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मल्टी स्टार कास्ट फिल्में : कभी खुशी, कभी खतरा!

मल्टी स्टार कास्ट फिल्में : कभी खुशी, कभी खतरा!

by दिलीप ठाकुर
in जून -२०१३, फिल्म
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सिनेमा के एक ही टिकट में, एक ही समय, बहुत सारे मशहूर कलाकार दिखेंगे, इस कारण क्या आप उस फिल्म को दिल खोलकर पसंद करेंगे?

अगर ऐसा कुछ होता, तो राजकुमार कोहली निर्मित एवं निर्देशित ‘राज तिलक’ सबसे बढ़िया और सफल मल्टी स्टार फिल्म साबित होती। उसमें कमल हसन, धर्मेन्द्र, राज बब्बर, विनोद मेहरा, रीना रॉय, सारिका आदि बड़े मशहूर ‘चेहरे’ थे लेकिन फिर भी दर्शकों ने उस फिल्म से पूरी तर मुंह मोड़ लिया। कुछ दर्शकों ने तो इस मल्टी स्टार फिल्म के आने और जाने की ओर ध्यान तक नहीं दिया।

खैर! सिनेमा के एक ही टिकट में कथा‡पटकथा के अनुरूप बहुत से मशहूर कलाकार ‘फिट’ दिखायी दिए, उनमें से कोई भी गैर जरूरी न लगे, तो क्या आप वह फिल्म देख सकते हैं? क्या उसमें आप मशगूल हो सकते हैं? जी. पी. सिप्पी निर्मित एवं रमेश सिप्पी निर्देशित ‘शोले’ फिल्म वैसी है। सन 1975 की यह कलाकृति सर्वकालीन श्रेष्ठ स्तर की मानी जाती है। इस फिल्म में कथा‡पटकथा के अनुसार जाने-माने कलाकार बिल्कुल ‘फिट’ रहे। संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी जैसे बड़े कलाकारों को एक साथ लाना ही दाद देने लायक है। जब इस फिल्म का निर्माण हो रहा था, उस समय अमजद खान हिंदी रंगभूमि का कलाकार था। वहां बेहतरीन अदाकारी करते हुए ही उसने ‘हिंदुस्तान की कसम’ जैसी कुछ फिल्मों में छोटी भूमिकाएं की, लेकिन ‘शोले’ की सफलता से वह मशहूर अभिनेता बन गया। उस क्रूरकर्मा गब्बर सिंह की दहशत लम्बे अरसे तक बनी हुई थी।

अच्छा अब सिनेमा के एक ही टिकट में किसी पारम्परिक मशहूर फिल्म में (उसे मसालेदार मनोरंजन कहा जाता है) मशहूर कलाकारों को बहुत ही बढ़िया ढंग से प्रस्तुत करना क्या आपको पसंद होगा? मनमोहन देसाई निर्मित एवं निर्देशित ‘अमर अकबर एंथनी’ में हमें उसकी अनुभूति मिली। यह एक बिल्कुल सटीक मल्टी स्टार फिल्म है। अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, परवीन बॉबी, शबाना आजमी, नीतू सिंह, निरूपा रॉय और जीवन जैस मशहूर कलाकारों की मानों पलटन ही उसमें खड़ी थी। एक स्वादिष्ट भेल जैसी यह कहानी थी।
बहुत सारे कलाकारों का पटकथा में उचित प्रयोग किया हुआ हो तो दर्शक मल्टी स्टार फिल्म पसंद करते हैं और अगर ऐसा न हो तो दर्शक उसे स्वीकार नहीं करते।

बिलकुल शुरू‡शुरू में दो बड़े नायक अगर किसी फिल्म में एक साथ आते थे तो दर्शक उसे कुछ अनोखा मानते थे। वह जमाना अपने पसंदीदा हीरो के प्रति निष्ठा रखने का, उसके पक्ष में दलील देने का और किसी दूसरे कलाकार के चहेते के साथ वाद‡विवाद होने का था। उस दृष्टि से तीन उदाहरण पर्याप्त हैं‡

1) मेहबूब खान निर्देशित ‘अंदाज’। लगातार बहस होती थी कि इसमें अभिनय के मुकाबले में किसने बाजी मारी। इस फिल्म में दिलीप कुमार, राज कपूर और नर्गिस के जबरदस्त ‘प्रेम त्रिकोण’ की कहानी है।

2) एच. एस. रावेल निर्देशित ‘संघर्ष’ में संजीव कुमार ने दिलीप कुमार के सामने एक जबरदस्त चुनौती खड़ी की थी। फिर भी दिलीप कुमार के चहेतों को अपने साहब का परास्त होना पसंद नहीं आया। दोनों के बीच के संघर्ष में वैजयंती माला का अस्तित्व भी निखर उठा था।

3) हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित ‘नमक हराम’ में मालिक के खिलाफ मजदूर की लड़ाई मेंदो दोस्तों के आपसी रिश्ते को कसौटी पर कसा गया। राजेश खन्ना की भावुक अदाकारी पर अमिताभ बच्चन का एक ही पल में जाग उठा ‘एंग्री यंग मैन’ देखकर तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। ‘‘कौन है, वो माई का लाल, जिसने मेरे सोनू पर हाथ उठाया?’’ अमिताभ की यह आक्रामकता राजेश खन्ना को पूरी तरह ध्वस्त करने वाली रही, इसे राजेश खन्ना के निस्सीम भक्त हरगिज सह न सके…।

दो नायकों वाली फिल्मों को लेकर काफी बहस होती है। दोनों नायकों को चाहने वालों की भीड़ फिल्म देखने उमड़ती है, तो फिर तीन नायकों वाली फिल्मों की और ज्यादा चर्चा होगी। बॉक्स ऑफिस पर वे ज्यादा पसंद की जाएंगी जिससे व्यावसायिक भाव बढ़ना सम्भव होता है।
बी. आर. चोपड़ा निर्मित और यश चोपड़ा निर्देशित ‘वक्त’ पहली मल्टी स्टार कास्ट फिल्म मानी जाती है। बचपन में तीन बिछड़े हुए भाई बड़े होने पर मिलते हैं। इस कथासूत्र पर यह फिल्म आधारित है। परन्तु उन लड़कों के जीवन में आये हुए तूफान से सभी अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। ये तीन लड़के और उनके माता-पिता सभी एक-दूसरे से अलग-अलग हो जाते हैं। बरस बीतते जाते हैंऔर ये पांचों, अपना-अपना जीवन जीते चलते हैं। तीनों लड़के अब बड़े हो जाते हैं, लेकिन एक-दूसरे के भाई होने का उन्हें पता ही नहीं चलता। फिल्म के आखिरी हिस्से में ये सभी आपस में एक-दूसरे को पहचानते हैं और फिल्म सुखान्त बन जाती है। आज के रसिक दर्शकों के अनुसार इस फिल्मी कहानी में कुछ खास है ही नहीं, वह तो एक आम कहानी है। लेकिन साधारण सी होने वाली इस कहानी को रोचक‡रंजक बनाने की ही क्षमता निर्देशक में होनी चाहिए। बलराज साहनी, राज कुमार, सुनील दत्त, शशि कपूर, अचला सचदेव, साधना, शर्मिला टैगोर, मदन पुरी इत्यादि स्टार को एक ही फिल्म में साथ लाना और सभी को पटकथा के अनुरूप ढालना ही बड़ी चुनौती थी। ‘वक्त’ ने बड़ी भारी व्यावसायिक सफलता पायी, लेकिन मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों के युग का अवतरण होने में कुछ समय और लगा। फिल्मी जगत तीन अंगों-संवेदनशीलता, कलात्मकता तथा व्यावसायिकता से बना हुआ है। इसमें फल तुरन्त नहीं मिलता, उसके लिए कुछ काल बीतना जरूरी होता है।

नासिर हुसेन निर्देशित ‘यादों की बारात’ और रमेश सिप्पी निर्देशित ‘शोले’ की बड़ी सफलता के उपरान्त मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों बोलबाला बढ़ना आरम्भ हुआ। लगभग चालीस साल पहले उसका सूत्रपात हुआ और आज भी उसका सिलसिला जारी है। ‘शोले’ ठाकुर बलदेव सिंह के गब्बर सिंह से बदला लेने की मनोरंजक कहानी है।‘यादों की बारात’ में बचपन में एक-दूसरे से बिछड़े हुए तीन भाई बड़े होने पर आपस में एक-दूसरे को पहचानते हैं और अपने माता-पिता की हत्या का बदला लेते हैं। ऐसी फिल्म को ‘फॉर्म्युलाबाज’ कहकर नाक भौं सिकोड़ा जाता है। फिर भी उसकी रचना उबाने वाली न हो, यही निर्देशक का कौशल होता है। धर्मेन्द्र, विजय अरोरा, तारीक, जीनत अमान और अजीत जैसे कलाकारों को एक ही फिल्म में साथ लाना उनकी खासियत थी।

एक ही फिल्म के लिए बहुत से कलाकारों को इकट्ठा करते समय कथा‡पटकथा की वैसी ही मांग होना मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत होती है। यह सब होने के बावजूद भी कलाकारों की आपस में ट्यूनिंग बनना जरूरी होता है। (शशी कपूर और अमिताभ बच्चन की ट्यूनिंग बनी, तभी तो वे ‘शान’, ‘नमक हलाल’, ‘दो और दो पांच’, ‘सुहाग’ आदि कई फिल्मों में साथ रहे।) किसी अभिनेता को किसी भी तरह का ‘ईगो प्रॉबलम’ नहीं होना चाहिए। (राजेश खन्ना को था, तभी तो एक लम्बे अरसे तक वे ‘सिंगल हीरो’ बनकर काम करते रहे और तेजी से पिछड़ते गये।) कुछ पुरानी और किसी न किसी वजह ठीक न बन पाने से असफल रही कुछ मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों के नमूने देखने लायक हैं।

1) रमेश तलवार निर्देशित ‘दुनिया’ में दिलीप कुमार, सायरा बानू, ऋषि कपूर, अमृता सिंह, प्रेम चोपड़ा, अमरीश पुरी और प्राण इत्यादि कलाकार थे। यह एक ‘बदले की कहानी’ थी।

2) चेतन आनंद निर्देशित ‘कुदरत’ पुनर्जन्म पर आधारित कहानी थी। इस फिल्म में राजकुमार, राजेश खन्ना, प्रिया राजवंश, हेमा मालिनी और विनोद खन्ना थे।

3) विजय आनंद निर्देशित ‘राजपूत’ में धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, रंजिता इत्यादि सभी थे। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान विनोद खन्ना आचार्य रजनीश की भक्ति में लीन होने के कारण फिल्म के सेट पर कभी देर से आते थे, तो कभी आते ही न थे। उससे पटकथा में बहुत सारे बदलाव करने पड़े। उसका फल पर्दे पर दिखायी दिया।

4) सुलतान अहमद निर्देशित ‘धरम कांटा’ नामक मसालेदार फिल्म में राजकुमार, राजेश खन्ना, जितेन्द्र, वहीदा रेहमान, रीना रॉय, सुलक्षणा पण्डित और अमजद खान इत्यादि मुख्य कलाकार थे।

5) यश चोपड़ा निर्देशित ‘परम्परा’ फिल्म में खानदानी दुश्मनी दिखायी गई। सुनील दत्त, आमीर खान, सैफ अली खान, नीलम, अश्विनी भावे आदि उस फिल्म के कलाकार थे।

कुछ मल्टी स्टार कास्ट फिल्में अच्छी बन जाती हैं जैसे ‘कभी खुशी कभी गम’, तो कुछ पूरी तरह असफल साबित होती हैं जैसे ‘रजिया सुलतान’।

फिर इसी क्रम में शाहरुख खान और आमीर खान किसी भी फिल्म में साथ‡साथ क्यों नहीं आये? राजकुमार संतोषी ने पन्द्रह‡सोलह साल पहले इन दोनों को एक साथ लाने वाली फिल्म घोषित की थी। दोनों के बीच व्यावसायिक रिश्ता बनाने के उद्देश्य से उसने एक बड़ी गॉसिप मैगजीन के ‘कवर पेज’ के लिए दोनों का एक साथ फोटो सेशन भी किया। परन्तु कुछ न कुछ कारणोंसे वह फिल्म बहस के स्तर तक ही रही। इसी राजकुमार संतोषी ने ‘नसीब अपना‡अपना’ के लिए आमीर, सलमान, करिश्मा, रवीना को इकट्ठा किया, तब भी अपनी भूमिका को सलमान से बेहतर रखने के लिए आमीर े संतोषी के ऊपर प्रत्यक्ष‡अप्रत्यक्ष दबाव डाला, जिसकी चर्चा काफी दिनों तक चली।

अब क्या शाहरुख,हृतिक,रणबीर और कैटरीना,दीपिका, प्रियंका जैसे तीन नायक और तीन नायिकाओं वाली मल्टी स्टार कास्ट फिल्म का स्वागत किया जाएगा? आज की पीढ़ी के विषयों का पटकथा में सही ढंग से प्रस्तुतीकरण हो और फिल्म का निर्देशन प्रभावी हो, तो उस फिल्म को निश्चित रूप से पसंद किया जाता है। फिर भी इन सभी का ‘मूड और ईगो’ सम्भालने वाला निर्माता‡निर्देशक भी होना चाहिए। फिर जब उसे महसूस होता है कि इन कलाकारों की जगह दूसरा कोई होना चाहिए, तो वह शाहरुख, रणबीर सिंह, शाहिद कपूर, दीपिका, सोनाक्षी ,अनुष्का शर्मा आदि की जोड़ियां बना देता है। फिर उन सभी की तारीखें मिलना मुश्किल होता है, इसलिए शाहिद कपूर की जगह तुषार कपूर और सोनाक्षी सिन्हा की जगह परिणिता चोपड़ा जैसे विकल्प खोजे जाते हैं। सारांश यही कि मल्टी स्टार कास्ट फिल्म के लिए कलाकारों का चयन और जोड़ियां बनाना शुरुवाती परेशानी होती है। उसमें अगर नायक ही निर्माता भी हो तो वह अपनी फिल्म में खुद को केन्द्र में रखकर बनायी गई पटकथा ही चित्रित करेगा। अब इस हालत में उसकी फिल्म में दो या तीन नायक आखिर कब दिखायी देंगे। शाहरुख खान अत्यधिक व्यक्ति केंद्रित है, अपनी इमेज और शोहरत से उसे हमेशा ही सबसे बड़ा लगाव है। आखिर ऐसा स्वयं में ही उलझा हुआ हीरो मल्टी स्टार कास्ट फिल्म को उचित न्याय कैसे दे पाएगा? फिर भी ‘जोश’ ‘कभी खुशी‡कभी गम’ जैसी मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों में उन्होंने की। आमीर खान को तो ‘पटकथा’ से लेकर फिल्म के पोस्टर तक हर बात पर खास गौर करने वाले के रूप में ही पहचाना जाता है तो वह मल्टी स्टार कास्ट फिल्म की कार्य प्रणाली को कैसे स्वीकार करेंगे? अमिताभ बच्चन को ‘अभिनय का शहंशाह’ के रूप में पहचाना जाता है। उन्हें भी आमीर खान और नासिरुद्दिन शाह के साथ देखने का मौका कहीं मिला नहीं। निर्देशक इंद्र कुमार ने अमिताभ, आमीर और माधुरी दीक्षित को लेकर ‘रिश्ता’ नामक फिल्म का एक पंच तारांकित होटल में मुहूर्त किया। उसमें हाजिर होते समय ऐसा लगा था कि यह अभिनय का एक अच्छा खासा मुकाबला दिखाने वाली फिल्म होगी। असल में वह फिल्म मुहूर्त होते ही बन्द हो गयी।

गोलमाल, गोलमाल रिटर्न, काय पो चे, मस्ती, रेस, रेस 2, वेलकम, बोल बच्चन, हाउस फुल, हाउस फुल 2, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा इत्यादि हाल ही में तीन या उससे ज्यादा नायकों वाली फिल्में आयीं। कभी तो वह विषय के अनुरूप हुआ, तो कभी केवल रिपिटेशन। ऐसी व्यावसायिक रणनीति के परिणाम स्वरूप किसी साधारण क्षमता के अथवा खास मशहूर न होने वाले कलाकार को उस फिल्म में तीसरा या चौथा नायक अथवा नायिका के रूप में अवसर प्राप्त हो गया। यह भी इस विषय का और एक रंग है। काफी पहले राजकुमार कोहली ने ‘नगीना’, जानी दुश्मन’ जैसी फिल्मों में छह‡छह नायक‡नायिकाओं की जोड़ियां बनायीं। ऐसा करते समय आखिरी कुछ जोड़ियों को लेकर उन्हें कुछ समझौते करने पड़े।

मल्टी स्टार कास्ट फिल्म का विषय व्यापक और असीम है। उसे केवल फिल्मों के हिट होने के आधार पर न देखकर उसके रंग चारों ओर कैसे बिखरे हैं तथा भारतीय फिल्मों के सौ सालों के सफर के दौरान ऐसी फिल्मोंका भी एक स्वतंत्र और विशेष अस्तित्व है, यह भी देखना चाहिए। फिल्म निर्माण सीधी रेखा में आगे बढ़ने वाला विषय नहीं है। मल्टी स्टार कास्ट फिल्मोंमें बहुत सारी उलझनें और विरोधाभास भी हैं। सेट पर सभी की केमिस्ट्री और फिल्म के विज्ञापनों में सभी को उचित स्थान दिये जाने का सन्तुलन ध्यान देना होता है।
मल्टी स्टार कास्ट फिल्में अर्थात कई रंगों का मसाला होता है जो कभी स्वादिष्ट होता है तो कभी फीका।

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