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बिंब-प्रतिबिंब 

भारत के समृद्धि की कहानी कहती पुस्तक

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in जनवरी- २०१३, साहित्य
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भारत एक धर्मप्राण देश है। यहाँ का सम्पूर्ण जीवनचक्र धर्म के चतुर्दिक घूमता रहता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है। धर्म पूर्वक जीवन-यापन करते हुए अर्थ का उपार्जन करना और उसका त्यागपूर्ण उपभोग करते हुए मोक्ष के पथ पर अग्रसर होना ही नीति के अनुकूल माना गया है। धनोपार्जन के अनेक उपादानों का विवरण भारतीय वांङ्मय में बताया गया है। वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ, स्मृतियां, रामायण, महाभारत इत्यादि में राष्ट्र और उसके नागरिकों की समृद्धि के सूत्र दिये गये है। इन्हीं सूत्रों को पकड़कर ही व्यक्ति और राष्ट्र विविध प्रकार से आगे बढ़ते हैं।

पूरी दुनिया में अर्थशास्त्र के चार आयाम प्रमुखता से माने जाते है। सबसे पहले एडम स्मिथ ने इसे धन का शास्त्र कहा। उनसे आगे बढ़कर प्रो. मार्शल ने इसे मानव कल्याण का शास्त्र बताया। व्यापक अर्थों के इस सिद्धान्त को नकारते हुए राबिन्सन ने इसको भौतिकता का शास्त्र निरूपित किया। किन्तु भारतीय विद्वान अर्थशास्त्री प्रो. जे. के. मेहता ने अर्थशास्त्र को आवश्यकता विहीनता का शास्त्र सिद्ध किया। भारतीय जीवन-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में विभाजित है। संन्यास-अर्थात सर्वस्व का त्याग। यहीं पर आकर अर्थशास्त्र के सारे उपादान ठहर जाते हैं।

इन्हीं उच्चविचारों के आधार पर श्री सन्दीप सिंह ने अपनी पुस्तक ‘इण्डियन ओशन स्ट्रेटजी’ की रचना की है। इस पुस्तक में विश्व व्यापार के सबसे प्रमुख मार्ग हिन्द महासागर के महत्व पर प्रकाश डालते हुए भारतीय व्यापार की पद्धतियों के आधार पर भारत की समृद्धि के कारकों का वर्णन किया है। हिन्दी में इस बहुचर्चित पुस्तक का अनुवाद ‘भारत का समृद्धि चक्र’ शीर्षक से किया गया है। यद्यपि यह अर्थशास्त्र से जुड़े विषय पर केन्द्रित पुस्तक है, किन्तु इसके सहारे लेखक ने भारत के समृद्ध इतिहास का वर्णन किया है। इसकी पुस्तक की प्रस्तावना में वे कहते हैं कि प्राचीन काल में भारत के वस्त्र, हथकरघों के सुन्दर उत्पाद, सूती-ऊनी-रेशमी और मखमली वस्त्र दुनियाभर में प्रसिद्ध थे। ऐसी ही ख्याति यहाँ के मोहक आभूषण और सुन्दरता से तराशे गये कीमती रत्नों की भी थी। भारत के मिट्टी के बर्तन, चिकनी मिट्टी और सिरमिक्स के हर तरह के उत्पाद प्रसिद्ध थे। लोहे, इस्पात, चांदी और सोने की सुन्दर कलाकृतियां खूब प्रसिद्ध थीं। यहाँ महान व्यापारी, व्यवसायी, बैंकर और साहूकार हुआ करते थे। भारत जहाज बनाने वाला महानतम् राष्ट्र था। समुद्री मार्ग से इसका व्यापार सभी सभ्य देशों तक फैला था। अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत ऐसा ही था।

जिसे हम हिन्दू अर्थशास्त्र कह सकते हैं, उसका एक उत्कृष्ट नमूना यह पुस्तक प्रस्तुत करती है। कुल चौदह खण्डों में विभाजित पुस्तक में भारतीय अर्थशास्त्र, उद्योग, व्यापार, प्रबन्धन, ब्रांडिग, रणनीति, समृद्धि चक्र का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन विषयों पर अपनी बात को प्रामाणिक सिद्ध करते हुए सन्दीप सिंह ने भारतीय और विदेशी विद्वानों के कथनों भारतीय ग्रन्थों और समय-समय पर घटी घटनाओं का उल्लेख किया है। देश-विदेश के उद्योगपतियों के समृद्धि चक्र का विवरण भी विस्तार से दिया है।

‘भारत का समृद्धि चक्र’ पुस्तक का परिचय देते हुए स्वयं लेखक ने इसकी प्रस्तावना में लिखा है- ‘इस पुस्तक की दृष्टि वर्तमान और भविष्य पर है। जब यह इतिहास के झरोखे में झांकती है, तब वह कुछ स्मरण करने और भूतकाल के साथ वर्तमान एवं भविष्य को जोड़ने के लिए ऐसा करती है।…यह पुस्तक किसी एक के नहीं, बल्कि कइयों के भविष्य को बेहतर बनाने की प्रक्रिया के बारे में बात करती है।…यह हिन्दू जीवन पद्धति के विचारों और साधनों का पूरा सच प्रस्तुत करती है, जिसका उपयोग लोग अपने बेहतर भविष्य के लिए कर सकते है। बृहद पैमाने पर एकीकरण और समन्वय की आवश्यकता वह धागा है, जो इस सम्पूर्ण पुस्तक में चलती जाती है। अर्थात हिन्दुत्व में व्यवसाय और अर्थशास्त्र का एकीकरण।’’

भारत में उद्योग तथा व्यवसाय के उद्भव एवं हरेक कालखण्ड में हुए विकास के सन्दर्भ में सन्दीप सिंह ने आगे लिखा है- ‘‘यह पुस्तक भारत में उद्योग के उद्भव तथा व्यवसाय की रूपरेखा के बारे में चर्चा करती है। यह अनुसंधान करते हुए चलती है कि भारत के सनातन ब्रांड्स किससे बने हैं और अन्तत: रणनीति के माडल सहित निष्कर्ष पर पहुंचती है। यही भारत की विशेष पहचान है। हिन्दू संस्कृति हमें ब्रांड्स की लम्बी सूची प्रदान करती है, जो हमें ब्रांड निर्मित करने की प्रक्रिया को समझने में मदद करती है।… वैसे इस पुस्तक का केन्द्र तो भारत है, लेकिन प्रयोजन और पद्धति, सामग्री और सन्दर्भ, निहितार्थ और परिबल, विचार और संस्थान के मामलों पर यह प्रकाश डालती है और सभी समुदायों का समावेश करती है, जो कि वैश्वीकरण की शक्तियों द्वारा एक-दूसरे के साथ अधिकाधिक गुंथते जा रहे है।’

पुस्तक में दी गयी सामग्री लगभग दो सौ पचास ग्रन्थों के अनुशीलन से निकाली गयी है। इतिहास के साथ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में घटनाओं तथा तथ्यों को बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। विषय आर्थिक और औद्योगिक तथा व्यावसायिक सन्दर्भ में है, अतएव विषय वस्तु की दुरूहता स्पष्ट झलकती है। यद्यपि प्रत्येक पृष्ठ पर किसी न किसी भारतीय अथवा विदेशी विद्वान या किसी पुस्तक से उद्धृत कथन दिये गये हैं, जो विषय को अच्छी तरह स्पष्ट कर रहे हैं, लेकिन पाठन में प्रवाह न होने से निरन्तरता का अभाव है। कुछ तो अनुवाद की क्लिष्टता और कुछ भाषान्तर का प्रभाव पुस्तक को पढ़ने समय एकाग्रचित्तता को तोड़ते है।

एक बात निर्विवाद है कि ‘भारत का समृद्धि चक्र’ पुस्तक में भारतीय वांङ्मय के जितने उद्द्धरणों को एक साथ दिया गया है और वर्तमान समय के अर्थजगत के साथ उसे जिस कुशलता के साथ जोड़ा गया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। विषय सामग्री की नवीनता और प्रस्तुतीकरण की शैली इसके महत्व को बढ़ाते हैं। यह पुस्तक उन सभी अध्येताओं के लिए पठनीय और संग्रहणीय है, जो भारत और भारतीय आर्थिक व्यवहार को जानना एवं समझना चाहते हैं।

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