ताकि आलोक की साधना हमारा संस्कार बने

हमारी मान्यता है कि प्रभु श्रीराम लंका विजय के पश्चात् सीता, लक्ष्मण व वानर भालू योद्धाओं के साथ अयोध्या वापस लौटे तो अयोध्यावासियों ने पूरे नगर को दीपों से सजाकर अपनी प्रसन्नता उजागर की. तभी से उस अवसर की स्मृति में प्रतिवर्ष दीप-पर्व मनाने की परंपरा पड़ी जो आज तक यथावत चली आ रही है। रावण की पराजय केवल एक अहंकारी, अन्यायी एवं संतजनपीड़क आततायी सम्राट का पराभव नहीं था और न विभीषण का राजतिलक एक सामान्य सत्ता परिवर्तन, बल्कि उसे एक महान संकल्प की परिणति समझना चाहिए जो ईश्वर को भी मनुष्य को रूप में अवतरित होने हेतु बाध्य करती है, जिसका उल्लेख गीता में श्रीकृष्ण ने,

‘‘यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्हम’’ श्लोक में तथा रामचरित मानस में तुलसी ने रामावतार के कारण रूप निम्नर्िंलखित चौपाई में किया है-

‘‘जब जब होई धरम की हानी, बाढ़हिं असुर महाअभिमानी।
तब तब घरि प्रभु मनुज सरीरा, हरहिं सकल सज्जन भव पीरा।’’

रावण और रावण की आज्ञा से उसके बंधु-बांधव साक्षसों ने अपनी भुजाओं की ताकत से सारे विश्व को वश में कर लिया था। उसका राज्य शास्त्रोक्त रीति-नीति से नहीं बल्कि उसकी मन की इच्छा से चलता था। राक्षस गण-

‘‘जेहि विधि हों हि धर्म निर्मूला, सो सब करहिं वेद प्रतिकूला।
सम आचरन कतहुँ नहि होई, देव विप्र गुरु मान न कोई।’’

धर्म के प्रति लोगों की अतिशय अनास्था देख पृथ्वी अत्यंत भयभीत एवं व्याकुल होकर धेनु रूप में, रावण के भय से छिपे देवताओं और ऋषि-मुनियों के सम्मुख रोती हुई पहुँची। वहाँ से सब अपनी विपत्ति गाथा लेकर ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा सहित सभी देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कैसे पावें ताकि उनके सामने अपनी फरियाद रखं सकें।

‘‘बैठे सुर सब करहिं विचारा, कहँ पाइय प्रभु करिय पुकारा।’’

तब सभा में उपस्थित शिव जी ने अपना मंतव्य रखा कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं और वे प्रेम से पुकारने पर इस प्रकार प्रकट हो जाते हैं जैसे अरणिमंवन से अग्नि प्रकट हो जाती है-

‘‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रगत होहिं मैं जाना।
अगजग मय सब रहित विरागी, प्रेम ते प्रभु प्रगटहिं जिमि आगी।’’

शिवजी की बात से सहमत देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की तब देवताओं और पृथ्वी के शोक एवं संदेह का हरण करने वाली आकाशवाणी हुई-

‘जनिडरपहु भुनि सिद्ध सुरेसा, तुम्हहिं लागि धारिहहुँ नर भेसा।
असन्ह सहित मनुज अवतारा, लेहहुँ दिनकर बस उदारा।

हम सब जानते हैं कि प्रभु श्री राम ने सूर्यवंशी क्षत्रियों के कुल में जन्म लेकर स्वयं धनुष-बाण धारण कर पापी राक्षसों का समूल नाश किया। हम यह भी जानते हैं कि ईश्वरावतार अधर्म की अति होने पर कल्प में एक ही बार होता है। तब अन्य समय में हमारी रक्षा कौन करेगा? क्या ईश्वर अंश जीव अविनासी’ मानने वालों की संतति अगले अवतार की प्रतीक्षा में पाप और अधर्म के अंधकार को सहती रहेगी या स्वत्व रक्षा का उपाय भी करेगी? सूर्य के अस्त हो जाने पर क्या मिट्टी के छोटे-छोटे दिये अपनी शक्तिमय गहन अंधकार से रात भर लड़ते नहीं रहते? क्या मनुष्य जाति मिट्टी के दिये से भी क्षुद्र हैं? मनुष्य होने का धर्म तो यही सिखाता है कि वह अपने जीवन का रूपांतरण एक ऐसे दीपक में करे जिसका आधार सत्य हो, जिसमें धैर्य की बाती हो, जो प्रेम के तेल से जलता हो और जिसमें शोक तथा संदेह के अंधकार को छिन्न-मिन्न करने वाले धर्म का प्रकाश विकीर्ण होता हो, इसके लिए आवश्यकता होती है ईश्वर की सर्वत्र व्यापकता में अटूट विश्वास की, धर्म की शक्ति में निष्कंप अस्था की और अंधकार से निरंतर जूझने वाले सूर्य के वंशज दिये की अपार निष्ठा की। प्रकाश की साधना धर्म की साधना की तरह एक सतत प्रक्रिया है, एक परीक्षा है। यह कोई रस सिद्धि नहीं है कि एक बार धर्म को प्राप्त कर लिया, प्रकाश को साध लिया और उसकी पूँजी पर सारा जीवन बिता दिया, ऐसा नहीं है कि अंधकार को एक बार छाँट दिया तो वह सदा के लिए दूर हो गया। अंधकार तो बार-बार घेरता है, उसे बार-बार छांटने के लिए प्रयास करना पड़ता है। अधर्म की भी यही चाल है। वह हर युग में नये-नये रूपों में उत्पन्न होता है। अधर्म में संमोहित करने की, अपने वश में कर लेने की भी बड़ी शक्ति होती है। जैसा कि महाभारत में कहा गया है-

‘‘अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्चति।
तत:, सपत्नान् जगति समूलस्तु विनश्यति॥’’

अर्थात् अधर्म से उन्नति बहुत शीघ्रता से होती है। आदमी बड़े अच्छे दिन देखता है। अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करता चला जाता है, ऐसा लगता है सब कुछ तूफान की गति से हो रहा है। तब लोग सोचने लगते हैं कि धर्म में क्या रखा है। सब कुछ अधर्म से हो रहा है। लेकिन जिनमें विवेक का प्रकाश होता है वे अधर्म के बहकावे में आकर भटकते नहीं है। उनका चित् अधर्म से हुई उन्नति के अंतिम परिणाम ‘समूलस्तु विनश्यति’ के प्रति सदैव जागृत रहता है। तुलसी के लिए इस जागृति अथवा विवेक का आश्रय श्रीराम हैं। राम धर्म और विवेक का मूर्तिमंत विग्रह हैं। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धर्म और विवेक का आधार नहीं छोड़ते। ‘यतोधर्मस्ततोजय:’ को उन्होंने अपने जीवन में घटित किया। राम-रावण युद्ध के समय ‘रावण रथी विरथ रघुवीरा’ देखकर विभीषण विजय के प्रति आशंकित हो उठते हैं। तब राम विभीषण से उस धर्म मय रथ का वर्णन करते हैं, जिस पर आरूढ़ होकर रावण तो क्या संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी जीता जा सकता है। वह रथ कैसा है-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं, सत्य और सदाचार उसकी मजबूत ध्वजा-पताका हैं। बल, विवेक, संयम और परोपकार उसके चार घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता की रस्सी से रथ में जोड़े हुए हैं। विद्वानों का और गुरु का पूजन ही अमेद्य कवच हैं, ऐसा है राम का रथ-

‘‘सखा धर्ममय अस रथ जाके, जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके।’’

राम की यह विजय लोक कल्याण को समर्पित थी। राम की जय अधर्म पर धर्म की जय थी, असत्य पर सत्य की जय थी, अंधकार पर प्रकाश की जय थी। आज भी जब दो लोग मिलते हैं तो जय राम जी की बोलते हैंं, क्योंकि राम जी की जय में ही लोक की जय है। हमारी भी जय है, तुम्हारी भी जय है। इस पृष्ठभूमि के साथ राम की अयोध्या वापसी पर अयोध्यावासियों ने जिस मंगल भावना से नगर को दीपों से सजाया था, उसका सहस्रांश भी आज के युग में मनायी जाने वाली दीपावली में देखने को नहीं मिलता। पर्व से अधिक महत्व पर्व मनाने के भाव का होता है। भावहीन पर्व का कोई अर्थ नहीं। केवल परंपरा निर्वाह और उत्सवधर्मिता के कारण मनाये जाने वाले त्योहारों का कोई मूल्य नहीं। त्योहार मनाने के तरीकों में हमारी संस्कृति झलकती चाहिए। आज दीपावली की रात में कानफोडू पटाखों और उनसे निकलते जहरीले धुएँ से कौन सी संस्कृति दिखती है। शोरगुल और धुएँ से पड़ोस के बीमारों, वृद्धों को होने वाली परेशानी की भी कौन परवाह करता है। शहर की अमीर बस्तियों में रातभर बिजली की झालरे चमकती रहें, इसके लिए शहर के आधे भाग, जिसमें गरीब-

गुरबे रहते हैं, की बिजली गुल कर दी जाती है। सजे-धजे बाजारों में भी काली लक्ष्मी की छाया नजर आती है। फुटपाथों पर दूकानें लगाकर दिहाड़ी कमाने वाले छोटे दूकानदारों और रेहड़ीवालों को इसलिए भगा दिया जाता है कि मालों और बड़ी दूकानों में जाने वाले अमीर ग्राहकों को असुविधा न हो। यह दीवाली निर्वासित राम की वापसी की खुशी की दीवाली नहीं है यह तो अपनी शान-शौकत और महत्ता को स्थापित करने का अश्लील मजाक है। इसमें तो आदमी के आदमी से जुड़ने की बजाय आदमी को छोटे-बड़े, अमीर-गरीब में बांटने का आयोजन है। दीपावली जैसा त्योहार तो एक तीर्थ यात्रा की तरह होना चाहिए, जहां एक तीर्थयात्री दूसरे तीर्थ यात्री को तीर्थ तक पहुंचाने ने पुण्य अर्पित करता है। वह क्या तीर्थयात्री जो दूसरे तीर्थयात्री को तीर्थ तक पहुंचाने के लिए तैयार न हो। पुराणों में एक कथा आती है कि शिव पार्वती एक बार पृथ्वी पर विचरण करने निकले। पार्वती ने देखा कि ढेर के ढेर लोग एक ही दिशा में चले जा रहे हैं। उन्होंने शिव जी से जानना चाहा कि इतनी बड़ी संख्या में लोग कहां जा रहे हैं। शिव जी ने बताया कि ये सब लोग मोक्ष की कामना से माघ मास में प्रयागकल्प हेतु जा रहे हैं। पार्वती ने जानना चाहा कि क्या इतने सब लोगों को एक साथ मोक्ष मिल जायेगा। तब तो पृथ्वी पर कोई पापी बचेगा ही नहीं। शिव जी ने कहा कि ऐसा नहीं है ये सब लोग प्रयाग की ओर तो जा रहे हैं लेकिन प्रयाग इनमें से कोई एक-आध ही जा रहा है। अपने कथन को सिद्ध करने के लिए शिव जी कोढ़ी के वेश में राह में बैठकर हर जाने वालों से उन्हें भी प्रयाग ले जाने की याचना करने लगे। उनके कोढी रूप को देखकर लोग मुँह बिचकाकर चले जाते, कोई अपने साथ ले जाने को तैयार न हुआ। अंत में एक गरीब किसान ने कोढ़ी-शिव को सहर्ष अपने कंधे पर बैठा लिया और उन्हें लेकर प्रभाग की ओर चलने लगा। तब शिव जी ने अपने असली रूप में प्रगट होकर उस गरीब किसान को आशीर्वाद दिया और पार्वती को बताया कि इन सब प्रयाग जाने वालों में असली तीर्थयात्री केवल वह किसान है, अत: मोक्ष का अधिकारी भी केवल वही है।

अभी हमारी जातीय स्मृति में दीपावली का वह भावनमय बिंब सुरक्षित है, जिसमें घरों की साफ-सफाई से, पंद्रह दिन पूर्व ही दीपावली का माहौल बनने लग जाता था। बाजारु वस्तुओं के बजाय अपने श्रम से पैदा की गई, गाँव-खेत में उपलब्ध सामग्रियां त्योहार मनाने के लिए पूरी पड़ जाती थी। बाती बनाने का कयास अपने खेत में पैदा होता था तो जलाने के लिए तेल भी घर में घरे सरसों की पिराई से मिल जाता था। मिट्टी के दिये भी गांव का कुम्हार सबके यहाँ पहुँचा जाता था। अमीर-गरीब सबके घर में मिट्टी के ही बने गणेश-लक्ष्मी का खील-बताशों से पूजन होता था। कहीं कोई स्वांग नहीं, धन प्रदर्शन की फूहड़ता नहीं, नकली चमक-दमक नहीं। सबमें त्योहार मनाने का उत्साह, उल्लास और संतोष। सबके घर लक्ष्मी पधारें, सब के घर धन-धान्य से पूरित रहें, सब यही कामना करते थे। सबकी बरकत में अपनी बरकत देखने की भावना ही प्रधान रहती थी।

आज हमारी जीवन शैली बदली, सोच बदली, सरोकार बदले तो दीपावली मनाने का ढंग भी बदल गया। बिजली के लट्टुओं के तेज प्रकाश में मिट्टी के दियों की रोशनी फीकी लगने लगी है। मन और हृदय के प्रकाश की बात केवल कविता का विषय बन गयी है। मन की कोमल भावनाओं की गिनती मानवीय कमजोरियों में की जाती है। धन-दौलत प्रतिष्ठा का मानदंड है। शुभ-लाभ का स्थान लाभ-शुभ ने ले लिया है। टेलीविजन और इंटरनेट ने हमें दुनिया से जोड़ दिया लेकिन पड़ोसी से काट दिया। धर्म पूजागृह में सिमट गया है। लोक-व्यवहार में अधर्म ही प्रबल है। बंधी-बंधाई दिनचर्या में बुजुर्गो की सलाह दखलंदाजी मानी जाती है। बच्चे माँ की लोरियों और दादी-नानी की कहानियाँ से नहीं बदलते, डोरेमान और कार्टून फिल्मों से खुश होते हैं। पब, डिस्कोथेक एवं रेव पार्टियां युवकों-युवतियों के मनोरंजन स्थल हैं। जैसे-जैसे गाँव शहरों में तब्दील होते जा रहे हैं, जीवन की सरलता, सहजता एवं भोलापन भी नष्ट होता जा रहा है। रिश्वत, ठगी, बेईमानी एवं भ्रष्टाचार व्यवहारिकता के लक्षण बनते जा रहे हैं। हर क्षेत्र में राम नहीं रावण का चेहरा ही झाँकता नजर आता है।

हम स्वीकार करते हैं कि समय के साथ जीवन में बदलाव आता है। सुख-सुविधा की चीजें बनेगी तो लोग उनका उपयोग भी करेंगे। धन के महत्व से भी हमें इंकार नहीं है। लेकिन अनियंत्रित बदलाव, असंयमित उपभोग और असीमित धनलिप्सा जीवन का सच कमी नहीं हो सकता। भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति में विवेकपूर्ण संतुलन हर युग में सुख का आधार रहेगा। धर्म की परिभाषा और उसके तत्व नही बदलते। युगों-युगों से मानव गरिमा का प्रतिमान बने मानव मूल्यों में भी परिवर्तन नहीं होता। हर राष्ट्र का एक जातीय चरित्र होता है, उसके अपने विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतीक होते हैं जो हर राष्ट्रवासी के लिए प्रेरणास्रोत एवं मार्गदर्शक होते हैं। उनके अर्थ धूमिल होते हैं तो राष्ट्रीय जीवन खतरे में पड़ जाता है। भारत के लिए सांस्कृतिक अस्मिता और उसकी आध्यात्मिक जीवन दृष्टि अधिक महत्वपूर्ण केवल इस कारण नहीं है कि वे भारत की वास्तविक पहचान हैं बल्कि इस कारण भी है कि विश्व गुरु का स्थान उसे इन्हीं विशेषताओं के कारण प्राप्त है। दीपक भारतीयता का सर्वश्रेष्ठ संस्कृतिक प्रतीक है, क्योंकि उसमें भारतीय ऋषि-मुनियों की आत्मिक ज्योति की झाँकी दिखाई देती है, जिन्होंने मानवता के पथ को आलोकित करने हेतु सदैव ज्ञान का आलोक प्रसारित किया है। अत: दीपों के त्योहार दीपावली हमें इस प्रकार मनाना चाहिए, जिसमें हमारी संस्कृति झलकती हो। हमारे पूर्वजों ने आलोक की साधना की है, हमारा कर्तव्य है कि हम आलोक पुत्र होने का प्रमाण दें, जिससे आने वाली पीढ़ियों में भी आलोक की साधना का संस्कार बना रहें।
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