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मनमोहना बड़े झूठे

मनमोहना बड़े झूठे

by शरद साठे
in जनवरी- २०१३, राजनीति
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प्रसिद्ध व्यंग्यचित्रकार आर. के. लक्ष्मण अगर आज अपने व्यंग्य चित्र ‘कामन मेन’ बनाने की स्थिति में होते तो उनके सामने सबसे बडा प्रश्न आता किसकि विषयों पर कितने चित्र बनाऊं? उनके कामन मेन को आज चारों ओर से डंक मारे जा रहे हैं। उसके शरीर पर कोई ऐसी जगह शेष नहीं हैं जहां जख्म न हो।

देश के प्रमुख से लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां, उद्योगपति, वित्तीय संस्थाएं, अनेक बिल्डर्स और चंदा इकट्ठा करनेवाले तथाकथित कार्यकर्ता उस ‘कामन मेन’ पर शाब्दिक, आर्थिक, भावनात्मक इत्यादि प्रहार करके उसकी अवस्था दयनीय बनाने पर तुले हैं। कोई भी अधिभार, नया कर, वैट लगाया जाता है और इसकी वसूली प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी की फटी हुई जेब से ही हो रही है।
हमारे प्रधानमंत्री वैश्विक स्तर के अर्थशास्त्री हैं। सन 1990 में इन्होंने ‘विश्व बैंक, इंटरनेशल मोनेटरी फंड जैसी वैश्विक अर्थव्यवस्थाकों के माध्यम से देश में पहली ‘अर्थ क्रांती’ की शुरूवात की। पंचतारांकित होटल में पत्रकार परिषद आयोजित करके वहां के भोजन का आस्वाद लेते हुए तथाकथित अर्थशास्त्रियों समाचार पत्रों और अनेक प्रसार माध्यमों ने उनकी खूब वाहवाही की। परंतु पिछले 22 वर्षों में जिन क्षेत्रों में प्रगति होनी चाहिये थी उन में कालचक्र उलटी दिशा में घूम गया। सामान्य नागरिक की आधारभूत आवश्यकताएं- रोटी, कपडा, मकान तीनों के संदर्भ में यह कालचक्र विनाश की ओर ही अग्रसर हुआ है। सत्तर से अस्सी प्रतिशत लोगों का आर्थिक स्तर और नीचे गिर गया है। छोटे उद्योग-धंधे कई कारणों से बंद हो गये हैं। बडे उद्योगों में तो जैसे बैंकों से लिये हुए कर्जों को डुबाने की होड़ लगी है। अनेक उद्योगों ने अपने देश के कारखानों को बंद करके चीन में नये कारखाने स्थापित किये हैं। देश का मजदूर का हाल उनके संगठनों की अनावश्यक मांगों के कारण खराब है। अधिक से अधिक फसल का उत्पादन करने के सरकार के आदेश के कारण किसानों ने रासायनिक खादों का उपयोग करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि खेती की जमीने बंजर हो गई और किसान आत्महत्या करने को मजबूर हे गया।

सरकार ने नया आदेश दिया, ‘रासायनिक खाद का उपयोग बंद करें, प्राकृतिक खादों का उपयोग करें।’ परंतु यह समझदारी सरकार को तब आई जब जमीने बंजर हो चुकी हैं। देश को स्वतंत्र हुए 65 वर्ष हो चुके हैं परंतु आर्थिक क्रांति कुछ ही क्षेत्रों में दिखाई दे रही है। दूर संचार माध्यमों में अन्य देशों के अनुरूप ही प्रगति हुई। अनेक क्षेत्रों में संगठनों का उपयोग होने लगा है। साफ्टवेअर क्षेत्र में हम अमेरिका और यूरोप से आगे है। इस क्षेत्र में हमारी प्रगति देखने लायक है। परंतु अन्य क्षेत्रों का क्या? सन 1990 में भारत पर एक बडा आर्थिक संकट आया था। उसे विश्व बैंक के कर्ज को चुकाने के लिये अपना सोना बेचना पडा था। इस परिस्थिती से भारत को उभारा हमारे अभी के प्रधानमंत्री ने। परंतु उसके लिये विश्व बैंक, आय. एम. एफ. ने कुछ ऐसी शर्तें रखीं जिसकी पूर्ती करने के लिये हम उनके हाथ की कठपुतली बन गये और उनके अनुरूप ही हमें अपनी आर्थिक भूमिका बनवनी पड़ी। उनकी धूर्तता का परिणाम आज सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है। आज हम फिर उसी स्थिति में आ गये है। निम्न वर्ग के लोगों की संख्या जो आजादी के पूर्व थी उसमें पिछले 65 वर्षों में वृद्धि ही दिखाई देती है।

मध्यम वर्ग बचा ही नहीं है। समाज और देश के लिये भी हमारा कुछ कर्तव्य है ऐसी भावना आज मानव के मन से निकलती जा रही है और वह व्यवहारवादी बन गया है और केवल अपने चौकोन परिवार के सुख के लिये प्रयत्नशील है। उसने अपने आप को अपने घर तक सीमित कर लिया है। राजनेताओं में कोई भी आश्वासक नेतृत्व नजर न आने के कारण आम आदमी के मन से राजनेताओ का विश्वास उठ गया है। ‘हम और हमारा परिवार’ में ही इंसान सिमट गया है। राजनैतिक पार्टियों में से ‘कार्यकर्ता’ लुप्त होते जा रहे हैं। सभी को पद की लालसा हैं। सत्ता की लालसा है। और इसके लिये वे किसी भी मार्ग से धन कमाने के लिये आतुर हैं। प्रत्येक व्यक्ति किसी दल में नेता के रुप में ही काम करना चाहता हैं।

आज स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार, महंगाई आदि में इतनी बढ़ोत्तरी हो गई है कि इंसान को जीवनज्ञापन की आधारभूत सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं।
अभी की सरकार इस पशोपेश में है कि लोगों को दिलासा कैसे दिया जाये। विरोधी पक्ष में भी वो धार नहीं रही। ‘सब मिल बांट के खायेंगे’ की प्रवृत्ति राजनीतिक दलों में बढ़ती जा रही है। इन सबसे मार्ग निकालने के लिये हमारे प्रधानमंत्री ने देश के आर्थिक विकास के लिये कुछ कदम उठाये। इन निर्णयों के अंतिम परिमा सर्वसामान्य जनता पर ही होनेवाला है और महंगाई का सबसे जोरदार झटका किसानों और कर्मचारियों को ही लगेगा। कीमते बढ़ाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री द्वारा दिये गये बयानों को अगर गौर से सुना गया तो ऐसा लगेगा कि ये सारे लक्षण सठियाने के हैं। उदाहरणार्थ- उन्होंने कहा कि डिजल से चलने वाली गाडियां उपयोग में लानेवाले धनवानों के लिये सरकार नुकसान क्यों उठाये?

प्रधानमंत्री ये बतायें कि डीजल से चलनेवाली गाडियों का कितने अमीर उपयोग करते है? सामान लाने ले जाने वाले भारी ट्रक, यात्रियों को यात्रा करवानेवाली बसें, किसानों के लिये उपयोगी ट्रेक्टर, हमारे सैनिकों को लगने वाले यातायात के साधन, रेल्वे के इंजन इत्यादि सभी सीएनजी या पेट्रोल पर नहीं वरन डीजल से चलते हैं। अर्थात डीजल की कीमत बढ़ने का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिणाम महंगाई वृद्धि पर ही होगा। हमारे प्रधानमंत्री को क्या इतनी छोटी सी बात समझ में नहीं आती जो वे उपरोक्त बयान दे रहे हैं।

ईंधनो की कीमत में अगर वृद्धि नहीं की गई तो सरकारी खातों को अनुदान (सब्सिडी) का भार सहना पडेगा। सरकार कई क्षेत्रों में अनुदान देती है। इस अनुदान को कम करने की प्रक्रिया अगर विकासशील देशों द्वारा अपनाई गई तो वहां का आम आदमी इसे तभी स्वीकार करेगा। जब उसकी कमाई भी उतनी ही गति से बढ़ रही हो। पिछले कई वर्षों से केन्द्र और राज्य सरकार के द्वारा लगाये गये करों के आम आदमी की कमर तोड दी है। करों में जितनी वृद्धि हुई है उस हिसाब से उसकी कमाई में वृद्धि नहीं हुई। वह अभी भी गरीबी रेखा के नीचे ही है। इन बातों पर विचार न करके प्रधानमंत्री सबसे कहते हैं कि पैसे पेड पर नहीं उगते? यह बात एक सामान्य व्यक्ति भी जानता है। पैसे पेड पर नही उगते पर साथ ही वह यह भी जानता है कि फिलहाल किसके पेड पर पैसा उग रहा है और कौन उसे कहां निवेश कर रहा है।

आज सार्वजनिक, सहकारी और निजी बैंको में जमा राशि केवल दस से पंद्रह प्रतिशत तक ही हैं। और बची हुई पचासी से नब्बे प्रतिशत विदेशी बैंकों में है। अत: सामान्य व्यक्ति को भी अभी की परिस्थिती का ज्ञान है। अत: आम लोगों के यह बताने के बजाय कि पैसे पेड पर नहीं लगते प्रधानमंत्री को उन लोगों को सुनाना चाहिये जिनके पेडों पर सचमुच पैसे लगे हैं। साथ ही उनकी तिजोरी से धन निकाल कर सरकारी खातें में लाने के लिये प्रयास करने चाहिये।

1931 में लिये गये आर्थिक सुधार के निर्णय के अनुसार अगर विचार करें किस क्षेत्र में कितना विकास हुआ है तो हम पायेंगे कि निम्न स्तर के आदमी के हाथ में मोबाइल जरुर आ गया है परंतु रोटी, कपडा, मकान का प्रश्न जैसे का तैसे ही है। भ्रष्टाचार की आंधी में ये तीन आवश्यक वस्तुएं उड गईं और आदमी के एक हाथ में भीक मांगने का कटोरा और दूसरे हाथ में मोबाइल रह गया। आज प्रधानमंत्री ने जो आर्थिक निर्णय लिया है उसके परिणाम आनेवाले बीस वर्षों में दिखाई देंगे। उस समय का चित्र तो और भी भयावह होगा क्योंकि उस समय देश की आर्थिक बागडोर विश्व बैंक और आय. एम. एफ. तथा भ्रष्टाचारियों के हाथों में होगी। समाज में 90% लोग निम्न स्तर के होंगे। उनके दोनों हाथों में मोबाइल तो होगा। परंतु उस मोबाइल का उपयोग करने की परिस्थिती में वे नहीं होंगे। प्रधानमंत्री आगे कहते हैं कि इससे पहले कि लोगों का अभी की अर्थव्यवस्था से विश्वास उठ जाये कुछ कडे कदम उठाने आवश्यक है। अभी हर व्यक्ति अपने परिवार को आर्थिक थपेडों की मार से बचाने में मशगूल है। उसका अर्थव्यवस्था से विश्वास उठ चुका है। सरकार के समझाने के पूर्व ही वह जान गया है कि ये कठोर उपाय योजना किसके कहने पर बनाई जा रही है। जिस तरह मदारी बंदर को नचाता है उस तरह विश्व बैंक और आय. एम. एफ. सरकार को नया रहे हैं।

विकासशील देश की अर्थव्यवस्था घाटे की ही होती है, परंतु जैसे-जैसे देश का विकास होता है इस घाटे को कम होना चाहिये परंतु हमारे साथ उलटा हो रहा है। अर्थात हम विकास की ओर नहीं अधोगति की ओर जा रहे हैं। परस्थिति को बदलने के लिये जो उपाय योजना बनाई जा रही है उसके कारण देश या तो फिर से गुलाम बन जायेगा या फिर अराजकता निर्माण हो जायेगी।

आज की परिस्थिती से बाहर निकलने का एक ही मार्ग हमारे प्रधानमंत्री बताते हैं, वो है सभी क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार में, प्रसारण क्षेत्र में, सार्वजनिक क्षेत्र के छोटे-बडे उद्योग धंधों में, हवाई यात्रा के क्षेत्र में विदेशी निवेश का निर्णय लेना और उसपर अमल करना। इससे देश में रोजगार के साधन बढेंगे। किसानो को उनकी वस्तुओं का योग्य भाव मिलेगा। बिचौलिये न होने के कारण ग्राहकों को कम कीमत पर वस्तुएं प्राप्त होगी। परंतु यह व्यवस्था कैसी होगी? इसके माध्यम से किसान, कर्मचारी, छोटे उद्योग धंदे, ग्रामोद्योग, कुटीरोउद्योग आदि को सदी दाम कैसे मिलेगा? क्या इसके लिये भी सरकार ने कोई योजना बनाई है? इसका कोई जवाब नहीं है। विदेशी निवेश के निर्णय पर अमल करने या न करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालकर केन्द्र सरकार ने अपने हाथ झटक लिये हैं।

अभी देश में कई मॉल शुरु हो रहे हैं और बंद भी हो रहे हैं। इनकी कीमतों और खुदरा व्यापारियों की कीमतों में कोई विशेष अंतर नहीं है। क्योंकि खरीददारी तो दोनों की थोक खरीददारों से ही होती है। इसके बाद मॉल या खुदरा व्यापारियों को उसके परिवहन, व्यवस्थापन, कर्मचारी की वेतन आदि खर्चों को जोडकर उसका ग्राहकों के लिये कीमत तय की जाती है। वॉलमार्ट यहां आ भी जाये तो वह स्वत: के लाभ का ही विचार करेगा। अन्य कोई भी कंपनी जो विदेश से भारत में आई है अपने लाभ का ही विचार करेगी। उनका होने वाला लाभ उनके देश को होगा। इसका हमारे देश पर नकारात्मक प्रभाव पडेगा और फिर से 1990 जैसी स्थिति आने की संभावना बन सकती है।

इस वर्ष के बजट में तीन राष्ट्रीयकृत बैंकों की आर्थिक सक्षमता बढ़ाने के लिये पंद्रह हजार करोड़ रुपयों की व्यवस्था की गई है। ये तीन बैंक इस प्रकार हैं। 1) इंडियन ओव्हरसीज बैंक 2) बैंक ऑफ महाराष्ट्र 3) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया। इन बैंकों के एन. पी. ए. आत्यधिक बढ़ने के कारण वे रिजर्व बैंक के नॉर्म्स का पालन नहीं कर सकते। इस बात को ध्यान में रखकर ही सरकार ने ये कदम उठाये हैं। पिछले तीन चार वर्षों से राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिये ऐसी व्यवस्था करनी ही पड रही है। इसका कारण यह है कि इन बैंकों ने लघुउद्योगों को नजरंदाज कर दिया है और बडे उद्योगों अनावश्यक कर्ज दिया। अब इन बडी कंपनीयों के पास कर्ज वापस करने के लिये जमा पूंजी नहीं है। रिजर्व बैंक ने छोटी-छोटी सहकारी बैंकों को अपने जाल में फंसाने के स्थान पर अगर इन बडी मछलियों को पकडा तो ही इस देश की प्रगती हो सकेगी।

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