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भाग्य विधाता

भाग्य विधाता

by शिवदत्त चतुर्वेदी
in कहानी, दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२०
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अस्मिता ने सीतापुर की जिलाधिकारी के रूप में पहली बार जिलाधिकारी कार्यालय में कदम रखा। उस दिन वह अपने तेजस्वी व्यक्तित्व और इकहरे बदन पर उजले लिबास में जैसे कोई देवकन्या लग रही थी। सीतापुर से स्थानांतरित हुए जिलाधिकारी श्री अवधेश पचौरी ने उसका स्वागत करते हुए सभी से उसका परिचय कराया तो सभी अधीनस्थ कर्मचारियों ने उसे सैल्यूट किया। उसके बाद श्री पचौरी ने अस्मिता को चार्ज सौंपा और वे अपने गंतव्य के लिए निकल गए। तब अस्मिता ने अपने पी.आर.ओ. राजीव नारायण से कहा- मैं कुछ देर अकेले रहना चाहती हूं। सभी कर्मचारियों के साथ श्री राजीव नारायण भी उनके चेंबर से बाहर चले गए। अस्मिता अपनी गद्दीदार सीट पर आराम से बैठ गई। उस दिन वह अपने जीवन के हर दिन से अलग अनुभव कर रही थी। उसकी नजर कार्यालय की शानदार दीवारों पर लगी महंगी सीनरियों पर टिक गई। सीनरियां देखते-देखते अचानक उसके बचपन ने उसके मन पर दस्तक दे दी।

वह देखने लगी, उस अनाथ छोटी अस्मिता को; जो सड़क दुर्घटना में हुई मां-बाप की मौत के बाद अपने चाचा-चाची के घर उनके साथ रहने लगी थी। रहती भी क्यों न? चाचा-चाची के अलावा लखनऊ शहर में अपनों के नाम पर उसका था ही कौन? दस साल की मासूम अस्मिता चाचा-चाची के घर का पूरा काम करती थी, तब जाकर उसे चाचा-चाची और उनके बच्चों की प्लेटों में बची जूठन खाने को मिलती थी। इतना ही नहीं, उसे तानों के साथ-साथ पिटाई भी उपहार में मिलती थी। तब वह अपने मां-बाबूजी को याद करके रोती थी।

हद तो उस दिन हो गई, जब शराब के नशे में धुत चाचा ने कहा था- अस्मिता! कल से तू चौराहे पर जाकर भीख मांगेगी। और उसने उत्तर दिया था- नहीं, चाचा! मैं भीख नहीं मांगूंगी। यह मुझसे नहीं होगा। तो जोरदार तमाचे की आवाज से पूरा घर गूंज उठा था।

पुरानी यादों से जुड़ने के कारण जिलाधिकारी अस्मिता शर्मा की आंखों की कोर भीगने लगीं थीं।

उसे याद आया वह दिन, जब चाचा-चाची से मार खाने के बाद उसके धैर्य ने जवाब दे दिया था और वह भीख मांगने को तैयार हो गई थी। उस दिन उसे मां- बाऊजी की बहुत याद आई थी। उसने मां बाऊजी की तस्वीर को सीने से लगाया और वह रोती रही।…. इसके अलावा एक निरीह अनाथ लड़की और कर भी क्या सकती थी?

वह इतना ही सोच पाई थी कि उसकी आंखों से गिरे दो पारदर्शी मोतियों ने उसके उजले दामन पर फबते दूधिया लिबास पर आश्रय लिया।

फिर उसे याद आया कि उस दिन रोने के बाद वह सो जाना चाहती थी। तभी शराब के नशे में धुत्त चाचा ने कहा-सुन अस्मिता! तेरे मां-बाप तो मर गए, और तुझे जिंदा छोड़ गए, हमारे ऊपर बोझ की तरह।…..सुन! जब मेरे पास दारु पीने के लिए …..और जुआ खेलने के लिए ही पैसा नहीं है तो…. तेरे खाने पीने के लिए मैं… कहां से लाऊंगा?…. मेरे भी बीवी बच्चे हैं।…. तू बड़ी हो जाएगी तो तेरी शादी भी तो करनी पड़ेगी। …..कहां से लाऊंगा मैं इतना पैसा?

चाची भी वहीं थीं। चाची को भी उस अनाथ मासूम पर दया नहीं आई। तब चाचा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा- सुन छोरी! … जा ….जाकर भीख मांग। सुबह से शाम तक……. जो भी तुझे भीख में मिले …..वह मुझे लाकर दे…. जिससे मैं तेरे खाने पीने की व्यवस्था में जुटा सकूं। उसकी बातें सुनकर छोटी सी अस्मिता की आंखों से आंसू झरने की तरह बह रहे थे। और वह निर्दयी तो जैसे पत्थर हो चुका था। कहते हैं, स्त्री ममता की मूरत होती है किंतु अस्मिता की चाची तो जैसे हृदयहीन थी; फिर ममता और करुणा का प्रश्न ही कहां उठता है?

उस दिन वह टूट चुकी थी। भीख मांगने के उद्देश्य से वह चाचा- चाची का घर छोड़कर विश्वविद्यालय के चौराहे पर आ गई। तब उसने निरंजन को कॉटन कैंडी बेचते हुए देखा। पता नहीं क्यों? उसे देखकर उसका मन बदल गया और वह उसके पास जा पहुंची। इतना सोचते-सोचते जैसे जिलाधिकारी अस्मिता अधिक बरसात में आई गोमती की बाढ़ के समान आंसुओं में सराबोर हो गई। फिर भी वह अतीत से जुड़ी रही। वह देखने लगी कि छोटी अस्मिताने निरंजन से पूछा -भैया ! एक पाउच कितने का है?

निरंजन ने उत्तर दिया- एक रुपए का।

उसने पूछा- यदि मैं बीस लूं तो?

निरंजन ने उत्तर दिया- दस रुपए दे देना।

कुछ देर रुककर उसने कहा- लेकिन भैया! मेरे पास तो पैसे नहीं हैं। मैं इनको बेचकर आपको पैसे दे दूंगी।

निरंजन ने मुस्कुराते हुए कॉटन कैण्डी के बीस पाउच उसे दे दिए थे। वह उन्हें सड़क के पार बेच आई और उसने दस रुपए निरंजन को दे दिए। इसी तरह कॉटन कैंडी बेचकर उसने उस दिन नब्बे रुपए कमाए। पचास रुपए अपने मां-बाबूजी की तस्वीर के पीछे छुपा दिए और चालीस रुपए अपने बेरहम चाचा को दे दिए। इसी तरह कई दिन गुजर गए…. लेकिन जब उसके चाचा-चाची को पता चला कि वह भीख न मांगकर कॉटन कैंडी बेचती है तो उन्होंने उसे घर से निकाल दिया। तब उस बेघर बच्ची को निरंजन ने ही सहारा दिया। वह उसे अपने घर ले गया तो अस्मिता पहली बार शारदा भाभी से मिली। उन दोनों ने अस्मिता को अपनी बेटी की तरह पाला। उसे लगा कि जैसे उसके मां- बाबूजी, शारदा भाभी और निरंजन भैया के रूप में उसे दोबारा मिल गए हैं। निरंजन ने उसे स्कूल में दाखिल कराया और शारदा भाभी ने स्वयं एक आदर्श टीचर की तरह उसे पढ़ाया।

पुरानी यादें जिलाधिकारी अस्मिता शर्मा को समंदर की लहरों की तरह कभी डुबातीं तो कभी उछालतीं। यही क्रम चल रहा था कि अचानक दीवार घड़ी के पेंडुलम के घूमने के साथ ही घंटी की आवाज ने उसे वर्तमान से जोड़ा। घड़ी में एक बज चुका था। वह अपनी सीट से उठी और वॉशरूम जाकर मुंह धोया, फिर बाहर आकर कॉल बेल बजा दी। कॉल बेल की आवाज के साथ ही उसके पीआरओ राजीव नारायण उपस्थित हुए तो उन्हें उस दिन के सभी काम समझा कर वह नीचे उतर आई। ड्राइवर को निर्देश दिया- हम अभी लखनऊ चलेंगे, इसी समय।

चलते समय उसने सिक्योरिटी ऑफिसर तोताराम को आदेश दिया ‘आप सभी यही रहेंगे, लखनऊ मुझे अकेले ही जाना है और सिक्योरिटी की कोई आवश्यकता नहीं है।’

सिक्योरिटी ऑफिसर ने स्वीकृति में गर्दन हिला कर उसे सैल्यूट किया। वह गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी चल दी। लगभग नब्बे किलोमीटर की दूरी तय करके वह लखनऊ पहुंची। तब उसने ड्राइवर सुंदर को लखनऊ विश्वविद्यालय चलने का आदेश दिया। कुछ ही पलों में गाड़ी विश्वविद्यालय चौराहे पर पहुंच गई।

वह गाड़ी से नीचे उतरी और सुंदर से कहा- ‘तुम यहीं रुको, मैं अभी आती हूं।’

इतना कह कर वह चौराहे के दूसरी तरफ चली गई। धूप और अधिक चमकने लगी थी। ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं सूर्य देव उसका स्वागत कर रहे हों। चौराहे पर अशोक के पेड़ के नीचे खड़े एक प्रौढ़ व्यक्ति के पास वह जा पहुंची।

यह व्यक्ति निरंजन है, जो पिछले पच्चीस वर्षों से चौराहे पर इसी पेड़ के नीचे खड़े होकर लाल, गुलाबी, पीली और केसरिया रंग की कॉटन कैंडी बेचता है। अस्मिता आगे बढ़ी और उसने निरंजन के पैर छू लिए। निरंजन उसे उठाते हुए बोला -अरे! यह क्या करती हो बेटा! तुम मुझे पाप में डाल रही हो !

वह बोली- नहीं भैया! मैं केवल अपना कर्तव्य निभा रही हूं।

उसकी बात काटते हुए निरंजन बोला- नहीं बेटा! अब तुम जिलाधिकारी बन गई हो, इसका तो ध्यान रखो।

अस्मिता ने उत्तर दिया- ‘भैया! आज मैं जो कुछ भी हूं आप के कारण हूं। आप मेरे भाग्य विधाता हैं। जब कोई अपना मनवांछित प्राप्त कर लेता है तो भगवान की पूजा करता है और मेरे भगवान तो आप और भाभी मां हैं। यदि आप मेरे जीवन में ना आए होते तो…..’

इतना कहते-कहते उसकी आंखें भर आईं, फिर भी उसने कहना जारी रखा- ‘यह अस्मिता, इसी शहर में कहीं किसी चौराहे पर …..भीख मांग रही होती ….और न जाने …..मेरे साथ क्या-क्या होता?’ उसकी झील सी आंखें आंसुओं से लबालब थीं। लग रहा था कि कोई सुनामी उसकी आंखों से उमड़ेगी और सारी दुनिया उसमें डूब जाएगी। परिस्थिति को समझते हुए निरंजन ने अपने हाथों से उसके आंसू पोंछे और बोला- ‘नहीं बेटा! आज तू रोएगी नहीं। मुझे गर्व है तेरे ऊपर।’ तूने पढ़-लिख कर आज वह कर दिखाया है, जो युगों-युगों तक अनाथ गरीब बच्चों को प्रेरणा देता रहेगा।

निरंजन की बातों ने उस पर जादू का असर किया। उसकी आंखों में सूरज की चमक आ गई और उसके होठों पर मुस्कान खिल उठी। कुछ पल रुककर उसने कहा- ‘भैया! जिस लड़की को उसके अपनों ने भीख मांगने के लिए घर से निकाल दिया, उसके भाग्य विधाता हैं आप। आपने ही मुझे यहां तक पहुंचाया है।’

तब उसकी आंखों में भैया- भाभी के प्रति प्रेम और कृतज्ञता की जगमगाती ज्योति दिखाई दे रही थी। उसे मुस्कुराते हुए देखकर निरंजन भी मुस्कुरा उठा और बोला- ‘ऐसा नहीं है बेटा! सच तो यह है कि हम तुम्हें पाकर धन्य हो गए। तुम्हें हमारी गोद में डालकर ईश्वर ने हमारे ऊपर उपकार किया है।’ इतना कहते-कहते निरंजन की आंखें छलछलाने लगीं। निरंजन स्वयं को संभालने की कोशिश कर रहा था फिर भी उसे लग रहा था कि अनेक प्रयासों के बाद भी वह  अपने हृदय के हिमालय को पिघलने से नहीं बचा सकेगा और हुआ भी यही। उसकी आंखों से दो सितारे नीचे की ओर ढुलक गए।

पिता की संपत्ति से बेदखल हुआ निरंजन पढ़ा-लिखा होकर भी कॉटन कैंडी बेचकर सादगी के साथ अपना गुजारा कर रहा था। उसका पूरा दिन छोटे-छोटे बच्चों को देखकर गुजर जाता था किंतु शाम को जब वह घर पहुंचता था, पत्नी की आंखों में संतान की लालसा और सूना आंगन देखकर वह तड़पता था। शादी के आठ वर्ष बाद भी उसका जीवन प्रेम और पवित्रता से पूर्ण होकर भी संतान सुख से वंचित था। वह गरीब अपनी पत्नी का दर्द समझ कर अंदर ही अंदर तंदूर की तरह सुलगता था किंतु उसने अपना दुख कभी अपने चेहरे पर अथवा अपने शब्दों में नहीं आने दिया।

जिस दिन अस्मिता उसके घर आई, वह अपने जीवन को धन्य समझने लगा था और उसकी पत्नी शारदा तो भूल ही गई थी कि वह निसंतान है अथवा अस्मिता उसकी स्वयं की संतान नहीं है।

निरंजन को यह सब स्मरण हो आया। एकाएक उसकी आंखें फिर से छलछलाने लगीं तथा आंसू देखते ही देखते तटबंध को तोड़ती नदी की भांति बहने लगे।

इस बार अस्मिता ने निरंजन के आंसू पोंछे। वे दोनों संसार के सबसे पवित्र रिश्ते का उदाहरण थे।

अस्मिता को यहां आए दस मिनट हो चुके थे किंतु प्रेम के प्रवाह में उसे इसका एहसास ही नहीं हुआ। अंततः सुंदर गाड़ी लेकर वहीं आ पहुंचा और बोला- ‘सॉरी मैडम! आपको यहां आए हुए दस मिनट हो गए, इसलिए मुझे आना पड़ा।’

अस्मिता मुस्कुराई और बोली- ‘ठीक है! चलते हैं।’

फिर उसने निरंजन से कहा- ‘भैया गाड़ी में बैठिए!’

निरंजन सकुचाया किंतु उसकी बात टाल न सका। तब वे विश्वविद्यालय की पीछे गरीबों की बस्ती में निरंजन के घर पहुंचे। उन्हें देखते ही शारदा आरती का थाल सजा लाई और अस्मिता की आरती उतारते हुए बोली- ‘अस्मिता! यह मेरा सौभाग्य है कि आज मेरी बेटी जिलाधिकारी बनी है।’

उसने उत्तर दिया-‘हां, मां! यह तुम्हारे ही दिव्य आशीर्वाद का फल है। आप दोनों की तपस्या और आशीर्वाद से ही आज मेरा जीवन सफल हो सका है। आपका उपकार मैं कभी नहीं भुला सकती, भाभी! अब मेरी बारी है। अब आप लोग यहां नहीं रहेंगे, चलिए मेरे साथ!

इतना सुनकर शारदा की आंखें भर आईं तो अस्मिता ने उन्हेंं अपने रुमाल से पोंछा। अस्मिता के साथ सीतापुर जाने में पहले तो निरंजन और शारदा ने न-नुकर की किंतु अस्मिता के आगे उनकी एक न चली। उन दोनों को गाड़ी में बैठना ही पड़ा। गाड़ी तीव्र गति से सीतापुर की ओर दौड़ रही थी। एक घंटे बाद वे सीतापुर के मुख्य चौराहे पर थे। रेड सिग्नल हुआ तो गाड़ी रुकी। तभी अचानक अस्मिता की दृष्टि गाड़ी के बाहर चली गई। बाहर एक दस-बारह साल की लड़की गुब्बारे बेच रही थी। उसे देखते ही अस्मिता गाड़ी से उतरी, बात करने पर पता चला कि वह अनाथ है तो उसे अपने साथ ले आई। उसने निरंजन से कहा- ‘भैया! यह बच्ची भी अब हमारे परिवार का हिस्सा बनेगी।’

निरंजन ने कहा- ‘हां बेटा! अब इसकी भाग्य विधाता तुम बनोगी।’ इसका जीवन संवारना तुम्हारी जिम्मेदारी है।

वह मुस्कुराते हुए बोली- ‘आप दोनों के शुभ आशीर्वाद से यह जिम्मेदारी मैं निभाऊंगी। इतना ही नहीं, मैंने तो सोचा है कि मैं एक ट्रस्ट बनाऊंगी जिसके माध्यम से छोटे अनाथ बच्चों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सके।’

शारदा ने कहा- ‘इस काम में मैं तेरी मदद करूंगी।’

तब तक गाड़ी जिलाधिकारी आवास में प्रवेश कर चुकी थी और सुरक्षा कर्मचारी खड़े सेल्यूट कर रहे थे।

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