप्त हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आलोक में हम कई पैरामीटर पर अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं। 188 देशों के स्वास्थ्य सूचकांक में भारत 143वें क्रम पर है। नेशनल हैल्थ प्रोफ़ाइल 2017 कहती है प्रति 11082 व्यक्तियों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर है। जबकि मानक प्रति एक हजार पर एक डॉक्टर निर्धारित करता है। 50 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी से जूझते भारत के 82 फीसदी ग्रामीण इलाकों में कोई विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। करीब 5 लाख डॉक्टरों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता यह नेशनल हैल्थ प्रोफ़ाइल यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि सबको आरोग्य का लक्ष्य मौजूदा परिस्थितियों और संसाधनों के बलबूते संभव नहीं है।

वर्तमान स्वास्थ्य नीति को लागू हुए 3 वर्ष हो रहे हैं लेकिन हम जीडीपी का 1.4 फीसदी ही धन खर्च कर पा रहे हैं। बेहद निराशाजनक तथ्य है कि 2010 में जीडीपी का दो फीसदी खर्च करने का लक्ष्य 2020 तक भी पूरा नहीं हो पाया है । हमारे पड़ोसी चीन 3.2, भूटान 2.5, मालदीव 9.4, श्रीलंका 1.6, नेपाल1.1 फीसदी के साथ हमसे बेहतर स्थिति में है।

’अन्सर्ट एन्ड यंग’का एक शोध अध्ययन बताता है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की न्यूनता के चलते प्रतिवर्ष 4 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं। डब्ल्यू एच ओ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में 67.78 फीसदी लोग खुद अपनी जेब से अपना इलाज कराते हैं जो वैश्विक औसत 18.2 की तुलना में बहुत अधिक है। जाहिर है गरीबी खत्म करने के सभी सरकारी प्रयास देश की जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं के चलते प्रतिगामी साबित हो रहे हैं।

परम्परागत नीतियों को छोड़कर एक नई स्वास्थ्य नीति और सहमति निर्माण का यह सबसे उपयुक्त समय है। मौजूदा नीति और संक्रियाएं भयंकर उलझी हैं और समरूपता के अभाव में नागरिकों के लिए परिणामोन्मुखी नहीं है। केंद्र और राज्यों के बीच जिस तरह राजनीतिक अलगाव है उसकी छाया आरोग्य के लक्ष्य पर भी है। जनस्वास्थ्य राज्य का विषय है लेकिन 70 साल के अनुभव बता रहे हैं कि राज्य अपने नागरिकों के आरोग्य के बारे में बुरी तरह नाकाम हुए हैं। 21 दिन के लॉकडाउन में 130 करोड़ लोग गृहबंदी में हैं। इसलिए नई नीति, राष्ट्रीय नजरिए से अनिवार्य हो गई है। लगभग 40 करोड़ आबादी वाले बिहार और यूपी की सेवाओं का अंदाजा राज्य स्वास्थ्य सूचकांक में क्रमशः 21 एवं 20वें स्थान से लगाया जा सकता है। बुनियादी रूप से आज इस बात पर विचार करने का समय आ गया है कि देश के हर नागरिक के आरोग्य की प्रत्याभूति केंद्र सरकार अपने ऊपर लें। कोरोना संकट के बाद सर्वानुमति से प्रधानमंत्री को इस विषय पर पहल करना चाहिए।

सर्वप्रथम एकीकृत स्वास्थ्य नीति का प्रारूप केंद्रीय सूची के मुताबिक तैयार किया जाए। राज्यों के साथ उदारमन से उनकी व्यवहारिक दिक्कतें चिह्नित की जाए और यह सब व्यापक सर्वानुमति के धरातल पर हो। देश मे डॉक्टर की कमी को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि सभी जिला अस्पताल मेडिकल कॉलेज में तब्दील किए जाएं। ब्रिटिश रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन एन्ड सर्जरी की तर्ज पर चिकित्सा शिक्षा का पुनर्गठन हो। एकीकृत आरोग्य विभाग के अधीन ही चिकित्सा शिक्षा और जन स्वास्थ्य, और पोषण मिशन का समेकन किया जाना चाहिए।

सेना को छोड़कर सभी चिकित्सकीय गतिविधियां एकीकृत किए जाने से उपलब्ध मानव संसाधन और आधारभूत ढांचे का अधिकतम सदुपयोग संभव हो सकेगा। फ़िलहाल केंद्र, राज्य, रेलवे, ईएसआई, लेबर, नगरीय निकाय, माइंस, अर्ध सैनिक बल, पुलिस, आदि के अलग अलग अस्पताल और परिचालन नियम हैं। चिकित्सा क्षेत्र को सबसे पहले अफसरशाही के नियंत्रण से बाहर निकालने की जरूरत है। मप्र में एक मेडिकल कॉलेज के ऊपर चार आईएएस अफसर नीति निर्माण और परिचालन में पदस्थ हैं। राज्यों में प्रमुख सचिव, उपसचिव, आयुक्त के अलावा केंद्र प्रवर्तित आयुष्मान, एड्स, स्वास्थ्य मिशन सबके अलग डायरेक्टर हैं। सभी पदों पर आईएएस ही तैनात हैं। बेहतर होगा इस अफसरी जाल को समाप्त किया जाए।
केंद्र अगर जनस्वास्थ्य को अपने हाथ मे लेता है तब केवल एक ही तंत्र काम करेगा। इसका एक बेहतर विकल्प है अखिल भारतीय अभियांत्रिकी सेवा की तर्ज पर चिकित्सा संवर्ग का गठन। इसी संवर्ग के जरिये मैदानी प्रशासन को सुस्थापित किया जा सकता है। फिलहाल स्थिति यह है कि एक मेडिकल कॉलेज का डीन या अधीक्षक सबसे वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉक्टर होता है लेकिन वह जिस आईएएस को रिपोर्ट करता है वह जरूरी नहीं यूपीएससी से चिकित्सा पृष्ठभूमि से आया हो। तथ्य यह है कि चिकित्सा तंत्र सरकारी सिस्टम की जड़ता से घिरा हुआ है जिसके चलते डॉक्टर्स भी उसी नोटशीट, फाइल, अनुमोदन की दुरूह कार्य संस्कृति में फंस गए हैं।

डॉक्टर्स की कमी पूरा करने के लिए अगर जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में बदला जाता है तो इसके दो बुनियादी फायदे होंगे। एक तो देश भर में चिकित्सकों की उपलब्धता होगी और शहरी इलाकों में डॉक्टरों के भागने की प्रवृत्ति पर रोक लग जाएगी। सरकार को नए मेडिकल कॉलेजों के लिए अलग 300 बिस्तर अस्पताल के खर्चे से भी मुक्ति मिल जाएगी। देश के सभी मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एकीकृत परीक्षा सिस्टम ईजाद करना भी जरूरी है। आज एम्स या किंग जार्ज कॉलेज से निकला डॉक्टर रीवा, झांसी गोरखपुर की तुलना में निष्णात नहीं माना जाता है क्योंकि कॉलेज अपने स्तर पर परीक्षा और परिणाम बनाते हैं। इसलिए आईबीपीएस की तर्ज पर सेंट्रल परीक्षा बोर्ड हर वर्ष यूजी पीजी की परीक्षा निर्धारित कैलेंडर के अनुरूप आयोजित कर सकता है। डिजिटल प्लेटफार्म की सुगमता से यह आज बेहद सरल हो गया है। पीजी छात्रों को सम्बंधित कॉलेजों के नजदीकी प्राथमिक/सामुदायिक केंद्रों पर तैनाती सुनिश्चित करने के लिए इंग्लैंड की तरह केवल कुछ समय के लिए ही थ्योरी क्लासेज में आने का नियम बनाया जा सकता है। जब सभी जिला अस्पताल मेडिकल कॉलेज होंगे तब इनके विशेषज्ञ डॉक्टरों को स्वतः फैकल्टी के रूप में अधिमान्यता मिल जाएगी। व्यवहार में भी सभी राज्य एमसीआई निरीक्षण के समय इन्हीं सरकारी डॉक्टरों को डिजिग्नेट प्रोफेसर बनाकर खड़ा करते हैं। यह तमाशा सरकार के हर सक्षम स्तर पर जानकारी में है।

एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू भारत में नर्सिंग क्षेत्र की विसंगति का है। डॉक्टर सलाह और सर्जरी के बाद मरीज को नर्स के भरोसे छोड़ देते हैं। मरीज के स्वस्थ्य होने तक नर्स ही उपचार को अंजाम तक पहुंचाती है लेकिन हमारे यहां इस कड़ी को कोई सामाजिक सम्मान नहीं है। न ही उनकी सेवा के अनुरूप प्रतिफल की व्यवस्था। सेना में ट्रेनी नर्स के रूप में भर्ती होने वाली परिचारिका नायब सूबेदार से मेजर जनरल तक के प्रमोशन पाकर रिटायर होतीं है। नागरिक तंत्र में 80 फीसदी स्टाफ नर्स बगैर पदोन्नति के अल्प वेतन पर जीवन गुजार देती है। तथ्य यह है कि नर्सिंग में बीएससी, एमएससी, पीएचडी तक होता है और स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रम का 60 फीसदी तक नर्सिंग में पढ़ाया जाता है लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र के इस मेरुदण्ड पर सरकार का कभी ध्यान नहीं गया। स्टाफ नर्स को राजपत्रित अधिकारी का दर्जा दिया जाए और सेना की तरह प्रमोशन के अवसर भी सुनिश्चित होना आवश्यक है। 2016 के आंकड़ों के अनुसार देश में 24 लाख नर्सों की जरूरत थी। 2009 में इनकी संख्या 16.50 लाख थी जो 2015 में घटकर 15.60 लाख रह गई थी। हर राज्य में नर्सिंग सेवा शर्ते वेतन भत्ते अलग हैं। मप्र, राजस्थान, बिहार में 20 हजार से कम वेतन पर संविदा पर इनकी भर्तियां होती हैं। इस तरह की विसंगतियों से भारत का स्वास्थ्य प्रशासन भरा पड़ा है। नर्सिंग में प्रतिभाशाली और सेवाभावी लोग आएं इसके लिए सरकार को इस मेरुदण्ड सदृश्य सेक्टर को एकीकृत सेवा शर्तों के साथ स्थापित करना होगा। आयुष्मान भारत में 50 करोड़ लोगों का कवरेज किया गया है लेकिन आज सबको बीमा और सभी बीमारियों के कवरेज की आवश्यकता है।

ओबामा केयर की तरह भारत में सभी नागरिकों के बीमा को अनिवार्य किया जा सकता है। बीमा क्षेत्र से निजी कम्पनियों को हटाकर सरकार छत्तीसगढ़ औऱ झारखंड की तरह खुद एक कम्पनी या ट्रस्ट गठित कर मोदी केयर उपलब्ध करा सकती है। केंद्र, राज्य, अर्द्ध शासकीय, निजी, संगठित क्षेत्र के सभी कर्मियों को बीमा अनिवार्य किया जा सकता है। जो गरीब हैं उनकी प्रीमियम सरकार खुद वहन करें। नीति आयोग ने हैल्थ सेस का प्रस्ताव सरकार को दिया था। मौजूदा बीमा क्लेम की दर देखकर कहा जा सकता है कि इससे जुटने वाली गैर दावे की राशि से आधारभूत सरंचना निर्माण में भी मदद मिलेगी। सरकार को इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि क्या सबको निःशुल्क इलाज और दवा अनिवार्य है क्या? सरकारी सेवा में सलंग्न देश के 1.2 लाख डॉक्टर निजी नर्सिंग होम्स में भी सेवाएं देते हैं। लिहाजा सशुल्क सरकारी अस्पताल का प्रयोग भी संभव है।

सरकारी होटल्स, मॉल्स, बार आदि में जाकर आमलोग सेवाएं लेते हैं तो ऐसे अस्पताल सरकार क्यों नहीं चला सकती है? इनसे जुटने वाली रकम भी जनकल्याण पर व्यय की जा सकती है। नीति आयोग एक प्रकृति के महकमों के विलीनीकरण की वकालत करता है। इसलिए न केवल एलोपैथी बल्कि आयुष, होम्योपैथी, यूनानी दन्त, प्राकृतिक चिकित्सा, पोषण मिशन को भी एक ही परकोटे में लाया जाना सामयिक और समीचीन ही है। कोरोना संकट के बाद स्वास्थ्य के अधिकार के लिए राज्य भी अपनी जिद छोड़कर केंद्र के हवाले नागरिक आरोग्य के लक्ष्य को सौंपने की समझदारी सुनिश्चित करें। वरन 2025 तक जीडीपी का ढाई फीसदी खर्च का लक्ष्य हासिल करना असंभव है।
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