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विवाह का छल

विवाह का छल

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in कहानी, नवम्बर- २०१२
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कोठीनुमा बंगले के बड़े हाल में सुमधुर कर्णप्रिय भारतीय संगीत बज रहा था। तबले और सितार के बीच बांसुरी की धुन मन को मोह रही थी। पूरा हाल सजा हुआ, नयनाभिराम दृश्य और रंग-बिरंगी बत्तियां, सुन्दर चित्रकारी वाला कालीन, दीवारों पर लगे मंहगे और आकर्षक चित्र आरती और रोहन सक्सेना की सम्पन्नता की गवाही दे रहे थे। संगीत का आनन्द लेते हुए युवक-युवतियां, बच्चे एवं वृद्ध सभी वहाँ परोसे जा रहे सुस्वादु पेय और खाने की चीजों का आनन्द ले रहे थे। यहाँ पर एक पार्टी का आयोजन किया गया था, जिसे आरती एवं रोहन ने अपनी बेटी अर्पिता के जन्म-दिन के उपलक्ष्य में आयोजित किया था। उनके घर में शाम को आयोजित पार्टी में प्राय: सभी रिश्तेदार, मुहल्ले के परिचित लोग, रोहन के काम-काज में सहयोगी और अर्पिता के मित्र, सहपाठी आ गये थे। थोड़ी ही देर में ‘केक’ काटने और मोमबत्ती बुझाने की रश्म पूरी होने वाली थी। हाल के मध्य में सजायी गयी बड़ी मेज पर अर्पिता का जन्म-दिन ‘केक’ रखा था, जिस पर उसका नाम लिखा था। सामने बाईस मोमबत्तियां लगी थीं, जो उसकी बाईस वर्ष की आयु पूरी होने का संदेश दे रही थीं। लक-दक पश्चिमी शैली के परिधान में सजी अर्पिता और उसके माता-पिता आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। वे बड़े विनीत भाव से पूरे हाल में घूम-घूम करके सबसे मिल रहे थे। अर्पिता की सहेलियां भी उसी की भाँति सज-धज कर आयी थीं। उसकी प्रिय सखी सुलेखा अपने पति रिजवान के साथ आयी थी। रिजवान का मित्र सलीम भी उसके साथ था। अर्पिता ने इन दोनों को भी अपने जन्म-दिन के समारोह में आने का निमन्त्रण-पत्र दिया था। अर्पिता और सलीम का कुछ दिनों पहले ही परिचय हुआ था। यह परिचय रिजवान ने ही कराया था।

जन्म-दिन का ‘केक’ काटने और अर्पिता द्वारा फूंक करके मोम बत्तियां बुझाने के साथ ही सब लोग एक स्वर में ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू-अर्पिता’ कह उठे। अर्पिता ने अपने पास खड़े माता-पिता तथा रिश्तेदारों के हाथ से ‘केक’ खाया और अपने हाथ से उन सबको भी खिलाया। बधाई और उपहार देने के लिए तांता लग गया। सैकड़ों पुष्पगुच्छ से हाल का एक कोना ढंक गया। उन पर लगी ‘नामपट्टी’ लाने वाले का परिचय और हैसियत बता रही थी। छोटे-बड़े डिब्बों में बन्द उपहारों का भण्डार लग गया। उन पर भी लाने वालों का नाम व पता लिखा था। आगे बढ़कर सुलेखा-रिजवान और सलीम ने भी अर्पिता को पुष्पगुच्छ एवं उपहार भेंट किया। सलीम के उपहार को अर्पिता ने बड़ी आत्मीयता और प्रसन्नता से स्वीकार किया। उपहारों के लेन-देन के उपरान्त खाना खाया गया। खान-पान बड़ी देर तक चलता रहा।

रोहन सक्सेना एक बड़ी कम्पनी में प्रबन्धक थे। उनका अपना भी निर्यात का कारोबार था, जिसमें आरती उनका हाथ बंटाया करती थी। नौकरी और कारोबार के चलते वे बड़े व्यस्त रहते थे। मेहनत और लगन से काम करके वे यहॉ तक पहुँचे थे। उन्होंने अपने बच्चों का पालन-पोषण पश्चिमी जीवन शैली में किया था। पढ़ाई के लिए बेटी अर्पिता को दूसरे शरह में भेजा था और वहीं पर छात्रावास में उसके रहने की व्यवस्था की थी। उन्होंने बेटी को कहीं आने-जाने और किसी के साथ मिलने-जुलने पर कभी कोई पाबन्दी नहीं लगायी थी। इसलिए अर्पिका की सलीम की मित्रता को उन्होंने बड़े सहज भाव से लिया था।

सलीम इसी शहर का रहने वाला था। सुलेखा ने उसके बारे में अर्पिता से सब कुछ बता दिया था। रिजवान के बताने के अनुसार ही सुलेखा ने अर्पिता से सलीम का परिचय दिया। उसने बताया था कि सलीम एक प्रतिष्ठित परिवार का लड़का है। उसके पिता इमाम हैं। उनकी समाज में बड़ी इज्जत है। पढ़ा-लिखा कारोबारी परिवार है। देखने में सलीम बड़ा सुदर्शन है। बात-चीत में भी निपुण और व्यावहारिक है। पहनावे और हाव-भाव से बड़ा शालीन और संस्कारी लगता है। महंगे कपड़े व जूते, हाथ में कीमती घड़ी, नया मोबाईल उसके संभ्रान्त होने का परिचय देते हैं। स्वभाव खुश मिजाज और मिलनसार। आते-जाते एक दिन सलीम ने अर्पिता से उसका मोबाईल नंबर ले लिया। घर पहुँचते ही अर्पिता के फोन की घंटी बजी। सलीम ने फोन किया था।

‘‘क्या हुआ सलीम, घर पहुँच गये?’’ अर्पिता ने पूछा।
‘‘अभी मैं रास्ते में ही हूँ। कल आपको समय मिल सकेगा?’’
‘‘क्या बात है?’’
‘‘कल हम दरगाह जा रहे हैं। बड़े सिद्ध फकीर की दरगाह है। सोचा आप भी चली चलिए।’’
‘‘ठीक है, देखती हूँ।’’

रात में फेशबुक पर सलीम ने पूरी योजना अर्पिता को समझा दी। इसमें वह हमेशा रिजवान की सहायता लेता था। अगले दिन दोनों शहर से तीस-पैंतीस किलोमीटर दूर स्थित दरगाह पर पहुँच गये। वे मोटर साइकिल से गये थे। वहाँ दोनों ने रीति के अनुसार धार्मिक कार्य किए। सलीम ने बताया कि वह वहाँ हमेशा आता रहता है। उसकी धार्मिक प्रवृत्ति से अर्पिता खूब प्रभावित हुयी। सलीम उसे इमाम के पास ले गया। वहाँ बैठकर बातें होने लगीं।

‘‘इस्लाम सदैव शान्ति और भाई-चारे की बात करता है। किसी प्रकार का भेद नहीं करता। अल्लाह के दरबार में सभी बराबर हैं।’’ इमाम ने बड़ी कोमल वाणी में बताया। अर्पिता सिर पर पल्लू रखे केवल सुन रही थी। ‘‘ऊपर वाला सबके कल्याण की सोचता है, जो उसे मानता है उसे भी, जो नहीं मानता उसे भी।’’ यह कहते हुए इमाम ने कीमती इत्र की शीशी इत्र उपहार में दिया। वहाँ से विदा होते समय अर्पिता बहुत प्रशन्न थी।

सलीम जब भी अर्पिता के साथ होता, उसे अपने परिवार, रहन-सहन और रीति-रिवाज की बातों में उलझाये रखता। उसे अपने मौलवी पिता और धर्मनिष्ठ माता के बारे में बताता। धीरे-धीरे अर्पिता को सब अच्छा लगने गया। वह जब कभी सलीम की माँ से मिलती, तो बड़े अदब से बात करती। एक दिन जब दोनों कहीं से लौट रहे थे, सलीम ने अर्पिता से कहा,

‘‘मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूॅ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘हां, मैं कई दिनों से यह बात तुमसे कहना चाहता था?’’
‘‘लेकिन मैंने तो ऐसा कभी सोचा नहीं।’’
‘‘अब सोचिए।’’
अर्पिता बिना कोई उत्तर दिये चलती रही। वह गम्भीर हो गयी। उसकी चुप्पी को सलीम ने स्वीकृति मान ली। वे बिना आगे बात बढ़ाये अपने-अपने घर चले गये। अर्पिता के मन में एक उलझन पैदा हो गयी। वह इस विषय में दुविधा में फंस गयी, क्योंकि उसके माता-पिता उसके विवाह की बात कहीं चला रहे थे। विवेक एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में केमिकल इंजीनियर था। आरती से विवेक की एक-दो बार भेंट भी हो चुकी थी। उसके घर तक रोहन सक्सेना हो आये थे।

एक दिन आरती माल में खरीदारी के लिए गयी थी। जाते समय ही रास्ते में उसे सुलेख मिल गयाी। सिर से पैर तक बुरके में ढंकी उसे देखकर आरती हतप्रभ रह गयी। उसके चेहरे का ओज भी लुप्त था। आरती सुलेखा को अपने साथ माल में लेती गयी। वही बातें होने लगी।
‘‘तू कैसी बदल गयी? बड़ा अजीब लग रहा है, यह देखकर।’’
सुलेखा चुप रही। वह इधर-उधर देखने लगी। जैसे वह किसी से डर रही हो।
‘‘क्या हुआ?’’ आरती ने पूछा।
‘‘तू सलीम से मिलती है?’’ सुलेखा ने झटके से पूछा।
‘‘हाँ, क्या बात है?’’
‘‘अब मत मिला करों। उससे कभी मत मिलना।’’ यह कहते हुए वह घबरा रही थी।

आरती ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया उसे ढाढ़स बंधाते हुए सब कुछ साफ-साफ बताने के लिए कहा। फिर सुलेखा मे अपने बारे में जो कुछ बताया उसे सुनकर आरती सन्न रह गयी।

रिजवान और उसके माता-पिता बड़े गरीब थे। रिजवान यद्यपि देखने में सुन्दर, व्यवहार कुशल था, किन्तु न पढ़ा-लिखा था और न कोई काम करता था। बस दिन भर दोस्तों के साथ घूमना और लड़कियों पर फब्तियां करना। सुलेखा से मित्रता उसने बड़ी चलाकी से की थी। वह उसे उपहार देता। मोटर-साइकिल पर घुमाता। मोबाईल उसने ही दिया था। होटल में नाश्ता कराता। यहाँ तक कि सिनेमा भी दिखाने ले जाता। दिल खोलकर खर्च करता। कभी-कभी हजार-डेढ़ हजार तक खर्च कर देता। उसे देखकर लगता वह अच्छी आमदनी वाला व्यक्ति है।

आरती चुपचाप सुन रही थी। सुलेखा ने बताया,
‘‘दर असल रिजवान एक ऐसे समूह का सदस्य है, जो गैर मुस्लिम लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाते हैं। उनके सामने झूंठा दिखावा करते हैं। शान बधारते हैं। इसमें अनेक मुस्लिम संस्थाएं और लोग उनकी आर्थिक सहायता करते हैं। इन लड़कों को पहनने के लिए अच्छे कपड़े, महंगी घड़ियां, सोने की चेन देते हैं। घूमने के लिए मोटरसाइकिल, बात करने के लिए माोबाईल फोन और खर्च के लिए पैसे देते हैं। रिजवान को भी सबकुछ मिलता था।’’

‘‘फिर?’’ आरती ने पूछा।
‘‘मैं, यह सब समझ नहीं सकी।’’ आरती ने कहा।
‘‘तो अब क्या हुआ?’’
‘‘अब तो मैं कही की नहीं रही। रिजवान मुझे बहुत कष्ट देता है। मारता-पीटता है। पहले दो-तीन महीने सब ठीक था, किन्तु आगे चलकर बड़ी प्रताड़ना दी जा रही है। इस्लामी पद्धति से जीने को मजबूर किया जा रहा है। वही खान-पान, वही रहन-सहन अपनाना पड़ रहा है। बड़े दु:ख की बात यह है कि वह पहले से ही विवाहित है। उसकी बीवी और एक बेटी है। उसने मेरे साथ छल किया। अब जब भी मैं कुछ पूछती हूँ, मुझे मारकर अधमारा कर देता है। उसके परिवार वाले उसी की तरफदारी करते हैं।’’ वह रुआंसी हो गयी।

‘‘क्या तुमने अपने माता-पिता से यह सब बताया?’’ आरती ने सहानुभूति पूर्वक पूछा।
‘‘उनसे क्या बताना, वे तो पहले ही समझा रहे थे। मैं ही पागल हो गयी थी। मैं इन सबके षडयन्त्र को समझ नहीं पायी। हालांकि मैंने समाचार पत्रों में मंगलुरु, कन्ननूर, गोवा की ऐसी एक-दो घटनाओं के बारे में पढ़ा था।’’ सुलेखा ने कहा।
‘‘वहाँ की कैसी घटना है?’’

‘‘वहाँ पर लव जिहाद और लव रोमियो आन्दोलन चल रहा है। अब तो यह पूरे देश में फैल गया है। रिजवान और सलीम जैसे युवा लड़कों ने ही यह चला रखा है, जिसमें भोली-भाली गैर मुस्लिम लड़कियों को झांसा देकर विवाह करके इस्लाम कबूल कराया जाता है। बाद में उनके साथ मेरे जैसा व्यवहार किया है।’’
‘‘ऐसी और भी लड़कियां है?’’
‘‘हाँ, पूरे देश में हजारों हैं। पिछले दो-तीन वर्षों में ही दस-बारह हजार लड़कियों कों फंसया गया होगा।’’
‘‘हे भगवान!’’ आरती के मुुंह से निकल पड़ा। ‘‘तुम किसी और लड़की से मिली हो?’’
‘‘हॉ, उसे तो दो बच्चों की माँ बनने के बाद घर से निकाल दिया गया।’’ सुलेखा ने दु:खी मन के कहा।

‘‘क्यों?’’
‘‘वह भी दूसरी बीवी थी उसका पति भी निकम्मा ही था।… कहते हैं कि उसे धन्धे के लिए मजबूर कर रहा था वह।’’ सुलेखा ने बताया।

आरती ने सुलेखा को ढ़ाढ़स बंधाते हुए कहा कि वह निराश न हो। उसका मामला पुलिस में पहुंचाया जाएगा। किन्तु पुलिस की चर्चा से ही सुलेखा सहम गयी। उसने अपने गले से कपड़ा हटाते हुए दिखाया। वहाँ चोट के निशान थे। इसी तरह हाथ, गरदन, पैर में भी निशान थे। सुलेखा ने बताया,

‘‘मुझे इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाव डाला जाने लगा, तो मैंने मना कर दिया। पहले तो रिजवान ने मुझे समझाया, किन्तु न मानने पर मेरी बहुत पिटाई की। और जबरदस्ती मुझसे इस्लाम कबूलवाया और मेरा नया नाम रख दिया-सलमा। अब मैं सलमा हूँ।’’ कुछ देर दोनों चुप बैठी रहीं। एकाएक उठते हुए सुलेखा ने कहा,
‘‘आरती मुझे क्षमा करना। सलीम के बारे में तुमसे अनजाने में गलत जानकारी दी है। वह अच्छा व्यक्ति नहीं है। जितनी जल्दी सम्भव हो, उससे नाता तोड़ लेना।’’

इतना कहकर वह तेजी से चली गयी। आरती उसे देखती ही रही।
अर्पिता अपने विवाह की बात अधिक दिन तक छिपा कर नहीं रखना चाहती थी। उसने, बातों ही बातों में एक दिन अपने विवाह के बारे में सलीम से सब कुछ बता दिया। अर्पिता के विवाह की बात सुनते ही सलीम झल्ला उठा। वह तैरा में आ गया। वह ऐसा व्यवहार करने लगा, मानों अर्पिता पर उसका कोई अधिकार हों। उसने अर्पिता को झकझोरते हुए कहा,

‘‘तुम तो जानती हो कि हमने अपने विवाह के लिए रजिस्ट्रार कार्यालय में प्रार्थना पत्र दे दिया है। एक सप्ताह बाद हमारे विवाह की तारीख है। फिर तुमने अपनी सहमति विवेक के साथ विषाद करने के लिए कैसे दे दिया?

‘‘देखो सलीम, मैंने तुम्हारे साथ विवाह के लिए कभी भी हाँ नहीं कहा था। तुम स्वयं ही अकेले सब तैयारी करते रहे।’’ अर्पिता ने उत्तर दिया।
इस समय सलीम कुछ भी सुनने की मन:स्थिति में नहीं था। वह लगातार अर्पिता पर दबाव बना रहा था कि वह विवाह के लिए राजी हो जाए। उसने फोन करके रिजवान को भी बुला लिया। दोनों ने अकेली अर्पिता को अनुनय-विनय के साथ ही जोर-जबरदस्ती का व्यवहार शुरू कर दिया। परिस्थिति प्रतिकूल देखकर अर्पिता ने समझदारी से काम लिया। उसने बहस टालते हुए कहा,

‘‘ठीक हैं, सोचती हूँ। मुझे दो-चार दिन का वक्त दीजिए।’’
सलीम कुछ देर चुप रहकर बोला,
‘‘अभी हम लोग अब्बू के पास चलते हैं। वे सब सम्हाल लेगें। रजिस्ट्रार कार्यालय की औपचारिकताएं हम बाद में पूरी कर लेंगे।’’
रिजवान भी उसकी बात का समर्थन करने लगा। सलीम किसी भी हाल में आज ही अर्पिता के साथ अपनी रीति-रिवाज के मुताबिक विवाह करना चाहता था। अर्पिता बिना कुछ बोले उठी, अपना पर्स उठाया और पूरे आत्मविश्वास के साथ बाहर आ गयी। वे दोनों भी बातें करते हुए पीछे-पीछे आये। अर्पिता ने टैक्सी बुलायी। सलीम कुछ कहता, इससे पहले वह टैक्सी में बैठ गयी। टैक्सी उसके बताए घर के रास्ते पर चल पड़ी।

अर्पिता का मन बहुत बेचैन था। वह सलीम और रिजवान के व्यवहार से क्षुब्ध थी। उसके मन में कई तरह के विचार आं-जा रहे थे। उसे अपना पूरा बचपना याद हो आया, जब उसकी दादी मां तुलसी के चौरे के पास बैठकर पूजा करती थी, तो उससे श्लोक पढ़वाती थीं। शाम को पूजाघर में बैठकर रामचरित मानस का पाठ करती थीं। उसने पर्स में रखा हनुमान चालीसा निकाला। मन ही मन बजरंगबली को स्मरण किया। उसे बड़ा आत्मबल मिला। उसकी चिन्तन प्रक्रिया अब भी चल रही थी। वह सोचने लगी। सलीम अच्छा मित्र भले है, किन्तु विवाह उससे कैसे कर सकती है? विवाह केवल दो व्यक्तियों का सम्बन्ध नहीं है, वह दो परिवारों और दो समाजों का मिलन भी है। इस विवाह से क्या दोनों परिवार उसी सौहार्द भाव से मिल सकेंगे? उसके मन ने ही उत्तर दिया, शायद नहीं। और फिर उसके मन ने कहा, यहाँ विवाह कहाँ है, यहाँ तो छल, कपट, धोखा है।

टैक्सी अपनी गति से चिक्कन-सपाट सड़क पर दौड़ी जा रही थी। अर्पिता के मन में हलचल मची थी। वह सोच रही थी कि सलीम से विवाह करके क्या वह अपनी मान्यताएं जीवित रख सकेगी? क्या वह बचपन से करती आ रही शिवजी और माता गौरी की पूजा करती रह सकेगी? क्या वह कृष्ण जन्माष्टमी और शिवरात्रि का व्रत रख सकेगी? क्या वह दशहरा, दीवाली और होली के त्योहार मना सकेगी? नहीं ऐसा नहीं हो सकेगा, उसने मन हो मन कहा। वह इतना स्वार्थी नहीं बनना चाहती कि उसके एक ही निर्णय से उसकी दादी माँ का बुढ़ापा कष्टमय हो जाए और उसके माता-पिता की मान-प्रतिष्ठा धूल में मिल जाए। वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती, जो उसके परिजनों को ठेस पहुंचाना हो और उसका स्वयं का जीवन नरक बना दे। उसने निश्चय कर लिया कि वह घर जाकर माता जी से कहेगी कि जितना जल्दी हो सके। विवेक के माता-पिता से बात करके विवाह की तैयारी शुरू करें।

टैक्सी घर के सामने रूक गयी। अर्पिता ने पर्स से पैसे निकालकर किराया चुकता किया। फाटक खोलकर अन्दर गयी। घर बिजली के प्रकाश से जगमगा रहा था। घर के भीतर से दादी माँ के गाने की धीमी आवाज आ रही थी- वे विवाह गीत गा रही थी-
‘‘सिकिया बरनि हम पातरि बाबा,
एंगुरा बरनि हम गोरि।
हमरे जोगे वर ढूढ़या हो बाबा,
नाही हम रहब कुंवारि॥’’

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