मोदी के भविष्य पर विचार

भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को नरेन्द्र मोदी के भविष्य को लेकर अटकलें लगाने से मना कर दिया है। राजनाथ सिंह को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के लिये यह आदेश जारी करना पडा कि वे यह सवाल बार-बार न पूछें कि क्या गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रुप में प्रचार किया जाये? राजनाथ सिंह के ऐसा करने से स्पष्ट है कि पार्टी के उपरी स्तर के नेताओं में ही मोदी को प्रधानमंत्री बनाये जाने के विषय में एक मत नहीं है।

हो सकता है कि पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं की नजर उस पद पर हो पर कुछ ऐसे भी हैं जिनके पास विरोध करने का जायज कारण है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की प्रतिमा विवादास्पद रही है भले ही उसके सारे कारण उनके अपने न रहे हों।

मोदी मुख्य रुप से अंग्रेजी भाषा के अखबारो, टी. वी. चैनलों तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के अनवरत झूठे आरोपों के शिकार रहे हैं। बात यह नहीं है कि मोदी को निशाना न बनाया जाये। बात यह हैं कि एक मुख्यमंत्री और राजनेता के रूप में उनके द्वारा किये गये कार्यों को निशाना बनाया जाये। 2002 के गोधरा दंगों के बाद अद नसीम का बिना किसी ठोस सबूत के मोदी के विरोध में परोक्ष या अपरोक्ष रुप में बडबडाना अनुचित लगता है और अगर इसी मानदंड को देखा जाये तो जवाहरलाल नेहरु के समय से केन्द्र में जिसकी भी सत्ता रही वह सही सलामत ही बाहर आया है। उनके समकालीन एक स्तंभ लेखक ने हाल ही में यह बताया है कि नेहरु और उनके सहायक सरदार पटेल के संरक्षण में हैदराबाद में घटना हुई जिसमें 50 हजार से अधिक मुसलमान मारे गये थे। यह घटना स्वतंत्रता के बाद की पहली सांप्रदायिक घटना थी। मोदी को जाल में फंसानेवालों के तर्कों पर अगर गौर किया जाये तो नेहरू तो ऐसे पहले सांप्रदायिक हिंदू थे जिन्होंने एक ही झटके में बडी संख्या में मुसलमानों को मारा था। उस समय निश्चित रुप से उचित दिमागी अवस्था के लोगों ने नेहरू की निंदा की होगी। फिर मोदी का अपमान करना क्यों सही है जब उसी परिप्रेक्ष्य में हैदराबाद की घटना के बाद नेहरु का अपमान करना गलत था? याद रहे कि नेहरु इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के संरक्षण में भी जोरदार सांप्रदायिक अग्निकांड चले थे। वे तो अभी तक धर्म निरपेक्ष बने रहे, परंतु यह सुविधा मोदी के लिये नहीं है जिन्होने गुजरात दंगों के कारण इतना अपमान सहा। सच्चाई तो यह है कि गोधरा दंगों के बाद भी गुजरात में कोई भी सांप्रदायिक मुश्किलें नहीं हैं। परंतु मोदी को फंसाने वालों के दिमाग में यह बातें नहीं आयेगी। चुंकि जनता की अवधारणा राजनीति में बहुत महत्व रखती है। अत: यह नकारा नहीं जा सकता अल्पसंख्यकों को एक भाग मोदी का विरोधी है। इसी मुद्देने भाजपा की कुछ मित्र पार्टियों जैसे जनता दल यूनाइटेड को एक कारण दे दिया कि वे मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का विरोध करें। अत: केवल बिहार (जहां जनता दल यूनाइटेड का प्रभाव है) के मुसलमानों की उत्सुकता स्वाभाविक है कि मोदी प्रधानमंत्री हैं या नहीं।

दूसरी बात यह है कि मोदी हर तरह से भाजपा के लोकप्रिय नेता हैं जो न केवल पार्टी का स्तर ऊपर उठा सकते हैं बल्कि कई अस्थिर वोटों को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं। एक प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका के अनुसार मोदी लोकप्रियता में कांग्रेस के युवाराज राहुल गांधी से काफी आगे हैं। अत: भाजपा अध्यक्ष का रुख उपयुक्त है कि मोदी के विषय में फिलहाल ज्यादा उबाल न आये। अभी जब लोकसभा चुनावों में पंद्रह महीने शेष हैं तो मोदी का नाम लेकर बिहार के वोटों को क्यों रोका जाये? मोदी के केन्द्र में अभी से स्थान देना अध्यक्ष के स्वयं के अधिकारों को भी कम कर सकती है।

कुछ ही महीनों पूर्व गुजरात में मिली विशाल विजय के बाद मोदी का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर दिल्ली का रुख करना गुजरात के मतदाताओं के साथ भी धोखा होगा। अत: पार्टी के नेताओं को मोदी के भविष्य को लेकर बाते न बनाने के विषय में आदेश देना बिलकुल सही है हालांकि यह ज्यादा काम नही करेगा।

अब जब आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, अधिक से अधिक लोग चाहते हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रुप में प्रचारित किया जाये। अगर उनके समर्थकों ने नहीं किया तो जो लोग उनका विरोध करते हैं वो एक गंदी राजनीति के तहत दबाव डालेंगे कि भाजपा मोदी को उम्मीदवार के रुप में घोषित करे।

अब कहा जा सकता है कि अध्यक्ष राजनाथ सिंह अब इस यशोपेश में है कि मोदी और प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के विवाद से कैसे निबटा जाये।

जब तक यह विषय पकड नहीं जमा लेता मोदी संबंधी अटकलें बढ़ती ही रहेगी। परंतु इससे भाजपा को परेशान होने की जरुरत नहीं हैं।

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