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अंधेरे के बाद

अंधेरे के बाद

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in कहानी, जनवरी- २०१३
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प्रभात का पत्र था, आज मैं असमंजस की स्थिति में फंसा महसूस कर रही हूं। एक ओर पुत्र, पुत्रवधू और पोती को देखने की चाहत से दिल में प्रसन्नता का सैलाब उमड़ा पड़ रहा है; वहीं दूसरी ओर, उनके पहले आगमन की याद, एक कसक बन कर सीने में चुभने लगती है।
मन हर आहट पर रोमांच से भर उठता था। बार-बार यही लगता-‘शायद वह आ गया।’ जब से उसका पत्र मिला तभी से मन में एक अजीब खुशी का अहसास होने लगा था। इंतजार की घड़ियां काटे नहीं कट रही थीं। आज मेरी तपस्या का फल साकार होने वाला है।

गरीबी में पली, बढ़ी, हमेशा पिता की मजबूरियां देख कर अपनी इच्छाओं का दमन करती रही। पढ़ाई में तेज होने के कारण बजीफा मिलता रहा, जो पढ़ाई को आगे बढ़ानें में सहायक रहा। बहुत इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूं।

पिताजी अस्पताल में कर्मचारी थे। उनके साथ कभी अस्पताल जाती तो वहां सफेद ड्रेस पहने डाक्टरों को इधर से उधर घूमता देख मेरे अंदर डाक्टर बनने की इच्छा बलवती होने लगती। मन ही मन तय करती कि चाहे कुछ भी हो मैं डाक्टर अवश्य बनूंगी। लेकिन, सभी भाई-बहनों में बड़ी होने के कारण और पारिवारिक संस्कारोंवश मेरी इच्छा मन में ही दफन हो गई।

कालबेल की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी। शायद वह आ गया। सोच कर उमंग से उठी और जल्दी से दरवाजा खोल दिया। पर सामने दूधवाले को देख सारी उमंग ठंडी पड़ गई।
‘‘बीबी जी! आज से दूध एक रुपया महंगा हो गया है’’- बरतन में दूध उड़ेलते हुए दूधवाला बोला।

‘‘अच्छा-अच्छा ठीक है….पर कल से ज्यादा दूध लाना।’’
‘‘अच्छा….! पर काहे?’’
‘‘प्रभात आ रहा है।’’
‘‘फिर तो बहुत खुशी की बात है।’’

दूध ले, किचिन में जा कर चूल्हे पर दूध चढ़ा दिया। लगता है अब मेरे दुख के बादल छट जाएंगे। बचपन से इस उम्र तक क्या कभी मैंने चैन की सांस ली है। शुरू से ही अपनी इच्छाओं का ही दमन करती रही और धीरे-धीरे जैसे सब इच्छाएं ही मर गई, सिवाय एक इच्छा के; जो सोते-जागते मेरे अवचेतन मन में रहती है।

ये नहीं कि मैंने कोशिश ही न की हो, प्रवेश परीक्षा में बैठी थी। प्रतीक्षा सूची में नम्बर भी आ गया, पर अचानक पिताजी की तबीयत खराब हो गई। उनको हार्टअटैक हुआ था। दूसरा अटैक जाने कब पड़ जाए, इन सारी मजबूरियों को देखते हुए किसी भी तरह का विद्रोह छोड़, मुझे विवाह के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ ही दिनों बाद मैं ससुराल आ गई। ससुराल में सभी का भरपूर प्यार मिला लेकिन, जो मेरी जिन्दगी का सहारा था उसे हर रात शराब के नशे में धुत्त, किसी न किसी का सहारा लेकर घर आना पड़ता। मैं चुपचाप इसे भी सहती रही। अब समझ में आया कि मुझ जैसी गरीब लड़की से ही उन्होंने शादी क्यों की।

दो-तीन महीने बाद पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं। मैंने आने वाले बच्चे का वास्ता देकर रोते हुए कहा- ‘देखो, शराब मत पिया करो आखिर आपको परेशानी किस बात की है? अब तो पिता भी बनने वाले हो….कुछ तो सोचिए।’

मना तो पहले भी करती थी पर आज की बात का उन पर जो असर हुआ उससे मैं फूली न समाई। उन्होंने खुश होते हुए मुझे बाहों में भर लिया और गोल-गोल घुमाते हुए बोले- ‘‘सच कह रही हो? मेरा बेटा आ रहा है।….तो मैं ये झूठा सहारा आज से छोड़ दूंगा…बिल्कुल छोड़ दूंगा।’’
और सचमुच ही उन्होंने एक सप्ताह तक शराब को हाथ नहीं लगाया। मैं बहुत खुश थी, पर यह खुशी भी स्थायी न रह सकी। खुशी के पल इतने क्षणिक क्यों होते हैं?

मन सुबह से ही न जाने कैसा-कैसा हो रहा था। किसी भी काम में जी नहीं लग रहा था। उस दिन सुबह से ही बारिश हो रही थी और थोड़ी-थोड़ी देर बाद बिजली कड़क रही थी। धीरे-धीरे रात भी घिर आई पर ‘ये’ घर नहीं लौटे। मन अनगिनत आशंकाओं से घिर उठा। हर आहट पर बैचेन हो उठती, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी।

दरवाजा खोल कर देखा तो मेरी चीख निकल गई। खून से लहू लुहान, इनका शरीर पड़ोसी रामनाथ लिए हुए थे। मुझे सामने देख एकदम रुंआंसे हो कर बोले- ‘भाभी जी! मेरा दोस्त मुझ से रूठ कर चला गया।’

मैं ये अचानक देख, अवाक रह गई। थोड़ी देर तक बुत बनीं खड़ी रही, फिर बेहोश हो गई। होश आने पर सब कुछ शांत हो चुका था। बाद में पता चला कि एक ट्रक ने इन्हें टक्कर मार दी थी।

कुछ दिन तो यूं ही निकल गये। सोचते कि अब मैं क्या करूं। आखिर मैंने कुछ करने की ठान ली। पहले लोगों के कपड़े सिलने शुरू किए। फिर उनके छोटे-मोठे बच्चों की देख-भाल और ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इस तरह अपना और प्रभात का गुजारा हो जाता। जो मजबूरियां कभी मेरी पढ़ाई में बाधा बनीं थी, वही आज प्रभात के सामने आने लगी। इस लिए मैंने रात-दिन महनत करके अपनी पढ़ाई को भी आगे बढ़ाया और फिर विद्यालय में प्रवक्ता बन गई।

आर्थिक समस्या अब किसी हद तक सुलझ गई थी। अब तो मेरे सामने एक ही उद्देश्य था ‘प्रभात को पढ़ा कर डाक्टर बनाना’।
धीरे-धीरे प्रभात मेरी आशा के अनुरूप पढ़ता रहा। प्रवेश परीक्षा पास कर वह मेडिकल कालेज में पढ़ने लगा। हमेशा पढ़ाई में अच्छे अंक प्राप्त करने के कारण उसे सरकार की ओर से आगे की पढ़ाई हेतु विदेश भेज दिया गया। मेरी प्रसन्नता की सीमा न रही। मेरा सपना जो पूरा होने वाला था।

काल बेल की तेज आवाज ने मेरी विचार शृंखला भंग कर दी। दरवाजा खोल कर देखा, डाकिया खड़ा था।
‘बहन जी! आपका तार।’
‘तार’ शब्द सुनते ही मेरा समूचा अस्तित्व हिलने सा लगा। किसी भावी आशंका से मन कांप उठा। धीरे-धीरे मैं अचेत हो गई होश आने पर देखा, दिन ढ़ल चुका था। दिन भर की सारी बातें फिर याद आने लगीं। तार का ध्यान आते ही फिर सारे शरीर में कंपकंपी होने लगी। क्या मेरे जीवन में सुख का एक भी पल नहीं है।

डरते-डरते तार खोल कर पढ़ा तो खुशी से झूम उठी। लिखा था- ‘हम दस जून की शाम को पहुंच रहे हैं।’
घड़ी की ओर देखा, साढ़े छह बज रहे थे। अभी तक क्यों नहीं आया? प्रतीक्षा का एक एक पल युगों लम्बा लग रहा था। साथ ही ‘हम’ शब्द पर कई प्रश्न मन में उठ रहे थे। पर थोड़ी ही देर में मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर मिल गया था। प्रभात अपनी विदेशी पत्नी के साथ एयरपोर्ट से निकल सीधा होटल में ठहरा था। जहां से उसने टेलीफोन पर अपने आने की सूचना दी थी।

होटल पहुंच कर मैंने सवालिया नजरें प्रभात के चेहरे पर टिका दीं तो वह एक दम से सकपका गया- ‘मां, वो…..वो…..आपकी बहू, ‘हाइके’ को उस छोटे से घर में रहने में असुविधा होती….इसलिए।’

हां वही घर, जहां मैंने प्रभात को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया था; वह घर आज उसकी पत्नी के लिए उसकी दृष्टि में छोटा असुविधा जनक हो गया। अपने दिल की हूक, दिल में ही दबा मैंने होटल से घर आ गई थी। सोचते हुए- शायद मेरे जीवन में सुख लिखा ही नहीं सुख होता तो पति ही क्यों मंझधार में छोड़ जाते? या फिर स्वयं के संघर्षों से मैंने प्रभात को सुख देने योग्य बनाया तो वह भी पराया हो गया। क्या मिला मुझे? जीवन के सुख-दुख के जोड़ घटाने में ऐसी खोई की काल बेल की तेज आवाज भी बहुत देर तक मुझे सुनाई ही न पड़ी। उठ कर दरवाजा खोला। सामने प्रभात अपनी पत्नी और छोटी बच्ची के साथ खड़ा था।

‘तुम!….तुम लोग….।’ खुशी के मारे उसके शब्द गले में ही अटक कर रह गए।
‘हां मां!….’ कह कर दोनों मेरे पैरों पर झुक गए। पर दूसरे ही अतीत का दंश फिर घायल कर कर गया। और मैं आशंकित सी पूछ बैठी-‘क्यों?….होटल में ठहरने का प्रबंध नहीं किया, बहू के लिए?’
‘नही मां, अब हम आपके साथ यहीं रह कर अपना क्लीनिक चलाएंगे। देखो न, मैंने हिन्दी बोलना भी सीख लिया है।’- विदेशी बहू के मुंह से हिन्दी में बोले गए ये शब्द जैसे मिश्री घोल गए और प्यार की उमड़ती बाढ़ को मैंने अपनी पोती पर उड़ेल दिया।

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