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स्त्री शक्ति-सामर्थ्य दिखाने वाली फिल्मों का प्रवाह

स्त्री शक्ति-सामर्थ्य दिखाने वाली फिल्मों का प्रवाह

by दिलीप ठाकुर
in फिल्म, मार्च २०१३
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महमूद खान निर्देशित ‘औरत’ से सुजय घोष निर्देशित ‘कहानी’ तक स्त्री-शक्ति, अस्तित्व तथा महत्व दर्शाने वाली नायिकाप्रधान फिल्मों का बहुत बड़ा प्रवाह है। हिंदी फिल्म जगत में फिल्म निर्माण का प्रमाण देखते हुए फिल्मी स्त्री की शक्ति का प्रमाण कम ही है, पर क्यों? इसके प्रमुख कारण ये हैं।

हिंदी फिल्में तथा फिल्म निर्माण नायक प्रधान (पुरुष-प्रधान) है। फिल्म नायक के इर्द-गिर्द ही घूमती है।
अभिनय की उत्कृष्ट क्षमता रखने वाली अभिनेत्रियों की संख्या दिनों-दिन कम होती रही है। सामाजिक परंपरा से जुड़े विषयों पर नारी प्रधान किरदार भी खूब दिखना। खुद के इर्द-गिर्द कथानक रहे, ऐसी हिम्मत बहुत कम अभिनेत्री ही दिखा सकी हैं। वर्तमान में गुणी, बहुमुखी,मेहनती इमेज बनाने से अधिक ध्यान सेक्स-सिंबल कहलाते की ओर ज्यादा झुकाव देखा जा रहा है।

अशांति पूर्ण वातावरण में कुछ फिल्मों से स्त्री-शक्ति का प्रदर्शन हुआ। नायिका अथवा स्त्री के पास सौंदर्य के अलावा और बहुत कुछ है, उसे प्रदर्शित न करके उसे भोग्या के रूप में फिल्मी परदे पर उतारा जाता रहा है।

झटपट लोकप्रियता हासिल करने के लिए अभिनेत्रियों के सौंदर्य को दिखाने की मानसिकता के कारण ज्यादातर फिल्मों में वे सशक्त अभिनय के लिए चर्चित नहीं हो सकीं, इस दुर्भाग्य ही माना जाएगा।

खैर, स्त्री को शक्ति के रूप में दिखाने वाली फिल्मों हर दौर में बनीं और उनमें कुछ अच्छा बदलाव भी हुआ। ( कुछ लोगों को नए युग का नया बदलाव पसंद नहीं आया, तो कुछ ने इस बदलाव को स्वीकारने से मना कर दिया। (हरेक के विचार करने की प्रवृति अलग-अलग होती है, साथ ही बदलाव के तरीके को अंगीकार करने की धारणा भी अलग होती है।)

निर्माता-निर्देशक फ्रांस आस्टिन की अछूत कन्या (1936) में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म का कथानक दलित युवती का ब्राहम्ण युवक की ओर आकर्षित होने पर आधारित है। निर्देशक मेहबूब खान की मदर इंडिया (1957) तो महबूब खान ने अपनी औरत नामक फिल्म की रिमेक के रूप में प्रस्तुत की थी। रिमेक के तौर पर बनी मदर इंडिया औरत से कहीं ज्यादा पसंद की गई। मदर इंडिया में राधा (नर्गिस) अपने दो में से एक पुत्र अर्थात बिरजू (सुनील दत्त) के प्रति जनता के व्यवहार से परेशान हो जाती है और उस पर बंदूक चला देती है। इस फिल्म में मां का फैसला तथा बर्ताव बहुत कड़ा दिखाई दिये। बेटे का अंत करने का साहस वह दिखाती है। बिल्कुल अलग कथानक के कारण यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ नायिका प्रधान फिल्म बनी। इस फिल्म में मां की केंद्रीय भूमिका नायिका की ही मानी जाएगी। मदर इंडिया जैसी ताकतवर स्त्री समाज में हर स्तर पर होनी चाहिए ( योग्य निर्णय लेने की तैयारी के संदर्भ में) ऐसा फिल्म देखने वाले हर दर्शक को लगा और फिल्म का नायिका प्रधान होना ही इसकी सफलता का मूलाधार बना।

गुरुदत्त निर्देशित साहेब बीबी और गुलाम (1957) में पति को प्रसन्न रखने के लिए पत्नी शराब का सेवन करती है। इस फिल्म में भारतीय पत्नी की पति की मर्जी संभालने की छवि दिखाई गई है। इससे एक बिल्कुल अलग संस्कृति का दर्शन होता है।

विमल रॉय निर्देशित बंदिनी (1963) में ग्रामीण युवती की भावनाओं का दर्शन होता है। विजय आनंद निर्देशित गाइड (1966) में पति ( किशोर साहू) अपने काम को ज्यादा प्रधानता देता है, इस कारण उसकी पत्नी रोजा ( वहीदा रहमान) अकेलेपन से त्रस्त हो जाती है। ऐसे समय एक बार उसकी मुलाकात राजू गाइड ( देव आनंद) से होती है। राजू गाइड के प्रसन्नचित्त व्यवहार से रोजा काफी प्रभावित हो जाती है। राजू के साथ मुलाकात से रोजा को जीवन का नया अर्थ तथा आनंद की अनुभूति होती है। राजू से बढ़ती निकटता के कारण वह उसे अपनाने का फैसला करती है और अपने पति के खिलाफ बगावत करके राजू गाइड के साथ रहने का निर्णय करती है।

मुजफ्फर अली निर्देशित उमराव जान फिल्म में नायिका (रेखा) वेश्या के कोठे से बाहर निकल कर नई जिंदगी जीना चाहती है। राजकुमार संतोषी की फिल्म दामिनी (1993) में एक अमीर घराने में होली के रंग के हुडदंग में घर में काम करने वाली औरत ( प्राजक्ता दिघे) के साथ कुछ युवक जबरदस्ती करते हैं, तब उसे न्याय दिलाने उसी परिवार की नई बहु दामिनी (मिनाक्षी शेषाद्री) सबलता से खड़ी रहती है। पीड़ित महिला को न्याय दिलाने के लिए आने वाले सभी परेशानियों को मात देकर अपने मिशन में जीत प्राप्त करती है।

शिमिन असीन निर्देशित चक दे इंडिया (2007) में देश के विभिन्न भाग की 11 युवतियां हॉकी खेलने का प्रशिक्षण प्राप्त करती हैं तथा देश को विश्वकप दिलवा देती हैं।

मिथुन सुथारिया निर्देशित डर्टी पिक्चर (2012) में दक्षिण भारतीय फिल्मकारों की एकता के लिए सेक्सी अभिनेत्री सिल्क स्मिता की महात्वाकांक्षा, जोड़तोड़ तथा धोखाधड़ी तथा इन सबसे मिली असफलता पर फोकस किया गया है। फिल्म के मूल कथानक या वास्तविक बातों के बारे भरपूर मसाला था, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि फिल्म की नायिका विद्या बालन ने अपना किरदार बहुत अच्छी से निभाया है। विद्या बालन ने एक मुसीबत की मारी नायिका के प्रति लोगों की सहानुभूति का क्या अर्थ होता है, इसे भी बखूबी अभिनीत किया है।

स्री शक्ति का दर्शन-प्रदर्शन करने वाली फिल्मों की सूची इसी तरह बढ़ाई जा सकती है, पर वह वर्षभर में सवा सौ- डेढ़ तक और बढ़ सकती है, क्या यह फिल्म निर्माण क्षेत्र में किए जा रहे कार्यों को देखते हुए भरपूर है, शायद नहीं, ऐसे स्त्री-शक्ति विषय पर विश्वास तथा अभ्यास इन दोनों दृष्टि से विचार करना जरूरी है।

वी. शांताराम निर्देशित दुनिया न माने फिल्म में एक सोलह साल की युवती मध्यमवर्गीय युवक से विवाह करने से स्पष्ट इंकार कर देती है। 1937 में इस कथानक पर आधारित किरदार को साकारने का साहस यही बताना है कि उस समय किसके साथ विवाह करना है, इसका निर्णय प्रमुखता से माता-पिता ही लिया करते थे।

विमल रॉय ने फिल्म सुजाता में एक हरिजन नायिका (नूतन) की कथा तथा व्यथा को परदे पर उतारा है। नूतन की उत्कृष्ट अदाकारी के कारण यह फिल्म बॉक्स आफिस में हिट रही।

अरुणा-विकास निर्देशित रिहाई में प्रेमी से हुए बच्चे को स्वीकारने का ढ़ाढ़स प्रेमिका हेमामालिनी दिखाती है, तो बासू भट्टाचार्य निर्देशित पंचवटी में हम अपने काम में व्यस्त रहने के कारण पत्नी (दीप्ती नवल) परपुरुष (सुरेश ओबेरॉय) से निकट का संबंध बना लेती है। परपुरुष से संबंध के कारण दीप्ती नवल गर्भवती हो जाती है, जब यह बात दीप्ती के पति अरबाज खान को पता चलती है, तो वह इस पर किसी भी प्रकार से खलबली नहीं मचाता और उसके साथ सहानुभूति ही दिखाता, बल्कि उसके प्रति सहानुभूति ही दिखाता है।

विमल रॉय के त्रिराज बहु में स्त्री की सुंदरता को लेकर एक अलग तरह का कथानक प्रस्तुत किया गया है। फिल्म की नायिका मीनाकुमारी ने कथानक के अनुरूप स्त्री के दर्द को बड़ी उत्कृष्टता से अभिनीत किया है। विमल राय ने दो बीधा जमीन में पति शंभू ( बलराज सहानी) शहर में माल ढोने वाली गाड़ी चलाकर जीवन जीने का संघर्ष फिल्मी परदे पर उतारा है। संघर्ष के इसी दौर में शंभू की पत्नी पार्वती गावात में घर तथा इज्जत बचाने की कोशिश करती है।

स्त्री शक्ति व सामर्थ्य दिखाने वाली फिल्मों में अनुपमा, मेम दीदी, आराधना, कटी पतंग, अंकुर, निशांत, भूमिका,
मंथन, मम्मो, सरदारी बेगम, जुबेदा, रजनीगंधा, चैताली जैसी कई फिल्मों का समावेश किया जा सकता है। बी.आर.इशारा की नायिका प्रधान फिल्में बहुत चर्चित रही हैं। चेतना, चरित्र, एक नारी दो रूप, खरा-खोटा जैसी फिल्मों का इस सूची में समावेश किया जा सकता है। इशारा ने विवाह बाह्य संबंधों पर आधारित कथानकों पर ज्यादा महत्व दिया है। स्त्री का उसके अंदर भी एक रूप है और उसमें वह अपना स्वाभिमान का संरक्षण करके कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लेती है। सत्तर के दशक में ऐसी नायिका को दर्शकों तथा समीक्षकों द्वारा स्वीकार करना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। बी.आर. इशारा ने पारंपरिक स्त्री की छवि तथा अधिकार को दृढ़ता से बदला, फिर भी इन फिल्मों को मुख्य प्रवाह में स्थान नहीं मिला। निर्देशक महेश भट्ट ने मसीहे और भी हैं, अर्थ, लहू के दो रंग जैसी कुछ फिल्मों के माध्यम से स्री शक्ति का प्रदर्शन किया है।

प्रकाश झा ने स्थायी तौर पर बिहार की पार्श्वभूमि पर आधारित कथानकों को अपनी फिल्मों में स्थान दिया है, उनकी अधिकांश फिल्मों की शूटिंग महाराष्ट्र के वाई, पंचगणी, सातारा में हुई है। उनकी फिल्म मृत्युदंड में स्त्री का स्वाभिमान दिखा, पर शबाना आजमी के सशक्त अभिनय के आगे माधुरी दीक्षित के अभिनय की श्रेणी का पता चला। सौंदर्य के बल पर माधुरी दीक्षित ने कमजोर अभिनय की कमी को पूरा कर दिया। यही पारंपरिक लोकप्रिय फिल्मों की विशेषता है।

मधुर भंडारकर ने स्त्री के विविध रूप को फिल्मी परदे पर साकारने का सिलसिला जारी रखा। चांदनी बार (तब्बू), कार्पोरेट ( विपाशा बसु), हिरोइन ( करीना कपूर) ये उनकी मुख्य फिल्में रही हैं। कार्पोरेट में 21 वीं शताब्दी के पहले दशक की स्त्री का दर्शन होता है, जो आज के प्रगतिशील दौर की नायिका के रूप को उजागर करने वाली फिल्म साबित हुई। हिरोइन फिल्म में उन्होंने अजाने में ही एक विपदाग्रस्त अभिनेत्री के दुःख को दर्शाया।

बी. आर. चोपड़ा की साधना, गुमराह, दहलीज, यश चोपड़ा की चांदनी, लम्हे, जब्बार पटेल का सुबह, उबंरठा (मराठी फिल्म), ऋषिकेश मुखर्जी की मिट्टी, खुबसूरत, वासु भट्टाचार्य की गृह प्रवेश, अरुणा विकास का शक जैसी फिल्मों से स्त्री शक्ति को खास प्रधानता दी गई है। महेश भट्ट की मर्डर फिल्म में नायिका का वर्णन क्या किया जाए? पति की अपेक्षा प्रेमी श्रेष्ठ इस दिशा में नायिका विचार करती है, जिसे भारतीय संस्कृति, सभ्यता में स्वीकार नहीं किया जाएगा।

हिंदी फिल्म की नायिका की यात्रा घुंघट की आड से संस्कृति से शीला की जवानी का, तक विस्तार है। नायिका प्रधान फिल्मों में समय के अनुरूप कुछ बदलाव हुए। स्री की पवित्रता, उसका स्वाभिमान को फिल्मी परदे पर सदैव ही महत्व मिलता रहा है, पर केवल शोभिनी तथा बहादुरी का तमगा देकर उसे परदे पर न दिखाया जाए, ऐसी अपेक्षा है। उसे केवल दिखाने तथा जरूरत के लिए उपयोग करने की प्रवृति बदलनी जरूरी है। नारी को फिल्मी परदे पर जिस रूप में दिखाया जा रहा है, उसके लिए पटकथा लेखक, निर्माता- निर्देशक तथा कुछ हद तक दर्शक भी जिम्मेदार हैं। दिखाई देने का अर्थ ही हम हैं, ऐसा मानने वाली बहुत सी अभिनेत्रियां हैं, इसी कारण फिल्मी परदे पर अभिनेत्रियां सिर्फ नुमाइश का जरिया बनती जा रही हैं।

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