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बहुरंगी व्यक्तित्व

बहुरंगी व्यक्तित्व

by अरुण जेटली
in दिसंबर २०१२, राजनीति, व्यक्तित्व
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भाजपा-शिवसेना गठबन्धन की महाराष्ट्र में सरकार बनी और कार्यकाल पूरा किया। केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार में भी शिवसेना शामिल थी। भाजपा के प्राय: बड़े नेता समय-समय पर बाला साहब से भेंट करने मुंबई आते रहते थे। लगभग दस वर्ष पूर्व अरूण जेटली ने यह लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने अनुभव के अनुरूप बाला साहब के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।

मैं बहुत वर्षों से भाजपा का सदस्य हूं और शिवसेना भाजपा का सबसे पुराना मित्र दल है। बाला साहब की कार्यशैली को वर्षों से देखता आ रहा हूं। और देखता रहा हूं उनके बयान और उनके तर्कों को। कैसे संगठन बनाया व उसे बढ़ाया। लेकिन मैं कभी बाला साहब से मिला नहीं था। लेकिन उनके बारे में मैं जो कुछ अखबारों एवं पत्रिकाओं में पढ़ता था, मेरी यह एक धारणा बन गई थी कि इस आदमी में, इस व्यक्ति में हिप्पोक्रेसी नहीं है। राजनीतिक तर्क को, आर्ग्यूमेंट को खुले तौर पर देना, उसको छुपाना- दिल में कुछ रखना, जबान पर कुछ लाना, यह उनकी नीति नहीं है।

दूसरा राजनीतिक संवाद की कला बाला साहब में बड़ी कमाल की है। शायद कार्टूनिस्ट हैं, इसलिए उन्हें अभिव्यक्त करना ज्यादा आता है। वे एटीट्यूड के माध्यम से, वन लाइनर के माध्यम से, उदाहरण के माध्यम से अपनी बात श्रोताओं के सामने व्यक्त करते हैं। तीसरा किसी मुद्दे पर अगर मास ट्रेंड (सामूहिक प्रवृत्ति) एक दिशा में जा रहा है, तो मैं भी उस दिशा में ही जाऊं, यह उनका स्वभाव नहीं है। उसके खिलाफ जाना ही उनकी आदत है। वे तुरंत फैसला लेते हैं कि यह गलत है, तो मैं इसके साथ नहीं हूं।

मुख्य राजनीतिक पार्टियों के ढांचे के बाहर एक व्यक्तिगत ध्रुव उसके साथ एक वैचारिक मुद्दा खड़ा कर देना और एक संगठन बना लेना। उस संगठन में मैंने जो चीजे देखी कि मुख्यधारा की पार्टी को कार्यक्रम करने के लिए भीड़ जुटानी पड़ती है। लेकिन शिवसेनाप्रमुख के लिए भीड़ अपने आप आ जाती है। जबकि बड़ी से बड़ी पार्टियों को ट्रकों में, बसों में भरकर भीड़ लानी पड़ती है, यह सच है, लेकिन शिवसेनाप्रमुख का एक करिश्मा है। उसे आज करिश्मा कहें, लाजिक कहें। आप उनकी विचारधारा से सहमत हो या असहमत, लेकिन इस मामले में वे बेमिसाल हैं।

शिवसेनाप्रमुख के बारे में जो भी मैं सोचता था, उससे यह भी धारणा थी कि वे एक मुश्किल इंसान हैं, निभाने के लिए। उनके बारे में एक भय था। वे हिंदुत्व की फिलास्फी के साथ जुड़े हुए हैं और वे अपनी व्यक्तिगत बातचीत की शैली में, बहस की शैली में बहुत रफ है। उनके समर्थक कह सकते हैं कि बहुत शार्प हैं। और आलोचक कहते थे कि सतर्क है, तो इस आधार पर उनके व्यवहार में बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। यह एक छवि थी मेरे मन में।

मैं पिछले दो वर्ष में कई बार उनसे मिलने गया और उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ चीजें जो मेरे जेहन में थी, उसके बिल्कुल अलग थी। जब भी में उनसे मिलने जाता था, मैंने पाया कि वे व्यवहार में बहुत ही सरल हैं। वह जो जटिल व्यक्ति मेरी छवि में था, वह कहीं है ही नहीं।
वे पार्टी के बहुरंगी व्यक्तित्व हैं। पुराने किस्सों से लेकर सटीक और सार्थक मजाक उनकी शैली का हिस्सा है। अगर आप किसी एक राजनीतिज्ञ से मिलने जाते हैं, तो यह सोचने हैं कि सिर्फ राजनीति पर चर्चा होगी। लेकिन शिवसेनाप्रमुख के साथ ऐसा नहीं है। अगर आप उनसे मिलने गए, तो शायद 20 प्रतिशत पालिटिक्स की बात की होगी और 80 प्रतिशत सिनेमा से लेकर, सोशल इश्यू से लेकर, बिजनेस से लेकर, क्रिकेट से लेकर हर बात होती है। और मैंने अचानक पाया कि शिवसेनाप्रमुख एक सुप्रीम व्यक्ति हैं। ऐसा कोई विषय नहीं है, जिस पर आप उनसे चर्चा नहीं कर सकते। व्यक्तिगत व्यवहार में, जीवन शैली में, बातचीत में…क्योंकि मैं सिर्फ हर बार उनसे उनके घर पर मिला। मैंने महसूस किया कि एक हाईली सोफिस्टीकेटेड आदमी से मैं मिल रहा हूं। सोफिस्टिकेटेड शब्द का मैं इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि वे छोटी-छोटी बातों पर इतने ज्यादा सर्तक रहते हैं, जैसे आज कहां बैठेंगे, आपकी ईटिंग टेस्ट क्या है, आप कौन-सी साफ्ट ड्रिंक पसंद करेंगे, कौन सी वे आपको सजेस्ट करेंगे। कौन सा खाना आपको पसंद है, इसलिए कौन सा खाना मैंने आपके लिए बनवाया है। मतलब यह छोटी-छोटी बातें हैं, जिनके बारे में हम जैसे लोग कभी चिंता नहीं करते। इसका असर यह हुआ कि उनसे मुलाकात के पहले दस मिनट में ही मैं काफी सहज हो गया और उनके साथ बात करने से पहले उनके बारे में जो छवि थी, वह खत्म हो गई। जिद अधिकतर चीजों में नहीं थी। कई बार यह होता है कि गठबंधन की राजनीति में इस पार्टी का यह स्टैंड है, उस पार्टी का स्टैंड है और विकृति आ जाती है। लेकिन आप अगर तर्क के आधार पर उनसे बात करना चाहें, तो वे हमेशा तैयार होते हैं। मेरे साथ ऐसे एक-दो मौके आए कि किसी ने उनको ब्रीफ किया हुआ था कुछ.. इश्यू पर। जब मैंने उनसे चर्चा शुरू की और उनको तस्वीर का दूसरा पहलू बताया, तो मैंने देखा उनकी प्रतिक्रिया बहुत ईमानदार थी। उन्होंने स्वीकार किया कि मुझे इस बारे में जो बताया गया है, वह शायद अधूरा है और उन्होंने मेरी बात सुनने के बाद उस पर पुनर्विचार करने का रुख भी दर्शाया। उनमें यह भी है। तो इसलिए उनमें इस ढंग की कोई जिद नहीं है कि मैंने कह दिया और अब मैं इस पर डटा रहूंगा। इस तरह की कोई बात वे नहीं करते। और इसीलिए शायद महाराष्ट्र का और केंद्र का हमारा शिवसेना के साथ जो गठबंधन है, अगर छोटे-मोटे मुद्दों को नजरअंदाज कर दें, तो व्यापक स्तर पर सफल रहा है।

जब मैं उनसे पहली बार मिला कि 1993 में मुंबई दंगों के बाद उनकी छवि को, उनकी भूमिका को मलिन करने की कोशिश की गई। वे आज भी अपनी इस भूमिका को सही ही मानते हैं। लेकिन उनका एक ही कहना है कि उन्हें इसमें जानबूझ कर फंसाया गया है। उन्होंने मुझे सारे दस्तावेज दिए। जिसमें श्रीकृष्ण जांच आयोग की रिपोर्ट की प्रति भी थी। कुछ एफिडेविट की फाइल। और मैंने बहुत समय लगाकर वे सारे पढ़े। और मैं यह चाहूंगा कि जितने भी राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं, मीडिया में, राजनीतिक जीवन में, सार्वजनिक जीवन में… कई बार मीडिया के माध्यम से एक छवि बन जाती है। एक सच होने का भ्रम बन जाता है। और इंप्रेशन यह था कि 1993 के दंगों में क्योंकि जस्टिस श्रीकृष्ण रिपोर्ट में कुछ दिया, इसलिए उसमें बाला साहब का हाथ रहा है, ऐसा रिपोर्ट में कहा गया है। और कोर्ट में केस भी डाला गया। गिरफ्तार करने की बात भी आई। मौजूदा महाराष्ट्र सरकार ने भी कहा कि हम बाला साहब के खिलाफ कार्रवाई करेंगे। लेकिन तथ्य कहां है और मीडिया में इमेज कहां है। लेकिन मैं सारे दस्तावेज देखने के बाद यह मानता हूं कि श्रीकृष्ण रिपोर्ट में बाला साहब के बारे में जो कहा गया है, वह सिर्फ बयानों पर आधारित है और बहुत ही संशयास्पद है। दो आधार बनाए गए हैं। बाला साहब कहीं गए, बाला साहब ने कहीं भाषण दिया, बाला साहब ने कहीं लिखा। लेकिन ऐसा कहीं नहीं है। एक ऐसा पत्रकार जो शिवसेना विरोधी है, उसने बयान दे दिया, मैं उनके घर इनको मिलने गया था। और मेरे सामने यह टेलिफोन पर बात कर रहे थे और पूछताछ कर रहे थे कि दंगों में क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा। कितने लोग मरे, हमारे कितने लोग मरे, उनके कितने मरे।’ यह एक बड़ा मजाक है कि एक राजनीतिक विरोधी के बयान को पुख्ता सबूत मान लिया गया। उस टेलीफोन काल को शिवसेनाप्रमुख ने ओवररिएक्ट किया इसी को सबूत मान लिया गया। जबकि बाला साहब का कहना कि इस तरह का कोई पत्रकार उनसे मिल ही नहीं सकता था। मिलने के पहले उसे चार सुरक्षा चक्रों को पार करना पड़ता। और उस दिन ऐसा कोई पत्रकार उनके पास आया ही नहीं। इस संदेहजनक सबूत को आधार बताया गया और दूसरा टाइम्स मैगजीन के एक इंटरव्यू में जहां शिवसेनाप्रमुख को ‘मिस कोट’ किया गया। ये दो आधार है। अब इंटरव्यू तो एब्सट्रैक्ट बात है। मैंने क्या इंटरव्यू दिया, इससे यह तो साबित नहीं होता कि दंगों मे मेरी क्या भूमिका थी और सिर्फ एक आदमी ने फोन पर मेरी बात सुन ली, जो कोई बात हुई ही नहीं और उसको पुख्ता सबूत मान लेना और उसको ऐसा प्रोजेक्ट करना कि एक रिपोर्ट में जज ने बहुत ज्यादा मेरे खिलाफ कुछ कह दिया है। इसलिए अब क्योंकि 1993 का वह मामला ठंडा पड़ चुका है, तो जिन लोगों ने उनकी भूमिका को लेकर प्रश्न उठाए, मुझे लगता है कि उनके बयानों वाले रिपोर्ट के उस हिस्से पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच फिर से चर्चा होनी चाहिए।

इसके अलावा आर्थिक मुद्दों पर मेरी उनसे बात हुई। वे हर चीज पर सरकार के नियंत्रण के खिलाफ थे। बाला साहब का मत यह है कि उद्योगपतियों को छूट दो, उनको बढ़ने दो, मुझे लगता है कि उद्योग जगत के वे बड़े शुभचिंतक हैं।

एक बात मैं आपको बताऊं कि मैं जब बाला साहब से मिलने गया था, तो मैं बातचीत में ‘बांबे’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा था। मैंने जितनी बार ‘बांबे’ कहा, उन्होंने मुझे टोका। कहा ‘बांबे’ नहीं, मुंबई कहिए। दो बार उन्होंने मुझे टोका। तीसरी बार मुझे भी याद हो गया। टोका मतलब बहुत ही शालीनता से, प्यार से। जहां तक राजग का सवाल है, कई बार ऐसे फैसले लेने पड़े जो शिवसेना की नीतियों में फिट नहीं बैठते थे। इसका उन्होंने विरोध किया। इसके खिलाफ अपने विचार उन्होंने खुलकर और मजबूती से व्यक्त किए। लेकिन उन्होंने राजग सरकार की जरूरतों को महसूस किया और समझा। तो वे बहुत ज्यादा प्रैक्टिकल भी है। व्यक्तिगत संबंधों का बाला साहब की राजनीति में बहुत बड़ा रोल है। उन्हें लगा कि कोई गलत कर रहा है, लेकिन वे उसे पसंद करते हैं, तो वे उसके साथ खड़े होते हैं। संजय दत्त का उदाहरण हमारे सामने हैं। वैसे तो संजय दत्त का केस मुंबई बम ब्लास्ट का केस है। जो बाला साहब की विचारधारा के एकदम खिलाफ है। लेकिन उसमें भी उन्हें एक आदमी गलत है। लेकिन वे उसके साथ खड़े हो गए। अच्छा इसकी वजह से उनके लोगों को भी लगता है कि इस आदमी से जो बात हो गई, तो यह हमारी मदद करेगा। तकलीफ में मुंबई में यह रिवाज है कि बहुत आदमी जब परेशान है, तो बाला साहब के पास चलो। यह रिवाज इसलिए बना, क्योंकि बाला साहब की जबान की एक कीमत है। तो ऐसे थे बाला साहब जो आज भी मैं उन्हें महसूस कर रहा हूं।

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