बाल ठाकरे-एक विकास यात्रा

एक व्यंग्यचित्रकार, फिर मुंबई जैसे विविध संस्कृतिवाले शहर का राजकीय नेता, इसके बाद महाराष्ट्र राज्य पर शासन करने वाले दल का प्रमुख, और अब एक अखिल भारतीय स्तर के दल का प्रमुख नेता और राजकीय प्रणेता। यह सफर तय करनेवाले व्यक्ति का नाम है- बाल केशव ठाकरे अर्थात बाला साहब ठाकरे। एक ही समय में अपने चाहनेवालों और अनुयाइयों में देवतुल्य श्रद्धा और विरोधियों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न करनेवाले एक संघर्षशील व्यक्तित्व थे बाल ठाकरे।

प्रसिद्ध व्यंग्यचित्रकार डेविड लो ने अनेक लोगों को व्यंग्यचित्रों की ओर आकर्षित किया। मिकी माउस के निर्माता वाल्ट डिस्नी ने भी अनेक लोगों को प्रेरणा दी। इन दोनों को अपने मानसिक गुरु मानकर पत्रकारिता में कदम रखनेवाले पच्चीस साल के बाल ठाकरे में किसी ने भी यशस्वी नेता के लक्षण नहीं देखे होंगे। परंतु समाजिक परिवर्तन के लिये तन मन से कार्य करने वाले और उसके लिये सटीक और तीखा लेखन करने वाले ‘प्रबोधन’ पत्रिका के संपादक केशव सीताराम ठाकरे अर्थात प्रबोधनकार ठाकरे की धरोहर लेकर आये बाल ठाकरे से राजनीति अधिक समय तक दूर नहीं रह सकी। शिवसेना प्रमुख के रूप में और आक्रमक हिन्दुत्व के लिये प्रसिद्ध बाला साहब के व्यंग्यचित्र एक जमाने में सुदूर पूर्व के टोकियो के जापानी दैनिक समाचार पत्र ‘असाही शिबून’ से लेकर पश्चिम में ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ में भी प्रकाशित हुए।

‘शंकर्स वीकली’ के बाद केवल व्यंग्यचित्रों पर आधारित ‘मार्मिक’ साप्ताहिक में बाला साहब ने अपने व्यंग्यचित्रों के द्वारा एक नये अध्याय की शुरुवात की। 1960 में ‘मार्मिक’ की शुरुवात हुई और उसके ठीक छ: साल बाद शिवसेना की स्थापना हुई। ‘मार्मिक’ में समाज के बडे लोगों के बजाय सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा प्रकाश डाला जाता था। हजार शब्दों में लिखे गये लेख के बजाय आर. के. लक्ष्मण के पाकेट कार्टून के माध्यम से व्यंग्यचित्रकार काफी कुछ कह जाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि व्यंग्यचित्र अधिक प्रभावी व लक्ष्यवेधी होता है। इसी शक्ति का लाभ शायद बाल ठाकरे को मिला।

समाज में कई कमियां होती हैं। इन कमियों का ठीकरा समाज के किसी एक गुट पर फोड़ना उस गुट पर नाइंसाफी होगी। एक मार्मिक व्यंग्यचित्रकार की दृष्टि मुंबई के सरकारी अधिकारियों की सूची पर पड़ी। महाराष्ट्र की राजनीति में, मराठी लोगों से भरी मुंबई में बहुसंख्य सरकारी अधिकारी गैरमराठी? इनमें न दोष मराठी लोगों का था न अधिकारियों का, परंतु स्वतंत्रता के दो दशकों बाद भी सामान्य लोगों को उनका हक नहीं मिल रहा था। ‘खरीखरी सुनाने की’ वृत्ति धारण करने वालें बाल ठाकरे को यह मंजूर नहीं था। यहीं से शिवसेना की स्थापना की नींव पडी। स्वतंत्रता के बाद के समय में नई परिस्थितियों, नये प्रश्नों का जवाब देने के लिये नये नेतृत्व की आवश्यकता पडने लगी।
भारतीय जनसंघ को वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करनेवाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1956 में लिखा था-

‘‘वी वान्ट टू ब्रिंग अबाउट इकोनामिक एण्ड सोशल रिवाल्यूशन इन आवर कन्ट्री थ्रू पीसफुल मीन्स। बट फार दिस द प्रेसेंट ‘फमिली लीडरशिप’ इस नाट यूजफुल- मोर एवर, वी आर फेस्ड विथ ए कान्फिक्ट बिटवीन द ओल्ड एड द न्यू जनरेशन’’ अर्थात हम अपने देश में शान्तिपूर्ण तरीके से आर्थिक और सामाजिक क्रान्ति लाना चाहते हैं। परन्तु इसके लिए वर्तमान ‘‘पारिवारिक नेतृत्व’’ उपयोगी नहीं है। फिलहाल हम नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच संघर्ष का सामना कर रहे हैं।

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