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ग्रामीण भारत को वास्तविक भारत में बदलने की जरूरत

ग्रामीण भारत को वास्तविक भारत में बदलने की जरूरत

by रमण रावल
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, देश-विदेश, सामाजिक
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हमारा नेतृत्व दुनिया को दिशा देने में सक्षम है और हमारे आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता को स्थायित्व देने में भी। पहल तो हमें ही करनी होगी। ग्रामों को रोजगार अनुकूल बनाकर ही देश को उन्नत किया जा सकता है।

इन दिनों देश में स्वदेशी और राष्ट्रवाद का जबरदस्त माहौल है। वस्तु और व्यक्ति की सोच के देशी होने का तकाजा यूं तो हर मुल्क के लिए जरूरी है, किंतु भारत जैसे विविध वर्णी देश के लिए तो यह ज्यादा ही उचित कहा जा सकता है। यूं स्वदेशी का मुद्दा भावुकता भरा और तात्कालिक अधिक रहता है, लेकिन यह ऐसा वक्त है जब हम सचमुच इस पर गौर कर लें तो भले विश्व विजेता न बनें, भले ही दुुनिया की सर्वशक्तिमान ताकत न बनें,चाहे, फिर से सोने की चिड़िया न बन पाएं, पर इतना जरूर है कि हम आत्म निर्भर, सक्षम,मजबूत अर्थ व्यवस्था वाले ऐसे देश बन सकते हैं जो किसी का मोहताज न रहे।

इस समय चीन के साथ हमारे सीमा विवाद के मद्देनजर जो तनाव पैदा हुआ है, उसका असर व्यापार पर भी पड़ा है। कोरोना को दुनिया में फैलाने के लिए भी चीन की भूमिका के चलते समूची दुनिया गुस्से से भरी है। भारत में भी इसका व्यापक असर है ही। चीनी सामान के बहिष्कार की आवाजें उठ रही हैं और लोगों ने गंभीरता से इस पर अमल शुरू भी कर दिया है। राखी के मौके पर एक अनुमान के तौर पर 4000 करोड़ का फटका चीन को लगा है। जबकि कुल राखियां 6 हजार करोड़ रुपये की बिकती हैं। इस बार कंफडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ने 9 जून को आवाहन किया था कि चीनी राखी का बहिष्कार किया जाए, जिसका यह परिणाम निकला। 50 हजार करोड़ राखियों की खपत होती है, जिसमें से संस्था के सहयोग से करीब एक करोड़ राखियां घरों में, आंगनवाड़ी महिलाओं ने देशी कच्चे माल से बनाई। इसके चलते इस बार एक भी राखी चीन से नहीं बुलाई गई।

यह इस बात का सबूत है कि हम चाहें तो स्वदेशी के नारे और भावना को सफल बना सकते हैं। भारी इंजीनियरिंग उद्योग छोड़ दें तो राखी की तरह हमारी जरूरत का ज्यादातर सामान कुटीर, लघु उद्योग में बनाया जा सकता है। चूंकि हमारी साढ़े 65 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है इसलिए कुटीर और लघु उद्योग भी वहीं लगेंगे तो हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को जबरदस्त ऊंचाई दे सकते हैं। एक बात हमें अच्छे से समझ लेना चाहिए कि कुटीर व लघु उद्योग को बढ़ाए बिना वैसी तरक्की नहीं की जा सकती, जैसी कि अपेक्षित है। जब देश की अधिसंख्य जनता रोजगार पाएगी तो माली हालात दुरुस्त होंगे ही। यह काम अकेले कृषि के भरोसे नहीं हो सकता।

ऐसे हालात में जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार यदि देशवासियों की भावनाओं के मद्देनजर चीनी सामान का बहिष्कार व स्वदेशी को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे मानव श्रम का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करना होगा। साथ ही उसे कुटीर, लघु व मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहन भी देना होगा। यह काम अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती। इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका तो राज्य सरकारों की रहेगी। वे यदि तय कर लें कि छोटे-छोटे कारोबारी आगे बढ़ें और जो जहां है, उसे वहीं रोजगार मिले तो काफी जल्द परिणाम मिल सकते हैं। चीन ने इस संंबध में एक नीति बनाई है, जिसके तहत गरीबी रेखा या एक निश्चित आय तक के लोगों को सरकारी लाभ तभी मिलेगा जब वे जहां हैं, वही रहेेंगे। यदि वे पलायन कर शहर जाते हैं तो उन सुविधाओं से वंचित कर दिये जाएंगे। इसके लिए अनिवार्य शर्त यही है कि सरकार ऐसी परिस्थितियां निर्मित करें जिससे ग्रामीणों को अन्यत्र जाना ही न पड़े।

यह ठीक है कि कोई भी देश स्वदेशी उत्पादों का उपयोग कर वहां की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकता है, लेकिन वह विदेशी उत्पादों से पूरी तरह बच भी नहीं सकता। हमें इस दिशा में बहुत काम करना होगा। एक तरफ आत्मनिर्भरता बढ़ाने पर ध्यान देना है तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण के दौर में शेष विश्व के देशों से आत्मीय रिश्तें भी बनाए रखना है। यह कारोबार के जरिए ही संभव होता है। कृषि आधारित मुल्क में इससे जुड़े उद्योग की स्थापना, ग्रामीण क्षेत्र में ही अधिकतम रोजगार, उद्योग संबंधी नीतियों का लचीलापन, नौकरशाही पर लगाम, भ्रष्टाचार पर अंकुश, धन की सुगम उपलब्धता, बैंकों से आसान दरों पर कर्ज दिलाना, बिजली सस्ती दरों पर देना, जिस कच्चे माल की जहां प्रचुरता है, वहां उससे जुड़े उद्योगों के लिए वातावरण तैयार करना, उद्योग के लिए जगह से लेकर उत्पादन प्रारंभ करने तक एक ही स्थान पर सभी तरह की अनुमतियां प्रदान करना, वह भी समय सीमा के भीतर जरूरी है। सबसे प्रमुख बात यह कि उत्पादकों को तैयार माल के लिए घरेलू से लेकर अतंरराष्ट्रीय बाजार तक उपलब्ध कराने की व्यवस्था सरकार को करनी होगी। तब जाकर 10 से 20 साल के भीतर हम आत्मनिर्भर बन सकते हैं। वह भी तब जब कि देश में एक ही पार्टी की सरकार हो या जो सरकार आए वह एक बार बन चुकी नीति की अनावश्यक समीक्षा कर उसमें मूलभूत बदलाव न करें। हमारे यहां का सबसे दुखद पहलू यह है कि विकास की कोई एक सर्वसम्मत अवधारणा नहीं है। सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही तमाम नीतियां कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं। यह माना जाता है कि दूसरा दल देश के बारे में अच्छा सोच ही नहीं सकता। जब तक हमारे राजनेता अपनी सोच को व्यापक नहीं बनाएंगे और परस्पर सहमति के न्यूनतम बिंदु निर्धारित नहीं करेंगे, तब तक आत्मनिर्भरता कोरी लफ्फाजी साबित होगी।

यह सुखद संयोग है कि इस समय देश में स्वदेशी की अवधारणा को आगे बढ़ाने वाली भाजपा सरकार है, जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ग्रामीण भारत की जड़ों को सींच रही हैं। मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियान इस स्वदेशी का ही हिस्सा हैं। लेकिन सफर बेहद लंबा है। हमारे यहां आधारभूत ढांचे की अभी-भी कमी है। यदि हम पूरे देश की संरचना को समझकर फिर योजना बनाएंगे तो सफलता सुनिश्चित है। किसी एक तरीके को अपनाकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। दक्षिण भारतीय राज्यों की जलवायु, लोगों के काम करने की क्षमता, बौद्धिक चेतना और उत्तर भारतीय की प्रकृति में काफी अंतर है। ऐसे में कहां किन कुटीर, लघु उद्योग को प्रोत्साहन देना, यह देखना होगा।

इस बारे में वृहद योजना बनाकर इलाकेवार वे रोजगार सृजित करने होंगे, जिसे स्थानीय लोग आसानाी से कर सकें। जहां जैसा कच्चा माल उपलब्ध हो, वैसी इकाइयां स्थापित की जाए। जहां कुछ नहीं होता हो, वहां आसपास के महानगर से कौन-सा कच्चा माल देकर तैयार कराया जा सकता है, यह देखना होगा। वैसे भी घरों में काम करने वाले के साथ यह सहुलियत होती है कि वह रात-बिरात, अलसुबह कभी भी काम कर सकता है, जिससे उत्पादकता बढ़ती ही है। बेरोजगार ग्रामीण व्यक्ति अपना ज्यादातर वक्त ओटलों पर ठिलवई करते बिताता है, पान-बीड़ी-सिगरेट-गुटखे में उलझा रहता है। यदि उसे रोजगार मिले तो व्यसन से भी बचेगा और आजीविका मजबूत कर सकेगा। फिर गांवों में पुरुष के काम पर जाने और रसोई से निपटने के बाद महिलाओं, बच्चों को स्कूल से बचे हुए समय में कोई काम नहीं होता, सिवाय इसके कि वे टीवी पर वाहियात कार्यक्रम देखें, बेफिजूल की चुहलबाजी करें, बच्चे गलियों में आवारागर्दी करें। बेहतर है कि घर पर उपलब्ध काम कर चार पैसे जोड़ें और अपनी व परिवार की अर्थ व्यवस्था को मजबूत करें।

समय करवट ले रहा है। दुनिया बेहद उम्मीद के साथ हमारी ओर देख रही है। आजादी के 70 साल बाद भारत के लिए इस तरह के गौरव का क्षण आया है। हमारा नेतृत्व दुनिया को दिशा देने में सक्षम है और हमारे आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता को स्थायित्व देने में भी। पहल तो हमें ही करनी होगी। सारी जिम्मेदारी सरकार पर थोपकर कभी विकास नहीं किया जा सकता। वैसे भी सरकार के भरोसे स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा जैसे मसले ही छोडऩे चाहिए। तभी हम एक जिम्मेदार नागरिक बनकर बेहतर राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
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