‘अपना तो मिले कोई’ : दिल से निकली और दिल को छूतीं गजलें

देवमणि पांडेय के ताजा गजल संग्रह ‘अपना तो मिले कोई’ की गजलो से गुजरते हुए मेरी काव्य चेतना के बैक ग्राउंड में महाकवि डॉ. मुहम्मद इकबाल का यह शेर निरंतर विद्यमान रहा…

अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल
लेकिन कभी-कभी उसे तनहा भी छोड दे

लेकिन पांडेय जी ने अपनी गजलगोई के दौरान पासबाने-अक्ल की पहरेदारी से हजरते-दिल को कभी-कभी के बजाय इतना ज्यादा मुक्त रखा कि नतीजे के तौर पर जो गजले सामने आई वे अपने आप में इतनी सहज, सरल और सुगम हैं कि हिंदी के मौजूदा दौरे की तथाकथित मुख्यधारा की छंदहीन, लयहीन, रसहीन और एक सरीखी लगने वाली दुर्बोध तथा बूझो तो जाने मार्का कविताओं से बुरी तरह ऊबे हुए कविता के आम पाठकों के दिल में तुरंत उतर जाने का माद्दा रखती हैं। पेश हैं इस संग्रह से कुछ अशआर-

ऐसा नहीं कि कोई भी अपना नहीं मिला
हम जिसको ढूँढते थे वो चेहरा नहीं मिला

इश्क ने हमको सौगात में क्या दिया
जख्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नही

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क क्या है पता नहीं चलता
उस तरफ चल के तुम कभी देखो
जिस तरफ रास्ता नहीं चलता

ये प्यार वो जज्बा है तासीर अजब जिसकी
मिलता है मजा इसमें घर-बार लुटाने से

भले मिल जाए दौलत और शोहरत हमको दुनिया में
मगर दिल को मुहब्बत की कमी अच्छी नहीं लगती

ये आरजू थी तेरी निगाहों में मैं रहूँ
लेकिन मैं तेरी आँख का काजल नहीं हुआ

जिसकी तस्वीर हो गया हूँ मैं
वो अगर जिंदगी में आए तो

हम जाने कहाँ कैसे किस मोड पे खो जाएं
मेरा भी पता लेना, अपना भी पता देना

इस जहाँ में प्यार महके जिंदगी बाकी रहे
ये दुआ माँगो दिलों में रौशनी बाकी रहे

दिल में मेरे पल रही है यह तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाकी रहे

ये दिल से निकली गजले हैं और अपने इकहरेपन के बावजूद भी पाठक के दिल को फौरन छू लेती हैं। मुझको यकीन है कि ‘अपना तो मिले कोई’ की गजलें कविता प्रेमी पाठकों के बीच अच्छी लोकप्रियता अर्जित करेंगी करेंगी और इस संग्रह के बाद पांडेय जी को जरूर कोई अपना मिल जाए, ऐसी कामना है। कवर पेज, गेटअप, कागज, छपाई और गजले इन सभी लिहाज से ऐसे दर्शनीय एवं पठनीय संग्रह के लिए देवमणि पांडेय जी को हार्दिक अभिनंदन।

 

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