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राम के जीवन मूल्य ही वर्तमान समस्याओं का हल                                 

संघ के आंदोलन और उनके परिणाम

by मा. गो. वैद्य
in नवम्बर- २०१२, सामाजिक
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संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। अर्फेाी माँगों की फूर्ति के लिये आंदोलन करना यह ना तो उसका प्रकृति धर्म है, ना स्वीकृत कार्य सिद्धि के लिये उफयुक्त औजार।

संघ का ध्येय

असंघटित और बिखरे हुये हिन्दू समाज को संगठित करना उसका ध्येय रहा है। हिन्दू समाज यह अर्फेो देश में राष्ट्रीय समाज है। यह समाज अनेक जातियों, उफजातियों, फंथों, संप्रदायों तथा भाषाओं में बँटा हुआ है। इन सब विविधताओं के अंदर एकता का जो एक सूत्र है- ऐसा सूत्र कि जो इन सब विविधताओं वालों को जोड़ता है, उस सूत्र को ही यह समाज भूल गया था। दूसरे लोग, इन सबको हिन्दू इस अभिधान से ही जानते थे, उस नाम से ही फुकारते थे। किन्तु जो हिन्दू हैं, उनको ही हम हिन्दू हैं, इस मौलिक तथ्य का विस्मरण हुआ था। अत: संघ ने अर्फेो इस हिन्दू समाज को संगठित करने का सोचा क्योंकि इस देश का भाग्य और भविष्य हिन्दू समाज के साथ जुड़ा है। आज नहीं, हजारों सालों से। इस समाज को अर्फेाी अस्मिता का स्मरण करा देकर और उसे इस अस्मिता के आधार फर संगठित और चारित्र संर्फेन करने का दायित्व संघ ने अर्फेो ऊफर लिया और इस उद्देश्य की प्रापित के लिये उनके अनुकूल और अनुरूफ अर्फेाी वैशिष्ट्यफूर्ण कार्यशैली का सृजन किया।

आफद्धर्म

इस कार्यशैली में आंदोलन की गतिविधियों को नहीं के बराबर स्थान है। वैसे भी किसी भी विधायक संगठन के लिये आंदोलन नित्य धर्म नहीं हो सकता । अस्थायी रूफ से ही उसका स्वीकार किया जा सकता है। संघ को भी आफद्धर्म के नाते ही उसे स्वीकारना फड़ा। हम सब जानते हैं कि आफद्धर्म से फूर्णत: भिन्न, शाश्वत धर्म तथा युगधर्म होते हैं, वे ही किसी भी संगठन की प्राण शक्ति होती है, जो मूलभूत, आधारभूत बाते होती हैं, जो कभी बदलती नहीं, वह शाश्वत धर्म होता है । समय के अनुसार जिन में बदलाव करना फड़ता है, वह युगधर्म कहलाता है और जो अफवादात्मक स्थिति में अर्फेााया जाता है वह आफद्धर्म होता है। व्यक्ति के तथा समाज के भी जीवन में कभी-कभार आफद्धर्म का अवलंबन करता पड़ता है।

शासनकर्ताओं की हठधर्मिता

संघ फर भी ऐसा ही एक बड़ा आफद् प्रसंग आया था, उसका अस्तित्व ही मानों संकट में फड़ा था। बात 1948 की है। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। हत्या करने वाला हिंदुत्व का फक्षधर मानता था। इस घृणित कृत्य को बहाना बनाकर उस समय के शासनकर्ताओं ने संघ फर फाबंदी लगाई और जोर-शोर से प्रचार कर, संघ ही महात्मा जी का हत्यारा है, यह भाव जन-मानस फर अंकित करने का फूरी ताकत से प्रयास किया। उस समय के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने समय की विफरीतता को देखकर संघ की शाखाएं कुछ समय तक बंद रखने का निश्चय किया। इस विश्वास के साथ कि यह फूर्वाग्रहों का अकालिक बादल हटेगा। सत्य का सूरज फिर से प्रकाशित होगा। किन्तु शासनकर्ताओं की हठधर्मिता के कारण, संघ फर फाबंदी कायम रहा। कम से कम बीस हजार संघ के कार्यकर्ताओं के घरों की तलाशी ली गई था। हजारों कार्यकर्ताओं को प्रतिबंधित कानूनों को लागू कर कारागृहों में डाला गया था। किन्तु संघ का, गांधी जी की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का तनिक भी प्रमाण नहीं मिला। छह माह के बाद सबकी रिहाई भी हुई। जिन्होंने गांधी जी की हत्या का षडयंत्र रचा था वे फकड़े गये। उन फर न्यायालय में विधिवत् मामला भी शुरू हो गया, उसमें एक भी संघ का कार्यकर्ता नहीं था। फिर भी संघ फर लगाई गई फाबंदी नहीं हटी । कारण, स्फष्ट था कि राज्यकर्ताओं का एक गुट संघ को जड़मूल से उखाड़ फेंकना चाहता था। ‘जड़मूल से उखड़ना’ यह उनके शब्द थे। गांधी जी की हत्या के 3-4 दिन पूर्व उस समय के प्रधानमंत्री फं. जवाहरलाल नेहरू जी ने अमृतसर में एक जाहीर सभा में कहा था कि संघ को जड़मूल से उखाड़ देंगा। उसके फूर्व उत्तर प्रदेश सरकार के एक संसदीय सचिव गोविंद सहाय ने एक फुस्तिका प्रकाशित कर और उसमें संघ को हिटलर की नाझी फार्टी के समान बताकर उस फर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। गांधी जी की हत्या ने उन्हें मनचाहा मौका दिया।

सत्याग्रह का सहारा

छह माह के प्रतिबंधित कारावास के फश्चात् श्रीगुरुजी दिल्ली गये। प्रधानमंत्री फं. नेहरू से मिलना चाहते थे। किन्तु फं. नेहरू ने उनकी प्रार्थना अस्वीकार की। उफ प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार फटेल से दो बार उनकी मुलाकात हुई। किन्तु प्रतिबंध नहीं हटा। सरदार का आग्रह था कि संघ ने काँग्रेस में विलीन होना चाहिये। किन्तु किसी सत्ताकांक्षी राजनीतिक दल में विलीन होने के लिये संघ निकला ही नहीं था। वार्तालाफ असफल रहने के बाद श्रीगुरुजी को दिल्ली छोडकर नागफुर जाने का सरकार ने आदेश दिया। इस अन्याय्य आदेश को श्रीगुरुजी ने नहीं माना, तो अंग्रेजी शासन काल के 1818 के एक काले कानून के तहत उन्हें गिरफ्तार कर जबदस्ती नागफुर भेजा गया। वहाँ से फिर से कारागृह में शांति से, समझोते से प्रतिबंध हटने के सारे रास्ते बंद होने के कारण, संघ को सत्याग्रह का मार्ग चुनना पड़ा।

सत्याग्रह फर्व

9 दिसंबर, 1948 को सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। श्रीगुरुजी ने फिर से अर्फेाी शाखाएं शुरू करने को स्वयंसेवकों को कहा। अन्याय से लगे प्रतिबंध का यह शांतिफूर्ण विरोध था। श्रीगुरुजी को विश्वास था कि यह आंदोलन सफल होगा। दिल्ली में गिरफ्तारी के फूर्व, प्रेषित अर्फेो संदेश में उन्होंने कहा था कि, ‘‘हम सत्य के लिये खड़े हैं, हम न्याय के लिये खड़े हैं, हम राष्ट्रीय अधिकारों के लिये खड़े हैंं। हम आगे बढे और उद्देश्य के प्रापित तक रुके नहां। यह धर्म का अधर्म से, न्याय का अन्याय से, विशालता का क्षुद्रता से, स्नेह का दुष्टता से सामना है। विजय निश्चित है क्यांकि धर्म के साथ भगवान रहता है और उनके साथ विजय रहती है।

सत्ताधारियों और काँग्रेसियों ने इस सत्याग्रह का प्रारंभ में मखौल उड़ाया, ये बच्चे क्यों सत्याग्रह करेंगे, यह उनकी उफहासपूर्ण गर्भवाणी थी। किन्तु इस सत्याग्रह में 70 हजार से अधिक स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी दी। स्वतंत्रता के लिये छेड़े गये किसी भी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को फकड़ा नहीं गया था। कई स्थानों फर विशेषत: फंजाब और तमिलनाडु में सत्याग्रहियों फर अत्याचार किये गये। किन्तु सत्याग्रही स्वयंसेवकों ने किसी भी स्थान फर शांति और संयम को छोड़ा नहींं। फिर मध्यस्थ आये, उन्होंने जेल में श्रीगुरुजी से बात की । उनके आग्रह फर 22 जनवरी, 1949 को सत्याग्रह स्थगित किया गया। किन्तु उसके बाद भी प्रतिबंध नहीं हट। तो फिर सरकार की ओर से एक मध्यस्थ आया और उसको श्रीगुरुजी द्वारा व्यक्तिगत रूफ से लिखे गये एक फत्र के आधार फर 12 जुलाई 1949 को, आकाशवाणी फर संघ फर से प्रतिबंध हटाया गया यह घोषणा हुई और 13 जुलाई को श्रीगुरुजी की जेल से रिहाई हुई। सत्याग्रह स्थगित करने के बाद करीब सात महिनों की कालावधि में क्या हुआ, मध्यस्थों ने कैसे प्रयास किये, सरकार का प्रतिसाद क्या था, ये पूरा घटनाक्रम जैसा मनोरंजक है, वैसा ही उद्बोधक भी है । किन्तु वह एक स्वतंत्र बड़े लेख का विषय बनता, इसलिये मैं यहीं रुकना चाहता हूँ।

गोहत्या विरोधी आंदोलन

संघ की और से और एक अधिकृत आंदोलन 1952 में किया गया, उसका स्वरूफ कुछ अनूठा ही था। गोहत्या बंद हो, इसलिये संफूर्ण देश में हस्ताक्षर संग्रह किया गया। 15 अक्तूबर 1952 को यह काम शुरू हुआ। स्वयंसेवक घर घर फहुँचे और करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर के साथ, श्रीगुरुजी उस समय के राष्ट्रफति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मिलने दिल्ली गये। इस आंदोलन के साथ अनेक संत और महात्मा भी जुडे थे और उन्होंने दिल्ली में एक विराट सम्मेलन के साथ इस मांग को दोहराया। फिर भी आज तक संफूर्ण देश में गौहत्या विंरोधी का कानून नहीं बना। संविधान की धारा 48 की अवहेलना आज भी जारी है। किन्तु अनेक राज्यों ने गोहत्या बंदी के सफल कानून बनाये हैं। किन्तु अन्य कुछ राज्योंने इस के संबंध में केंद्र का अनुसरण करना चाहा। अत:, आज भी गायों और बैलों की तस्करी तथा हत्याएं हो रही है।

आफात्वाल

और भी तीन ऐसे बड़े आंदोलन हुये जिनमें संघ के स्वयंसेवकों का प्रमुख हिस्सा था। किन्तु वे संघ के द्वारा अधिकृत रूफ से प्रारंभ नहीं किये गये थ। एक लक्षणीय आंदोलन आफात्वाल के विरोध में था। सब लोग जानते हैं कि उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सत्ता की अर्फेाी दुर्दम्य हवस के कारण, 25 जून, 1975 को देश भर में आफात्वाल की घोषणा की थी। 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में भ्रष्टाचार करने के आरोफ के फैसले में उनका चुनाव रद्द किया था। उचित तो यह था कि इंदिरा जी स्वयं त्यागफत्र देती और किसी अन्य अर्फेो ज्येष्ठ सहकारी मंत्री को प्रधानमंत्री बनाती। किन्तु व्यक्तिगत राक्षसी महत्त्वाकांक्षा और असीमित स्वार्थ से अभिभूत इंदिरा जी ने आफात्वाल की घोषणा कर, सारे देश को एक कारागृह में रूफांतरित कर दिया। सारे मौलिक अधिकार निलंबित हुये। किसी को भी, बिना कारण के गिरफ्तार किया जाता था और न्यायालय कुछ भी नहीं कर सकता था। 12 जून के उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद सारे देश से एक ही आवाज उठी कि इंदिराजी ने स्तीफा देना चाहिये, उसकी अनदेखी कर अनेक विरोधी दल के नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। रा. स्व. संघ लेकिन इस राजनीतिक गतिविधियों से अलिपत थ। उसने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग भी नहीं की थी। किन्तु काँग्रेसी सत्ताधीशों के मन में संघ के प्रति जो दुष्ट भाव था, उसको प्रकट करने का मौका वे क्यों छोड़ते। राजनीतिक क्षेत्र के प्रमुख नेताओं को तो 25 जून के मध्यरात्रि से ही गिरफ्तार किया गया था। किन्तु सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी को 30 जून को गिरफ्तार किया और 4 दिन बाद संघ को भी अवैध घोषित किया।

कारागार में

संघ को आफात्वाल के विरोध में सक्रियता से भाग लेना ही फड़ा और अर्फेाा यह कर्तव्य उसने अर्फेाी फूरी ताकत से निभाया। अनेक कार्यकर्ता भूमिगत हुए, उनमें सरकार्यवाह श्री माधवराव मुळ्ये, श्री मोरोफंत फिंगले, श्री दत्तोफंत ठेंगडी, श्री नानाजी देशमुख आदि व्यक्ति भी थे। बाद में नानाजी को भी फकड़ा गया। किन्तु संघ के अन्य भूमिगत कार्यकर्ता अंत तक सरकार के हाथ नहीं लगे। वे सारे आफात्वाल में जनता में धीरज बांधने के कार्य में तथा मिसाबन्दियों के फरिवार की देखभाल में जुटे रहे। कुप्रसिद्ध ‘मिसा’ कानून के अन्तर्गत संघ के अनेकों अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को भिन्न- भिन्न प्रांतों के जेलों में ठूंसा गया। मैं नागफुर कारावास में था। वहाँ मिसाबन्दी की संख्या 400 के आसफास था , उनमें कम से कम 350 संघ से संबद्ध थे।

सत्याग्रह में

आफात्वाल के विरोध में एक सर्वसमावेशक लोकसंघर्ष समिति बनायी गयी। जिस के अग्रणी नेताओं में एक नानाजी देशमुख थे। केंद्रीय लोक संघर्ष समितिने निर्णय लिया कि 14 नवंबर, 1975 से 26 जनवरी 1976 तक देश भर में सत्याग्रह होगा। लोकसंघर्ष समिति के एक वरिष्ठ नेता रवीन्द्र वर्मा ने यह घोषणा की। इस सत्याग्रह आंदोलन में भी संघ के कार्यकर्ता अग्रेसर रहे और स्थानों के आंकड़ों का तो मुझे फता नहीं किन्तु विदर्भ की जो जानकारी मेरे फास है, उसके अनुसार विदर्भ के सत्याग्रह में 2378 लोग गिरफ्तार हुए उनमें संघ संबंधित कार्यकर्ताओं की संख्या 2000 से ऊफर थी। उनमें भी फुरुष सत्याग्रहियों की संख्या 1767 और महिलाओं की 378 थी।

आफात्वाल की समाप्ति

आफात्वाल में अनियंत्रित तानाशाही का सरकारी कारोबार, वृत्तफत्रों फर नियंत्रण, उसके खिलाफ जन-भावना, इन सारी बातों की चर्चा विदेशों में भी होने लगी। श्रीमती गांधी दुनिया को बतलाती थी कि भारत के जनतंत्र को खतरा है । फुलिस और सेना दल को भी बगावत की नसीहत दी जा रही है और इसीलिये, जनतंत्र के बचाव के लिये ही उन्हें यह कठोर कदम उठाना फड़ा अखबारों फर नियंत्रण होने के कारण, अखबारों में केवल इंदिरा जी की प्रशंसा ही छफती था। आकाशवाणी फर तो सरकार का ही अधिकार होने के कारण वह तो सरकार की ही प्रशंसा करती था, ऐसा माहौल बन गया था कि इंदिरा गांधी को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा। उस समय यानी 1977 में इंदिरा जी ने अर्फेाी जनतंत्र फर की आस्था प्रकट करने हेतु चुनावों की घोषणा की। चुनाव में हिस्सा लेनेवाले उम्मीदवारों को जेल से रिहा किया गया। इस चुनाव का नतीजा अप्रत्याशित रहा । उत्तर भारत में काँग्रेस का एक भी उम्मीदवार सफलता प्रापत नहीं कर सका। स्वयं इंदिरा जी भी फराजित हुई । यह फराजय देखकर इंदिरा जी ने ही स्वयं संघ फर की फाबंदी हटाई।

राममंदिर का आंदोलन

और एक बड़ा आंदोलन अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण हेतु हुआ, उस समय, भाजफा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी ने इस विषय में जनजागृति करने हेतु, गुजरात में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली । अयोध्या में राममंदिर था, क्योंकि वह रामजन्म स्थान है। उस फवित्र मंदिर को ध्वस्त कर, मुगल सम्राट बाबर के एक सेनाफति ने उसके स्थान फर मस्जिद बनाई थी। वहाँ फर इस समय मस्जिद तो खड़ी नहीं था। वहाँ कोई नमाज भी फढी नहीं जाती थी। केवल एक ढांचा खड़ा था और उस ढांचे में रामलला की मूर्ति विराजमान थी। कैसी विचित्र बात थी। ढांचा मस्जिद का किन्तु अंदर मूर्ति रामलला की। अडवाणी जी की यात्रा वहां तक फहुँच ही नहीं फायी थी, कि बिहार में लालूप्रसाद की सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया। इस दुष्कृत्य ने जनमानस और चेता और रामजन्मभूमि का आंदोलन और तेज हुआ। 6 दिसंबर 1992 में, कारसेवकों की अभूतफूर्व भीड़ वहाँ एकत्र हुई और उसने उस ढांचे को ध्वस्त कर दिया। अब वहाँ केवल रामलला है । मामला न्यायालय में गया। उच्च न्यायालय ने सारे प्रमाणों को देखकर, उत्खनन से प्रापत जानकारी की फरीक्षण कर, वहाँ राम मंदिर था ऐसा निर्णय दिया। अब मामला उच्चतम न्यायालय में प्रलंबित है।

‘अयोध्या में राममंदिर’ इस आंदोलन की धुरी फर विश्व हिंदू फरिषद थी। इस फरिसर की अविवादित भूमि फर शिलान्यास भी हो गया । भव्य मंदिर बनाते हेतु फत्थरों की भी तराश हो गई है। गाँव-

गाँव में अयोध्या से लाई गई इटों की फूजा हुई और उसका नाम था रामशिलाफूजन। फूरे देश में अत्यंत उत्साह से यह कार्य संर्फेन हुआ। अब राम मंदिर के निर्माण को दुनिया की कोई शक्ति रोक नहीं सकता। थोड़ी देर अवश्य है। इस फूरे आंदोलन में संघ के स्वयंसेवकों का अतुलनीय हिस्सा था।

गंगामाता-भारतमाता फूजन

और एक, सम्फूर्ण भारत को जोड़ने वाला आंदोलन संघ की सहायता से अभूतफूर्व सफलता को हासिल कर सका, उस आंदोलन का नाम है गंगामाता-भारतमाता यात्रा । तीन दिशाओं से तीन बड़ी यात्राएं चली और तीनों का संगम, नागफुर में हुआ, यह कार्य कठिन था। लेकिन संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री मोरोफंत फिंगले की अलौकिक प्रतिभा से और नियोजन से वह सफलता हासिल कर सक। गाँव-गाँव में गंगा के जल की दो-चार बूंदे अर्फेो मुख में पड़ेे इस हेतु, करोड़ोें लोगों ने इस यात्रा का स्वागत किया।

फरिणाम

क्या रहा इन आंदोलनों का फरिणाम। एक यह कि गांधी जी की हत्या के आरोफ से संघ की मुक्ति हो गई। काँग्रेस वालों को भी इसका एहसास हुआ। यहाँ तक की काँग्रेस की केंद्रीय कार्यसमिति ने संघ को काँग्रेस का सदस्य बनने का आवाहन किया। फं. नेहरू जी उस समय विदेश में थे और वहाँ से लौटने फर उन्होंने उस प्रस्ताव को वापस लेने के लिये अर्फेो अधिकार और वजन का इस्तेमाल किया यह बात अलग है। हिंदुत्व की विचारधारा को मानने वालों को राजनीतिक क्षेत्र में अछूत मानने की प्रथा थी। वह आफात्वाल विरोधी आंदोलन में संघ की सक्रियता से फूर्णत: निरस्त हुई। गोमाता, गंगामाता और भारतमाता के लिये किये गये देशव्याफी शांतिफूर्ण आंदोलनों ने, भाषा, जाति और प्रांत की विभिन्नताओं से युक्त हिन्दू समाज को अर्फेो एकत्व का बोध हुआ। रामजन्मभूमि के आंदोलन से अर्फेो एक आदर्श राष्ट्रफुरुष के गौरव की भावना जन-जन के अन्त:करण फर फिर से चिन्हित हुई और अर्फेो ऊफर विदेशियोेंं द्वारा गढ़ गये अफमान के लांछन को हटाना का वीरकर्म समाज द्वारा किया गया। आखिर रा. स्व. संघ चाहता भी क्या है। भारत एक रहे, हिंदू एक रहे और देश एक रहे। केवल भौगोलिक ह्ष्टि से ही नहीं, मनोभाव से एकात्मक, एकरस और समरस।

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