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तांबे की गागर

तांबे की गागर

by डॉ. मेघा भारती 'मेघल'
in कहानी, दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२०
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तांबे के उस गागर सी थी सिया, जिसमें पानी केवल रखा भी रहे तो शुद्ध ही होता है। उसकी आंखों की चमक किसी पहाड़ी झील सी लगती थी और होंठों पर जब मुस्कुराहट आती तो लगता था कि मानो कई दिनों बाद बर्फ की ठंडक को तोड़ती पहाड़ की धूप खिली हो। उसके आने से ही तो इतनी रौशनी आई थी जीवन में कि हर एक क्षण किसी पूजा की थाली के दिये सा रौशन था।

आज सुबह से ही कड़ाके की ठंड पड़ रही है। कुछ धुंध सी भी है लेकिन सारे शहर के बच्चों के उत्साह में किसी भी प्रकार की कमी नहीं। अभी अपने कमरे के आगे इस छोटे से खुले बरामदे में खड़ा जब भी मैं आकाश में कोई टूटता हुआ तारा खोजने की कोशिश कर रहा हूं तो पटाख़ों की चमक मेरी खोज को गुमराह कर ही दे रही है।

यूं तो मेरी ये खोज कुछ एक वर्ष से निष्फलता के साथ जारी है, लेकिन इन दिनों कुछ ज़्यादा ही मुश्किल हो रहा है, इसे जारी रखना। आकाश तन्हा मिल ही नहीं रहा। और मिले भी कैसे? कल दीपावली का त्यौहार जो है।

एक भारतीय होने के नाते मुझे पता होना चाहिए कि दीपावली भले ही किसी भी तारीख को पड़ती हो लेकिन पटाख़ों की चमक और आवाज़ों से ये देश महीने भर पहले ही सजने लगता है। ठीक ही तो है। जो ख़ुश हैं, वो ख़ुशियांतो मनाएंगे ही।

ख़ुद से यूं ही बातें करते, सोचते, समझते, अनगिनत सवालों में उलझे हुए, पिछली दीपावली के बाद कितने ही त्यौहार बीत गए थे, और अब फिर से दीपावली आ गई थी।

बीस दिन पहले ही, पूरा घर बाज़ार से मंगवाई गई किराये की लाइट की बेलों से सजाया गया था। सभी परिवार जनों के लिए नए कपड़े, रिश्तेदारों के लिए मिठाइयां, मंदिर के लिए भगवानों की मूर्तियां, सब कुछ बड़े उत्साह के साथ मां छोटे के साथ जाकर ख़रीद लाईं थीं। धनतेरस के दिन तो इतने बर्तन आए थे घर में कि जैसे किसी शादी में केटरिंग का ऑर्डर मिला हो।

घर पर तीनों बहुओं के लिए नए मंगलसूत्र और दो-दो कंगन भी मां ने विशेष रूप से बनवाये थे। हालांकि बेटे पांच थे। सबसे छोटा अभी अविवाहित था। बाक़ी चारों की शादी हो चुकी थी। फिर भी गहनों के तीन सेट ही मांने बनवाये। शायद उन्हें पूरा विश्वास था कि अब उनकी सबसे बड़ी बहू कभी वापस नहीं आएगी। और विश्वास इतना पक्का हो भी क्यों ना। सिया को स्वयं मां ने ही ये कहकर उसके भाई के घर भेजा था कि उसके रहने से घर में अशांति रहती है। सभी बहू बेटे परेशान हो जाते हैं।

ये याद आया तो एक व्यंग्य भरी मुस्कान समन्वय के चेहरे पर बिख़र गई। सिया के सुबह जल्दी उठ कर पूजा पाठ करने से, रसोई में सुबह ही सबका भोजन तैयार करने से, सभी रिश्तेदारों का सत्कार करने से, उसके एक सफल डॉक्टर होने से, उसके सुंदर तन और सुंदर मन-हर बात से समन्वय के परिवार को परेशानी थी।

उनके मन मष्तिष्क में हमेशा सिया के गुणों से उथल पुथल मची रहती थी, विशेषकर तब जब सभी रिश्तेदार, सम्बंधी, पड़ोसी, यही कहते नज़र आते थे कि ऐसी सर्वगुण सम्पन्न, साक्षात महालक्ष्मी का रूप जैसी बहु तो किस्मत वालों को ही मिलती है।

और फिर बिरादरी की कुछ बूढ़ी औरतें ये भी इसमें जोड़ दिया करतीं कि जब से ये लक्ष्मी रूपी सिया घर आई है, समन्वय का कारोबार भी दिन दुगनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। बहुत शुभ पैर पड़े हैं बहु के। सभी तो खुश थे सिया से। बस मां और उनके बेटे और फिर कुछ महीनों बाद आईं उनकी नई बहुओं को परेशानियां थीं, वो भी अनगिनत।

शादियां तो सभी भाइयों ने अपनी पसंद से ही की थीं। मां ने ही सभी की लव मैरिज को अरेंज मैरिज का रूप दे दिया था। लेकिन इस पर भी, सिया और समन्वय की जोड़ी हर लिहाज़ से सभी में सर्वाधिक लोकप्रिय थी।

सिया उस छोटे से पहाड़ी शहर के सरकारी अस्पताल की एक जानी मानी डॉक्टर थी और समन्वय एक लोकप्रिय गारमेंट स्टोर का मालिक। हालांकि वक़ालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद समन्वय दिल्ली जाकर सुप्रीम कोर्ट में वकील बनना चाहता था, लेकिन पिताजी के देहान्त के बाद ख़ानदानी कारोबार को देखना उसने अपना कर्तव्य समझा। मां और चार छोटे भाइयों को ऐसे अकेला छोड़कर कर जाना उसे उचित नहीं लगा।

सो, अपने सपने और करियर किनारे रख उसने परिवार के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। भाइयों को अपने सपने पूरे करने की पूरी आज़ादी देकर और घर की पूरी ज़िम्मेदारी स्वयं पर लेकर वह ख़ुश था। और फिर इसमें कोई हर्ज़ उसे नहीं लगा। आख़िर, मानवीय सम्बन्ध ही तो मनुष्य जीवन की पूंजी होते हैं। बाक़ी सब तो चलता रहता है साथ-साथ।

आज इस बरामदे पर अंधेरे आकाश को ताकने क्या निकला कि बेशुमार रॉकेट और आतिशबाजियों की आवाज़ों ने सब कुछ नए सिरे से याद दिला दिया। और फिर एहसास हुआ कि पूरा एक साल बीत गया। दादाजी द्वारा स्थापित की गई और घाटे में चल रही कपड़ों की हमारी दुकान भी अब नैनीताल की सबसे लोकप्रिय गारमेंट स्टोर में तब्दील हो चुकी है- लेकिन फिर भी कुछ है जो बार-बार मन को कचोट रहा है। मुझे बता रहा है कि हर बार त्याग और बलिदान चीज़ों को बेहतरी के लिए बदल दे ज़रूरी नहीं। कम से कम इस कलियुग में तो नहीं।

फिर अचानक सामने वाले मकान की छत पर किसी बच्चे ने अनार  जलाया तो उसकी रौशनी में कुछ पल के लिए ऐसा लगा कि सिया अपनी पसंदीदा साड़ी पहने अपने चूड़ियों से खनकते हाथों में फुलझड़ियां लिए मेरी ही ओर आ रही है। और जब उससे बचने का प्रयास किया तो पाया कि वहां मेरे सिवा कोई नहीं था। ना सिया ना ही कोई फुलझड़ी। बस एक आवाज़ फिर से गूंजी –

ये सबकुछ इसलिए इतनी कुशलता से सम्भालती है कि घर की बाकी बहुओं की कमियों को उजागर कर सके। अपनी बहुओं की अवहेलना अब मैं नहीं सहूंगी। अपने घर में ये सब अब मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। तुम जाओ यहां से। समन्वय दिल्ली में वक़ालत कर लेगा और तुम भी कुछ कर लेना वहीं। यहां मेरे बच्चों को तुम दोनों दिन-रात दिखते रहो ज़रूरी नहीं।

उस दिन मां के ये शब्द सुनकर हम दोनों ही हैरान थे। सिया सुबह से ही हमारे उस तीन मंज़िला पुश्तैनी घर में लक्ष्मी पग बना रही थी और मैं ’गेरू’ का बर्तन हाथ में लेकर उसका साथ दे रहा था। हर मंज़िल पर, सभी कमरों में, सीढ़ियों पर, आंगन में, लक्ष्मी पग बन चुके थे, बस ये आख़िरी कमरा था। मां की बात सुनकर भी सिया ने अपना हाथ नहीं रोका, यूं भी, हम दोनों को ही काफी देर तक तो कुछ समझ ही नहीं आया।

मां मज़ाक कर रही थीं या सचमुच…  फिर नज़र उठाकर उनका चेहरा देखा, कुछ तो था। ऐसा कि फिर उसी समय, छोटी दीपावली की दोपहर सिया ने गेरू से सने अपने हाथ धोकर अपना कुछ सामान पैक किया और अपने भाई के घर चली गई।

मुझे कुछ बोलने नहीं दिया। साथ आने भी नहीं दिया। बस इतना कहा-सारा जीवन आपने अपने परिवार को सहेजने में लगाया है, इस तरह बीच में नहीं जा सकते आप समन्वय। अर्धांगिनी हूं आपकी, यहां से जाकर आधा काम कर रही हूं, यहां रहकर क़ारोबार को स्थापित करके, छोटे की शादी करके आप बाक़ी का आधा काम पूरा कीजिये।

मैं निःशब्द सा उसे देख रहा था। गेरू से बने लक्ष्मी पग घर में आते हुए और अपने घर की लक्ष्मी को जाते हुए, बस देख रहा था।

परिवार को थोड़ा समय देना होगा, सब ठीक हो जाएगा। मैं इसी शहर में हूँ, कहीं नहीं जा रही और फिर मुस्कुरा कर बोली, ‘ऐसे मत देखिए मुझे! मैं यहीं हूं, आपके साथ, इसी शहर में।

मैं सिया की बात पर भरोसा करना चाहता था, मानना चाहता कि सब ठीक हो जाएगा। सो, ख़ामोशी से हम दोनों के लिए लिया गया उसका ़फैसला स्वीकार कर लिया।

तांबे के उस गागर सी थी सिया, जिसमें पानी केवल रखा भी रहे तो शुद्ध ही होता है। उसकी आंखों की चमक किसी पहाड़ी झील सी लगती थी और होंठों पर जब मुस्कुराहट आती तो लगता था कि मानो कई दिनों बाद बर्फ की ठंडक को तोड़ती पहाड़ की धूप खिली हो। उसके आने से ही तो इतनी रौशनी आई थी जीवन में कि हर एक क्षण किसी पूजा की थाली के दिये सा रौशन था।

शायद इसलिए सबसे ज़्यादा इस बात का दुःख था समन्वय को कि सिया जैसी लड़की के जीवन के सभी स्वर्णिम वर्ष मेरे इस परिवार को ख़ुश रखने के प्रयास में निकल गए। शायद दुःख का बोझ थोड़ा कम होता यदि इस सब के बाद परिवार खुश हो ही जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नहीं हुआ तो भी चलता लेकिन हद तो तब हुई जब कहा गया कि सिया बहुत दिमाग़ लगाकर चल रही है वो, परिवार और संबंधियों में अपना प्रभुत्व चाहती है। इसलिए हर अन्याय हर तकलीफ़ सहर्ष स्वीकार लेती है। अपनी छवि को  महानता का आकार दे रही है। सिया की सारी सरल कोशिशों को उसकी सोची समझी साज़िशें कहा गया।

पड़ोस की अट्ठारह वर्षीय सुजाता ने भी अपनी व्यक्तिगत डायरी में लिखा था, बहुत अजीब और स्वार्थी लोग हैं ये। और फिर कहीं उन सारी बातों के बाद, एक वाक्य कहीं कोने में से झांकता नज़र आया सबसे बड़े भैया ठीक हैं बस। पता नहीं इनके जैसे कैसे नहीं हैं?

धनतेरस पर जब घर में खुशियों की बाढ़ सी आ रही थी, पूरा परिवार खील-बताशे मिठाइयों के साथ खुशियां मना रहा था तब सुजाता ने समन्वय से कहा था। मुझे भाभी भी आपकी जैसी ही लगती हैं भईया, देखना वो भी आज बहुत दुःखी हो रही होंगी। लेकिन क्या आप दोनों के इस दुःख में कोई एक भी शामिल है?

सुजाता जिसका समन्वय के घर में बचपन से आना जाना था, जो उम्र में उससे इतनी छोटी थी, इतने विश्वास के साथ अपनी डायरी में ये सब लिख गई, उससे ये सब कह भी गई और वो इतने वर्ष किसी भी बात को ना देख पाया ना ही समझ पाया?

सुजाता के शब्दों पर कई बार उसने सोचा… ’क्या वाक़ई इस परिवार का अपना हूं मैं? इन स्वार्थी, लोभी, झूठे और ढोंगी लोगों का सगा? सोचकर भी ख़ुद से घिन सी आने लगी थी।’

मां का पक्षपाती और कुढ़न भरा व्यवहार, भाइयों की ईर्ष्या, सभी के ताने और बहुत कुछ। माफ़ तो कब का कर चुका था समन्वय। सिया से इतना तो सीख ही गया था।

लेकिन, अब इन बनावटी पारिवारिक परिस्थितियों से छुटकारा चाहता था। विभीषण बनने के बहुत से क्षण उसके जीवन में आये लेकिन कुछ सोचकर उन क्षणों को कमज़ोर समझ कर आगे बढ़ा दिया। हमेशा यही सोचा कि वो कौन होता है लंका दहन करने वाला। ईश्वर की दुनिया है- ईश्वर देखें।

जीवन के इस मोड़ पर सबकुछ हासिल करके खो देने के बाद और कुछ फिर से पा लेने की उम्मीद पर टिका समन्वय का जीवन अब बस सुकून चाहता था। ये बोझ कि केवल उसके कारण एक लड़की ने अपना सर्वस्व नाहक ही ऐसे लोगों पर ख़र्च दिया, उसे चैन से जीने नहीं दे रहा था।

और क्या ये न्याय नहीं था? एक राह पर सैकडों बार चलकर भटक जाने से बेहतर किसी नई राह पर चलना?

आज समन्वय ने सोच लिया था, वो इस पीड़ा और वियोग को अब और नहीं सहेगा। सिया के बग़ैर जीवन का कोई अर्थ ना था। इसलिए नहीं कि वो उसकी पत्नी थी, बल्कि इसलिए कि उसके जैसे लोग ख़ुश रहने के हक़दार थे। त्याग और समर्पण से बनी सिया को पूरा अधिकार था कि सबके साथ अच्छा करने के साथ स्वयं के साथ भी अच्छा करे। और यदि कुछ लोग उसके समर्पण और त्याग को स्वीकार ना करते हुए उसकी हर अच्छाई से कुंठित होते हैं तो उसे अपना रास्ता बदलकर चलने का भी पूरा अधिकार था। हां बिल्कुल! वह अपनी अच्छाइयों की क़ीमत नहीं चुकाएगी। इस बार समाधि सिया नहीं लेगी!

जब सोचा तो एक नई रौशनी उन लंबी-लंबी लाइट की बेलों के बीच से झांकने लगी। आकाश की वो आतिशबाजियां आकर्षक लगने लगीं। आस-पास के मकानों में जल रहे अनार और फुलझड़ियों की रौशनी, पटाख़ों की आवाज़ें, घरों से आती घण्टियों और शंख की ध्वनि सबकुछ कह रहा था कि ये दीपावली शुभ होगी। फिर कोई टूटा तारा खोज कर उससे अपनी सिया को वापस मांगने का अब कोई औचित्य नहीं था।

समन्वय ़फैसला ले चुका था। सुबह जाएगा और सिया को वापस लेकर आएगा। दिल्ली जाएंगे या कहीं और ये सब बाद में सोचेंगे लेकिन फिलहाल उसे सिया को वापस लाना था। कल दीपावली है, घर की लक्ष्मी का संध्या पूजन में होना आवश्यक है।

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