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बिंब-प्रतिबिंब 

बिंब-प्रतिबिंब 

by रमेश यादव
in जनवरी- २०१३, साहित्य
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‘बिंब-प्रतिबिंब’ स्वामी विवेकानंद जी के जीवन पर आधारित आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया एक उपन्यास है, जो मराठी के वरिष्ठ और चिर-परिचित लेखक चंद्रकांत खोत की समृद्ध लेखनी से साकार हुआ है। नब्बे के दशक में धूम मचानेवाले इस उपन्यास की उस दौर में खूब बिक्री हुई और मराठी के साहित्यकारों ने इसकी जमकर तारीफ की। परिणामत: इस कृति को भारतीय भाषा परिषद- कोलकाता द्वारा साहित्य के क्षेत्र में दिया जानेवाला प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा नई दिल्ली के विज्ञान भवन में प्रदान किया गया। इसके अलावा कई अन्य पुरस्कार भी इस कृति को प्राप्त हुए हैं। डिंपल पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित इसकी नई आवृत्ति, नए रूप में बाजार में उपलब्ध है।

भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों के हिंदी अनुवाद को छापने की योजना के अंतर्गत यह कृति अब भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हिंदी में छप रही है, जिसका हिंदी अनुवाद लेखक एवं पत्रकार रमेश यादव ने किया है। एक अलग फॉर्म मे लिखा गया यह उपन्यास स्वामी विवेकानंद के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को छूता है। स्वामीजी के जीवन के कई ऐसे पहलु हैं, जिससे आम पाठकगण आज भी अनभिज्ञ हैं। इसका जिक्र जब स्वामीजी स्वयं करते हैं तो आश्चर्य होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामीजी भी जनसाधारण का ही एक अंग रहे हैं। भारतीय भाषाओं के साहित्य की ऊँचाइयां निर्विवाद रूप से सत्य है। इसके मूल में मानवीय गुणों के प्रति समर्पण का भाव छिपा है। इसी के कारण यह उपन्यास विविधतापूर्ण संस्कृति में भारतीयता की मूलभूत ऊँचाइयों को स्वर देता है। यह स्वर बड़ी प्रखरता से निश्चित शिखर तक जाता है और अपने विशेष होने का तान छेड़ता है। सैकड़ों किताबों के निचोड के बाद एक अलग बिंब लेखक ने इस कृति में प्रस्तुत किया है।

कहानी रूपी आत्मकथात्मक शैली का यह उपन्यास विवेकानंदजी की समग्रता को मात्र एक खंड में प्रस्तुत करता है। जबकि अनेक मान्यवर लेखकों ने इसे पाँच से दस खंडों में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। क्लिष्टता से बचने तथा सीधी, सरल, सपाट भाषा से गुजरते हुए इसे आम जनों तक पहुँचाने के लिए खोत साहब ने शायद यह प्रयोग किया होगा। अपनी प्रस्तावना में वे लिखते हैं कि विवेकानंद पर लगभग हर भाषा में इतना साहित्य उपलब्ध है कि पाठकों को कश्मकश की स्थिति से गुजरना पड़ता है कि वह क्या पढ़े, क्या छोड़े। विवेकानंदजी का जीवन, कार्य, गुरु राकमकृष्णजी, उनके गुरुबंधु, उनके शिष्य, उनका स्वदेश-विदेश भ्रमण, देश की तत्कालीन स्थिति इत्यादि पर आधारित यह एक दुर्लभ कृति है, जिसमें कई विषय वस्तुओं को एक ही जगह समाहित करने की कोशिश की गई है। बोलचाल की आम भाषा, छोटे-छोटे 115 अध्याय, 480 पृष्ठ, 300 से अधिक दुर्लभ फोटो, स्केच और विवेकानंदजी को खास फक्कडी शैली में प्रस्तुत करने की लेखकीय शैली इस उपन्यास को रोचक, पठनीय एवं खास बनाते हैं। पु.ल. देशपांडे जैसे मूर्धन्य साहित्यकार ने इस उपन्यास की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
हमारा साहित्य जगत समृद्ध, संपन्न, और बेहद बृहद होने के बावजूद भी कई कारणों से साहित्यकार को संपन्नता तो दूर पर दो वक्त की रोटी भी नहीं दे सकता, यह चिंता का विषय है। कई साहित्यकार अपनी नौकरी की सारी सेवा शर्तों को पूरा करते हुए साहित्य की भी सेवा तन्मयता से कर रहे हैं पर उनका कार्यालय इस बात की दखल नहीं लेता, यह बेहद खेद का विषय है। वहीं दूसरी ओर खिलाड़ियों को तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह कहते हुए खोत साहब अक्सर कहीं शून्य में खो जाते हैं।

‘‘आमी विवेकानंद बोलछी…..’’ लगभग इसी वाक्य से इस उपन्यास का आरंभ होता है। उपन्यास के तमाम घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि उनकी याददाश्त बहुत अच्छी थी। संगीत का उन्हें अच्छा ज्ञान था, इसका प्रशिक्षण उन्होंने वेणीमाधव अधिकारी और उस्ताद अहमद खां से लिया था। उनका गला बड़ा सुरीला था। मात्र 15 वर्ष की आयु में उनकी पहली पुस्तक ‘संगीत कल्पतरू’ प्रकाशित हुई थी। गुरु रामकृष्ण को लेकर कई रोचक बातों का जिक्र इस पुस्तक में है। गुरु सिर्फ गुरु नहीं बल्कि महागरु थे। गुरु विवाहित-शिष्य ब्रह्मचारी, दोनो शारदामाता को माँ के रूप में देखते थे, गुरु निरक्षर-शिष्य स्नातक, गुरु ब्राह्मण-शिष्य क्षत्रिय कायस्त, गुरु निर्धन – शिष्य संभ्रात परिवार से, गुरु मूर्ति पूजक- शिष्य निर्गुण निराकारी, गुरु शाकाहरी- शिष्य सर्वाहारी, गुरु कृश कोमल तो शिष्य पुष्ट सुगठित शरीरधारी, गुरु असुंदर तो शिष्य सुंदर,रौबदार, राजस्व भावभरा, आकर्षक व्यक्तित्व का नौजवान, गुरु कोलकाता तक सीमित रहे तो शिष्य पूरे भारत और विश्व के कई राष्ट्रों का भ्रमण करते हुए अपनी ओजस्वी वाणी से गुरु की महिमा और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करता रहा। ऐसे कई विरोधाभास होते हुए भी गुरु शिष्य की यह जोडी, विश्व की तमाम अद्भुत जोड़ियों में से एक है- जिसमें मच्छिंद्रनाथ-गोरखनाथ, सॉक्रेटीस- प्लेटो इत्यादि का समावेश है। रामकृष्णजी और विवेकानंद दोनों स्वच्छ निर्मल आइने की तरह हैं, जिनका प्रतिबिंब समाज के लिए एक आदर्श उदाहरण है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दो बातियों को यदि साथ-साथ रख दिया जाए तो कौन सी बाती से कौन सा दीप प्रज्वलित होता है यह कहना मुश्किल है। विवेकानंद 12जनवरी, 1863, पौष मास की कृष्ण सप्तमी को 6 बजकर 33 मिनट पर जन्मे तथा दुर्गाचरण, वीरेश्वर, विविदिषानंद, सच्चिदानंद, नरेन्द्र और प्यार से ‘‘बिले’’ नाम से समाज में पुकारे गए। अमेरिका में आयोजित ‘‘सर्वधर्म परिषद’’ में हिंदू धर्म संस्कृति का लोहा मनवानेवाले विवेकानंदजी एक महानायक बनकर उभर और उन्होंने भारत की पताका पूरे विश्व में बुलंद की। एक साहित्यकार, उत्कृष्ट पत्र लेखक, गायक, वादक, प्रखर वक्ता, विद्वान पंडित, पाककला में निपुण, इस योद्धा सन्यासी ने 4 जुलाई, 1902 को मात्र 39 वर्ष, 5 महीने, 22 दिन में इस जगत अलविदा कह दिया।

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