हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
फिल्मों में “दबंग” संस्कृति

फिल्मों में “दबंग” संस्कृति

by दिलीप ठाकुर
in अगस्त-२०१२, फिल्म
0

हिन्दी फिल्मों में कई वर्षों तक बिहार की संस्कृति को ‘डाउन मार्केट’ अर्थात न्यून आंका जाता था। हिन्दी फिल्म जगत में यह गलतफहमी क्यों थी, इस पर अगर गौर किया जाए तो कुछ उत्तर मिल सकते हैं।

बिहार को लोग अशिक्षित, असंस्कृत, गुंडागीरी, दहशत जैसी सभी बुराइयों से परिपूर्ण माने जाते थे। सबसे अधिक जातिवाद भी इसी राज्य में है। इन सभी अफवाहों के पीछे कौन से घटक जिम्मेदार हैं, इसका सीधा उत्तर मिलना कठिन है।

इस तरह की बिहार संस्कृति को हिन्दी फिल्म उद्योग में महत्वपूर्ण स्थान कैसे मिलेगा? यहां की राजकीय और सामाजिक परिस्थितियों में कौन और क्यों दिलचस्पी लेगा?

इन प्रश्नों को धीरे-धीरे उत्तर मिलने शुरू हुए जब बिहार से ही हिन्दी फिल्म जगत में आये लेखक-निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा ने बिहार की पृष्ठभूमि को अपनी फिल्मों में प्रधानता दी। आज से 25 साल पहले आई फिल्म ‘दामुल’ बिहार के सामाजिक हालातों पर रोशनी डालने वाली थी। उस समय इसकी गिनती ‘कलात्मक सिनेमा’ में की गई। इन फिल्मों की जितनी चर्चा होती है, उतने दर्शक नहीं मिल पाते। प्रकाश झा को भी इसका अंदाजा हो गया था, अत: उन्होंने ‘मृत्युदंड’ से अपनी फिल्मों में बदलाव शुरु किए। बिहार के जमींदारो के विरोध में लड़ी जाने वाली लड़ाइयों को उन्होंने बड़े कलाकारों और कुछ फिल्मी करामातों के मिश्रण के रूप में दर्शकों को परोसा। शबाना आजमी, माधुरी दीक्षित, शिल्पा शिरोडकर और अयूब खान जैसे नामचीन कलाकारों को लेकर उन्होंने एक नया दौर शुरू किया, उसके बाद ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’, ‘राजनीति’, ‘आरक्षण’ जैसी फिल्मों में प्रकाश झा ने बिहार की कथा-व्यथा-समस्या और इनके प्रस्तुतिकरण के लिए बड़े चेहरे, इस तरह का एक नया समीकरण बनाया। इसके बाद तो बिहार की पृष्ठभूमि की फिल्म और प्रकाश झा एक सिक्के के दो पहलू बन गये। ‘राजनीति’ के दौरान जब खासतौर से प्रकाश झा से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने अपने आप कहा कि बिहार में ऐसा काफी कुछ है जिस पर हिन्दी फिल्में बनाई जा सकती हैं। इसका अर्थ यह है कि ‘दामुल’ से लेकर अब तक प्रकाश झा में काफी बदलाव आ चुका है इतने समय के अंतराल के बाद भी फिल्मी हो गए हैं। जिस वातावरण, संस्कृति में इंसान रहता है, बढ़ता है उसका जाने-अनजाने उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता ही है। पश्चिम महाराष्ट्र के वाई और पंचगणी नामक शहरों में प्रकाश झा ने अपनी उन फिल्मों का काम शुरू कर दिया था, जिनमें पृष्ठभूमि बिहार से संबंधित थी और इसके आंखों देखे हाल के लिये कुछ पत्रकारों को भी आमंत्रित किया। प्रकाश झा ने अपनी फिल्मों में रक्तरंजित बिहार प्रस्तुत किया है, जहां का आम आदमी हमेशा सामाजिक दहशत के साये में जीवन व्यतीत करता है। हालांकि उन्होंने कभी भी इस बात की चिंता नहीं की कि बिहार की छवि को बना रहे है, या बिगाड़ रहे हैं।

प्रकाश झा की तर्ज पर ही अन्य निर्देशकों ने भी बिहार की, वही रक्तरंजित प्रतिमा बनाई, यह कहना लाजमी नहीं है। उन्हें भी बिहार का वही चेहरा दिखाई दिया होगा, जिसमें अशांति और तमाम सामाजिक बुराइयां थी, तभी तो के. सी. बोकाडिया ने भी उत्तर भारत के ग्रामीण भागों पर आधारित फिल्में बनाई। ‘आज का अर्जुन’, ‘फूल बने अंगारे’ आदि फिल्मों में उन्होंने बिहार की झलक दिखाई। चुनावों में विरोधी उम्मीदवारों को धमकाना, मतदान केन्द्रों के लूटना, फर्जी मतदान करना आदि सभी घटनाएं मुख्य रूप से बिहार में ही देखने को मिलती है। बोकाडिया ने इसी को अपनी फिल्मों में प्रमुखता दी, परंतु उन्होंने कभी भी सीधे-सीधे बिहार को नहीं दर्शाया। शायद उन्हें डर था कि ऐसा करने से उनका बिहार का दर्शक वर्ग कम हो जाएगा।

इनके अलावा भी अन्य कुछ फिल्मों में भी बिहार के दर्शन होते हैं। फिल्म ‘दंडनायक’ में नसीरुद्दीन शाह और शिल्पा शिरोडकर की अजब-गजब जोड़ी को भी बिहार के मोतीहारी गांव की पृष्ठभूमि दी गई है। यह एक बदले की कहानी है, जिसमें परेश रावल प्रमुख और ‘निगेटिव’ भूमिका में हैं। एक प्रश्नचिन्ह यहां पर है कि क्या परेश रावल को लालू प्रसाद यादव को कभी खलनायक तो कभी हास्य अभिनेता के रूप में दर्शाया। अत: बिहार के बाहर लालू प्रसाद यादव की छवि भी यही बन गई हैं।

रामगोपाल वर्मा ने भी अपनी फिल्म ‘शूल’ में बिहार की स्थानीय गुंडागर्दी, सत्ता संघर्ष, रक्तपात आदि को ही चित्रित किया है और उसमें भी शिल्पा शेट्टी का भडकाऊ ‘आयटम सांग’ ‘दिलवालों के दिल का करार लूटने, मैं आई हूं यू. पी.- बिहार लूटने’ डाल दिया, क्या इससे यह गलत संदेश नहीं जाता कि बिहार के पुरुषों का महिलाओं की ओर देखने का नजरिया कितना ओछा है? इस तरह गीत और नृत्य यदि लोक संगीत और बोली में हो तो सही हैं, परंतु जब इन्हें हिन्दी फिल्मों में फिल्माया जाता हैं, तो ये भड़काऊ हो जाते हैं।

ये तो था फिल्मी बिहार का ‘फ्लैशबैक’ अर्थात, लोकप्रिय फिल्मों से बिहार की संस्कृति के दर्शन का चलन बढ़ रहा है यह सही है, परंतु इन सभी फिल्मों के कारण यह सिद्ध हो रहा है कि बिहार में शहरी जीवन का अभाव है, वहां केवल ग्रामीण जीवन ही है। बदला, बंदूक, रक्तपात, राजनीति, जातिवाद आदि ही वहां महत्वपूर्ण है। इन सभी बातों में पूर्ण सत्य नहीं हैं।

विशाल भारद्वाज के ‘ओंकारा’ में भी बिहार की ही पृष्ठभूमि हैं, परंतु उसमें रक्तरंजित बिहार के अलावा भी अन्य कई मुद्दे दिखाए गए हैं। इस कारण कहानी की विश्वसनीयता बढ़ गई है। फिल्म में मनोरंजन का मसाला लगाने के लिए बिपाशा बसु को ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ और ‘नमक इश्क का’ तो साथ था ही। नौंटकी वैसे तो स्थानीय है, परंतु बिपाशा की तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस तरह के गानों के साथ ‘सही’ न्याय किया।

आजकल हिन्दी सिनेमा का बिहार प्रेम कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। फिल्म ‘इशकजादे’ में जब नायिका (परिणति चोपड़ा) नायक पर (अर्जुन कपूर) अर्थात अपने प्रेमी के माथे पर बंदूक तानती है, तो कोई भी यह सवाल उठा सकता है कि यह किस तरह का ‘राक्षसी प्रेम’ है? परंतु कोई बिहारी तुरंत कह सकता है ‘हमारे गांव की यही रीत हैं।’ अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म ‘गैंग ऑफ विसापुर’ में बिहार की 60 साल की यात्रा को दिखाया है, इसमें बदले की भावना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते दिखाया गया है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में बिहारी व्यक्ति के मन में बदले की भावना का ही वर्चस्व है और अन्य बातें उसके लिए दोय्यम है?

खुद अनुराग कश्यप को भी शायद ‘वासेपुर’ से कुछ ज्यादा ही लगाव हो गया, इसलिए उन्होंने सात घंटे की फिल्म बना ली। (बिहार से इतना ज्यादा प्रेम!) आवश्यक कुछ ही सीन को काटकर उन्होंने दो फिल्में बनाई। इस फिल्म की संगीतकार स्नेहा खानवलकर ने बताया कि उन्होंने इस फिल्म के संगीत के लिये काफी अध्ययन किया। उन्होंने बिहार और बंगाल की सीमा का संगीत सुना और फिल्म में लोकसंगीत को ही प्रधानता दीं, इससे जाहिर होता है कि स्नेहा ने बिहार को केवल ऊपर-ऊपर से ही नहीं’ बल्कि गहराई से जानने की कोशिश की है।
नई फिल्म ‘राउडी राठौड़’ में भी बिहार के देवगढ़ में जो कि पटना पास है, ऐसा दिखाया है। रक्तपात ही दर्शाया है। हिन्दी मसालेदार फिल्म बनाने वालों को शायद लगता है कि इस तरह के रक्तपात दिखाने से उनकी कहानी की विश्वसनीयता बढ़ेगी। आगामी फिल्म ‘जीना है तो ठोक डाल बंदूक’ जैसा केवल बिहार में ही हो सकता है

इस पूरी यात्रा में दो बातें साफ और प्रमुखता से दिखाई देती हैं। पहली यह कि अब सीधे बिहार में जाकर फिल्मांकन करना आसान हो गया है, जिससे यह जाहिर हो गया है कि वहां की सामाजिक दहशत धीरे-धीरे कम हो गई है। वरना ‘शूल’ फिल्म के समय तो रवीना टंडन को वहां के पुरुषों के कारण भागना पड़ा था। (प्रकाश झा इसलिए ग्रामीण महाराष्ट्र में बिहार को साकार करते हैं)

हिन्दी फिल्मों में बह रही इस बिहारी हवा के अवसर को भुनाने का राज्य सरकार के पास शानदार अवसर है। प्रत्यक्ष रूप से बिहार में आकर फिल्में बनाने वालों को उनके हाथ कुछ विशेष रियासतें देनी चाहिए, इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। बिहार की कीर्ति फैलेगी और पर्यटन का विकास होगा। फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। दूसरी बात यह कि अब धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी बिहारियों की संख्या बढ़ रही हैं, वे रोजगार के लिए अन्य राज्यों का रुख कर रहे हैं। मुंबई में तो कई लाख बिहारी लोग हैं। इस तरह दूर-दूर तक फैले बिहारियों के कारण बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के लिये एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हो रहा है। फिल्मों के बिहार को इन बिहारियों के सामाजिक परिवर्तन का भी बहुत लाभ हुआ है। भारतीय लोग अपने शहर और गांव के लिए सदैव संवेदनशील रहे हैं और अपने गांव से दूर रहने पर तो उसे तीव्रता से उसकी याद सताती रहती है। ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ जैसी फिल्में उसकी इस व्याकुलता को बढ़ाने का काम करती है।

बिहार मतलब अशिक्षा, गरीबी, लाचारी, जातिभेद, राजनीति, खून-खराबा, रक्तपात, पिछड़ा राज्य आदि जैसी दीर्घकालीन छवि को बदलने के लिए इन फिल्मों का सहयोग होना जरूरी है अन्यथा फिल्मों से गल्ला तो भरता रहेगा, परंतु बिहार का विकास नहीं होगा, फिल्म एक अत्यंत प्रभावशाली माध्यम है, ऐसा लक्ष्य सामने रखकर बिहार का दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: actorsbollywooddirectiondirectorsdramafilmfilmmakinghindi vivekhindi vivek magazinemusicphotoscreenwritingscriptvideo

दिलीप ठाकुर

Next Post
डॉ. मनमोहन सिंह : फिसड्डी प्रधानमंत्री

डॉ. मनमोहन सिंह : फिसड्डी प्रधानमंत्री

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0