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दुष्चक्र

दुष्चक्र

by राजेंद्र परदेसी
in कहानी, जून -२०१३
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इसे शिवचरण का लड़कपन कहा जाये या उसकी देशभक्ति, जब वह मात्र पन्द्रह वर्ष की वय में तिरंगा लेकर बयालिस के आन्दोलन में कूद पड़ा था।

लोग तो स्पष्ट नहीं कर पाते, लेकिन उनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि तिरंगा झण्डा लेकर वह भी कोई सपना देखा करता था। हमउम्र सुराजियों का कहना है कि बिहटा काण्ड के बाद एक दिन अंग्रेज सिपाहियों ने उसे बहुत प्रताड़ित किया था, लेकिन उसके मुंह से उनमें से किसी का भी नाम नहीं निकला जो उस काण्ड से जुड़े थे, जबकि गांव का बच्चा‡बच्चा उन नामों से परिचित हो चुका था।
सुराग लगा तो पुलिस विजय सिंह की तलाश में भटकती रही, क्योंकि एक तो गांव इतना बड़ा था, दूसरे गांव के लोग उनका सही अता‡पता नहीं बता रहे थे। निराश होकर पुलिस एक माह तक चुप बैठी रही। गांव के लोग भी आश्वस्त हो गये थे कि अब मामला ठण्डा पड़ गया है, लेकिन जैसे ही भादों में गंगा बढ़ी, बबुरा गांव का रास्ता चारों ओर से घिर गया और अचानक एक दिन रात में ही पटना से पानी वाले जहाज से पचासों गोरे आये और पूरे गांव को चारों ओर से घेर लिया। किसी अंग्रेज सिपाही ने विजय सिंह के घर में आग लगा दी। स्थिति की नाजुकता को देखकर विजय सिंह ने अनुमान लगा लिया कि अब बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। देर होगी तो गोरे नाहक ही गांव वालों को परेशान करने लगेंगे। इसलिए वह स्वयं ही घर से बाहर आ गये।

विजय सिंह के बाहर आते ही, गांव के दो‡चार उत्साही युवक जय‡जयकार करते हुए उनके पीछे लग गये।
गोरे सिपाही विजय सिंह को पकड़कर जहाज पर ले जाने लगे तो शिवचरण ने भी उस समय प्रतिरोध करने का प्रयास किया, इस पर सिपाहियों ने उसे भी पकड़ लिया। बाद में उसे किनारे ले जाकर छोड़ दिया। लेकिन विजय सिंह को जहाज में बैठाकर ले गये।
देश आजाद हुआ तो विजय सिंह को भी उन्मुक्त हवा में सांस लेने का सुअवसर मिला, लेकिन स्वास्थ्य लाभ मिलने के बजाये वे धीरे‡धीरे घुटन अनुभव करने लगे थे। अन्तिम दिनों में अतीत की कल्पना को वर्तमान में साकार नहीं देखने के कारण खीज से गये थे।
शहर से गांव तक सड़कें बन गयीं, नदी के ऊपर से रास्ता देने के लिए बीच‡बीच में पुलिया भी बनी।

शहर की सभ्यता गांव में प्रवेश करने लगी। लोगों का एक‡दूसरे के द्वार पर उठना‡बैठना समाप्त हो गया। वार्ता के केन्द्र बन गयी गांव के बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी वाली चाय की दुकानें, जहां निर्माण कार्यों पर चर्चा न होकर षडयंत्र के ताने‡बाने बुने जाते थे।

पहले लोगों का शहर आना‡जाना मुश्किल से महीने‡दो‡महीने पर होता था, वहीं आज सड़क पर तेज वाहनों के दौड़ते ही गांव से शहर की दूरी घण्टों में सिमट गयी। यात्राएं आम हो गयीं। संस्कृति और मानसिकता ऐसी विकृत हुई कि गांव के लोग न शहर के रहे न गांव के।

अधिकांश लोगों ने समय के साथ समझौता कर लिया था, लेकिन शिवचरण तो एकदम पगलेट है। कितनी बार उन्हें समझाया कि देखो काका तुम बेकार में लोगों के चक्कर में न पड़ा करो। लेकिन वह किसी का क्यों मानने लगे। कुछ लोग तो कहते हैं कि शिवचरण सठिया गये हैं, इसीलिए उल्टी‡सीधी बाते बोला करते हैं। पर मेरी मान्यता इसके बिलकुल विपरीत है। लगता है उनके हृदय में वर्तमान परिवेश को लेकर कहीं कोई घाव है। तभी तो उस दिन बहुत समय बाद जब गांव आया तो वह मुझे सड़क पर ही दिख गये। मैं सभी कार्य जल्दी से निपटाकर वापस लौट जाना चाहता था। इसीलिए बचकर निकल जाने की सोच ही रहा था कि तब तक वे मेरे पास आ गये और बोले‡ ‘बहुत दिनों बाद गांव आना हुआ?’

‘क्या करूं काका? छुट्टी नहीं मिलती।’
मेरी बातें हृदय के किसी कोने को छू सकीं या नहीं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वह जिस दार्शनिक अन्दाज में बोले, उससे मुझे अवश्य लगा कि मेरे गांव छोड़ने का उन्हें काफी दुख है। तभी तो बोले‡ सही कहते हो, गांव आने के लिए छुट्टी नहीं मिलती।’
शिवचरण की दार्शनिक बातें मेरी समझ के बाहर थीं। इसी आशय से मैं स्पष्ट होना चाहता था। ‘शिवचरण काका, तुम क्यों ऐसा सोच रहे हो, मैं समझा नही।’

मेरी बात सुनते ही बिना किसी लाग‡लपेट के वे ब्लॉक के बाबू की ओर इंगित कर बोले, ‘जानते हो, यह बड़ा बाबू कितना कमाता है।’
‘यही पांच‡छ: हजार पाता होगा।’
‘मैं पगार नहीं पूछ रहा हूं। मैं पूछ रहा हूं कि यह रोज कितना कमाता होगा।’
‘दिहाड़ी पर तो काम करता नही, जो तुम पूछते हो कि रोज कितना कमाता है। सरकार से महीना पाता है।’
‘तब तो तुम कुछ नहीं जानते।’
‘क्या नहीं जानता हूं।’
‘यह बड़ा बाबू तनख्वाह के अलावा ऊपर से दो‡चार सौ रुपया रोज कमाता है।’
शिवचरण की बातें, मुझे किसी स्तर से प्रभावित नहीं कर रही थीं, इसीलिए कहा, ‘लोग देते होंगे, तो लेता होगा, किसी पाकिट से निकाल तो नहीं लेता।’

मेरी बात काका को साल गयी, बोले, ‘ठीक कहते हो, तुम भी इसी व्यवस्था के अंग बन गये हो न।’
‘नहीं काका, तुम गलत समझे, मेरा आशय यह था कि लोग ऐसे व्यक्तियों को रिश्वत देकर प्रोत्साहित ही क्यों करते हैं।’
‘तुम समझते हो कि लोग यह सब अपनी खुशी से करते हैं, यह तुम्हारी भूल है। आज लोग निराश और हताश होकर ही ऐसा करने को मजबूर हैं। किससे कहें, कोई सुनने वाला भी तो नहीं। कल की बात है, अस्पताल के पास प्यारे मिल गया और कहने लगा‡ ‘शिवचरण भइया, अब तो कुछ करने का मन ही नहीं करता है।’

मैंने उसकी पीड़ा को जानना चाहा तो बोले, ‘अस्पताल में मरीज कहते हैं कि दूध देते हो कि पानी, तुम्हीं बताओ, हम क्या करें? डॉक्टर लोगों के घर पर दस किलो दूध बिना पैसे के देना होता है। क्या यह अपने घर से दूंगा, भले ही उसे पूरा करने के लिए पानी मिलाना पड़े। नहीं तो परिवार और जानवरों को कहां से खिलाऊंगा।’

‘शिवचरण काका, तुम कहां तक लोगों की बुराइयों को देखोगे, एक जगह हो तो बात भी है, यहां तो सभी जगह यही हाल है।’
‘शिवचरण काका इस बार ज्यादा ही उत्तेजित होकर बोले, ‘तू एकदम सही कहता है, अपना ही जब अपने को लूटने लगा है तो फिर उसे कौन बचा सकता है… तू सही कहता है।’ इसी बात को वह बार‡बार दुहराने लगे। मैं असमंजस में पड़ा सोचने लगा कि क्या वास्तव में शिवचरण काका सठिया गये हैं या हम स्वयं अपने को लूटने में लगे हैं।

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