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आमंत्रित पराजय

आमंत्रित पराजय

by रमेश पतंगे
in जून -२०१३, राजनीति
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कर्नाटक में भाजपा की हार हुई और नौ वर्षों के बाद कांग्रेस पुन: सत्ता में आयी है। यह सब जानते थे कि कर्नाटक में भाजपा की हार होगी। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा की हार अनपेक्षित है। पिछले वर्ष कर्नाटक में महापालिका के चुनाव हुए थे, उसमें भी भाजपा की पराजय हुई थी। पिछले साल ही यह निश्चित हो गया था कि जनमत की हवा किस ओर बह रही है।

दुखदायी पराजय :

भाजपा की पराजय स्वयं के द्वारा आमंत्रित पराजय है। इसे अंग्रेजी में ‘सेल्फ इन्फ्लिक्टेड वून्ड’ कहा जाता है। यहां एक फिल्मी गाने ‘मांझी जो नाव डुबोये उसे कौन बचाये’ की भी याद आती है। अथक प्रयासों के बाद कर्नाटक में भाजपा पहली बार सत्तारूढ़ हुई। दक्षिण भारत के पहले राज्य की सत्ता मिलने के बाद ऐसा लगा था कि अब दक्षिण भारत में दिग्विजय की शुरुवात होगी, परन्तु ऐसा हुआ नहीं। भाजपा की विजय का घोड़ा उसके अन्तर्गत कलह के कीचड़ में ही फंस गया। सभी समर्थकों को इसका गहरा दुख है।

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत हुई है। जनता ने कांग्रेस को सत्ता सौंपी है। इस जीत के लिए कांग्रेस का हार्दिक अभिनन्दन। कर्नाटक में विजय पाना आसान नहीं था। पूरे देश में अभी कांग्रेस विरोधी हवा बह रही है। भ्रष्टाचार के कारण केन्द्र सरकार खोखली हो गयी है। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सबसे कमजोर प्रधानमन्त्री हैं। वे स्वयं भी ‘कोल गेट’ काण्ड में फंसे हुए हैं। वे संसद का अधिवेशन भी सुचारु रूप से नहीं चला सकते। इस विपरीत वातावरण में भी कर्नाटक में कांग्रेस विजयी हुई, अत: उसका अभिनन्दन करना ही चाहिए।

कांग्रेस की विजय का सम्पूर्ण श्रेय भाजपा को दिया जाना चाहिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि लोग कांग्रेस को पसंद नहीं करते फिर भी कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस को क्यों जिताया? भाजपा ने तीन बड़ी गलितयां करके जनता को कांग्रेस के पाले में डाल दिया।

पहली गलती :

भाजपा ने पहली गलती की सत्ता चलाने में। सत्ता मिल तो गयी थी पर उसे चलायें कैसे? सत्ता चलाने का पहला सबसे उत्तम उदाहरण है गुजरात की भाजपा सरकार। दूसरा आदर्श उदाहरण है मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार और तीसरा आदर्श है छत्तीसगढ़ सरकार का। कर्नाटक में सत्ता में आने के बाद भाजपा नेताओं ने यह नहीं सीखा कि अपनी पार्टी के लोग सत्ता किस प्रकार चलाते हैं। येदियुरप्पा मुख्यमन्त्री बने और पारिवारिक भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही उन्हें मुख्यमन्त्री पद छोड़ना पड़ा, जेल की हवा खानी पड़ी और अन्त में भाजपा भी छोड़नी पड़ी। मंत्रिमण्डल के कुछ लोगों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे। परिणामस्वरूप जनता में यह सन्देश गया कि पैसा खाने के लिए भाजपा को सत्ता की आवश्यकता थी।

राज्य का धर्म :

सत्ता का स्वत: का एक धर्म होता है, जिसे राजधर्म कहा जाता है। राजधर्म का पहला तत्व है राज्य का न्यायानुरूप चलना। दूसरा तत्व है कि राज्य प्रजा का भरण‡पोषण करे। तीसरा तत्व है कि राज्य कानून और सुव्यवस्था का निर्माण करे। प्रजा को जहां राज्य के दण्ड विधान का भय होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर परिपालन का अभय भी होना चाहिए। इन कसौटियों पर कर्नाटक की भाजपा सरकार खरी नहीं उतरी। भाजपा सरकार को कर्नाटक में अच्छा आर्थिक विकास करना चाहिए था। आधारभूत सुविधाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि से सम्बन्धी कार्य करने चाहिए थे, जो सभी को दिखायी देते। ये काम करने के स्थान पर भ्रष्टाचार, खनन भ्रष्टाचार, मुख्यमन्त्री कौन? इत्यादि विवादों में ही भाजपा फंसी रही।

दूसरी गलती:

कर्नाटक में भाजपा ने अपने चुनाव क्षेत्रों को मजबूत न करने की दूसरी बड़ी गलती की। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि संघ के विविध उपक्रमों द्वारा किये जाने वाले कार्यों के कारण भाजपा के मतदाता बढ़ते हैं, भाजपा सत्ता में आती है। समाचार पत्रों में भी ‘संघ परिवार’ ही उल्लेख किया जाता है। परिवार की इन सभी संस्थाओं से उत्तम समन्वय साधना आवश्यक होता है। सत्ता पाने का अहंकार मन में न लाकर सभी से विनम्र व्यवहार करना होता है। परिवार की प्रत्येक संस्था के अपने कुछ महत्वपूर्ण विषय होते हैं। सत्ता में आये हुए भाजपा नेताओं से यह अपेक्षा होती है कि वे इन विषयों पर ध्यान दें।

कर्नाटक के भाजपा नेताओं ने यह अपेक्षा पूर्ण नहीं की। सत्ता की भी कुछ मर्यादाएं होती हैं। संस्थाओं को भी इसकी जानकारी होना आवश्यक है कि सरकार कानून और नियमों में बंधी हुई है। इसके लिए सतत संवाद बनाये रखना पड़ता है। उत्तम समन्वय रखना पड़ता है। मध्य प्रदेश में इसी तरह का उत्तम समन्वय रखा गया है। परिवार की संस्था और उनके कार्यकर्ता भाजपा कर्नाटक सरकार से दूर होते चले गये। वे दूर क्यों जा रहे हैं, इसकी मीमांसा भाजपा ने नहीं की। वे सदैव इसी भ्रम में रही कि वे कहीं और नहीं जाएंगे। भाजपा के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। उन्हें सारे संकेत मिल रहे थे कि कार्यकर्ता नाराज हैं। नगरपालिका चुनावों में भी वे संकेत मिले, परन्तु जब भाजपा ठान ही चुकी थी कि उसे कोई सबक नहीं लेना है तो कोई क्या कर सकता था।

तीसरी बड़ी गलती :

तीसरी बड़ी गलती थी केन्द्रीय नेतृत्व की। कर्नाटक की जीत के बाद आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु के चुनावों की व्यूह रचना केन्द्र की ओर से होनी आवश्यक थी। यह केन्द्र की ही जिम्मेदारी थी कि कर्नाटक की भाजपा सरकार सुव्यवस्थित चले। कोई दक्षता समिति या मण्डल बनाकर केन्द्र यह कार्य कर सकती थी। कर्नाटक की जनता ने जो सुनहरा मौका दिया था, उसका भरपूर फायदा उठया जाना चाहिए था।

मौके का फायदा उठाना तो दूर की बात, उस मौके को बुरी तरह गंवाने की राजनीति केन्द्रीय भाजपा ने की। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के विरोध में भी ऐसी ही राजनीति की गयी थी। जिसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा सत्ता से तो बाहर हुई ही, राज्य में भी सीधे चौथे क्रमांक पर आ पहुंची। कर्नाटक में भी अब भाजपा तीसरे क्रमांक पर है। भाजपा का सबसे दुर्बल बिन्दु यही है कि उसके पास देश परिवर्तन की दूरदृष्टि, विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित और सर्वमान्य नेता नहीं है।

दिल्ली में बैठे मुख्यत: अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले पत्रकार भाजपा के अन्तर्कलहों के बारे में हमेशा लिखते हैं। अभी भी वे कर्नाटक की हार के पीछे केन्द्रीय भाजपा को ही जिम्मेदार बता रहे हैं। यह कहना उचित नहीं होगा कि ये पत्रकार भाजपा विरोधी हैं या वामपंथी विचारधारा के हैं। उन्होंने विभिन्न नेताओं के नाम लेकर लेख लिखे हैं। इस लेख में उन नेताओं का नाम लेना उचित नहीं होगा। अब भाजपा के केन्द्रीय नेता कह रहे हैं कि कर्नाटक की पराजय खेदपूर्ण है और इससे हमें सबक लेना होगा। कोई भी उनसे यह पूछ सकता है कि उत्तर प्रदेश की हार से उन्होंने क्या सीखा? हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की पराजय से क्या सीखा? राजस्थान की हार से क्या सबक लिया? क्या गुटबाजी कम हुई? क्या किसी उच्च ध्येय को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को किनारे करने की मनोवृत्ति तैयार हुई?

असफल व्यूह रचना‡

केन्द्रीय नेतृत्व की दूसरी असफलता रही चुनावों की व्यूह रचना ।लोकतंत्र का हर चुनाव एक रणक्षेत्र होता है। लड़ाई जीतने के लिए कुशल सेनापति होना आवश्यक है। सेनापति को प्रतिस्पर्धियों के दुर्बल बिन्दु ज्ञात होने आवश्यक हैं। लड़ाई सदैव अपने लिए अनुकूल रणक्षेत्र पर लड़ी जानी चाहिए। चुनावों की भाषा में कहा जाये तो अपने लिए अनुकूल विषयों पर चुनाव लड़ने चाहिए। कर्नाटक के चुनाव वही जीतता है, जिसे वहां के जातीय समीकरणों का उपयुक्त ज्ञान हो। इसके लिए वहां के प्रत्येक मतदान क्षेत्र का गणित आना आवश्यक है। पिछले 3‡4 चुनावों में मतदाताओं का रुझान किस ओर था, मत किस ओर तथा किस पद्धति से परिवर्तित किये गए इत्यादि विषयों की जानकारी आवश्यक है। इसी आधार पर उम्मीदवारों को चुनना पड़ता है। ये सारे काम करने वाले लोग चुनावों से दूर होने चाहिए, अर्थात वे स्वयं उम्मीदवार नहीं होने चाहिए। कर्नाटक की दुखद पराजय यही दर्शाती? है कि कुशल सेनापति का अभाव है।

भाजपा के विरोधी और कांग्रेस के कुछ मुंहफट नेता कहने लगे हैं कि यह भाजपा की वैचारिक पराजय है। कर्नाटक में भाजपा की पराजय वैचारिक पराजय नहीं है। गौर से देखा जाये तो इस चुनाव में विचारधारा मुद्दा थी ही नहीं। मुद्दा यह था कि शासन कैसे चलाया जाये। भाजपा ने एक कुशासन का नमूना पेश किया जिसके कारण जनता ने भाजपा के विरोध में मतदान किया। यह मतदान कांग्रेस की विचारधारा को किया गया मतदान नहीं है और न ही इसलिए किया गया है क्योंकि कांग्रेस की सरकार अच्छी है। दूसरा कोई विकल्प न होने के कारण मजबूरन यह मतदान किया गया है। अत: पराजय को भाजपा की विचारधारा की पराजय मानना हास्यास्पद होगा। सर्वसामान्य लोगों को विचारधारा से भी कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि विचारधारा अमूर्त होती है। लोग विषय समझते हैं, कार्यक्रम समझते हैं, घोषणाएं समझते हैं। विचारधारा की चर्चा कुछ मुट्ठीभर विचारकों तक ही होती है। सामान्य आदमी कार्य चाहता है। वह सोचता है उसके बच्चों की शिक्षा का क्या होगा? उसकी जेब को भारी न पड़ने वाले घर उसे कैसे मिलेंगे? उसकी यात्रा सुखदायी कैसे होगी? क्या अनाज, फल, तेल उसे सस्ती कीमत पर मिलेंगे? बिजली कटौती कब खत्म होगी? क्या पीने का पानी प्रचुर मात्रा में मिलेगा? इस तरह के कई अन्य सवाल हैं जिनसे आम आदमी को दैनिक जीवन में लड़ना होता है। लोग इन प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर चाहते हैं, उन्हे विचारधारा की जनमघुट्टी नहीं चाहिए।

अब तो जाग जाओ :

यह अपेक्षा है कि कर्नाटक की हार से भाजपा के केन्द्रीय नेताओं की नींद उड़ जाये। प्रारम्भ में जो कहा गया है कि यह पराजय अनपेक्षित नहीं, बल्कि आमंत्रित है। यही सबसे बड़ा दुख है। यह कहना बाल‡बुद्धि ही होगी कि हार का कारण येदियुरप्पा हैं। विचारधारा व्यक्ति केन्द्रित नहीं है। अत: किसी एक व्यक्ति के कारण जय‡पराजय होना सही नहीं है। अगर येदियुरप्पा पार्टी में होते तो 10‡15 सीटें अधिक मिलतीं, परन्तु पराजय टाली नहीं जा सकती थी। यह पराजय ऐसे समय हुई है जब भाजपा को जीत की अत्यधिक आवश्यकता थी।

अगले साल लोक सभा के चुनाव होने वाले हैं। भाजपा ने कांग्रेस के भ्रष्ट प्रशासन का मुद्दा उठा रखा है। चुनाव में भी यह मुद्दा हावी रहेगा। सर्वसामान्य जनता भी कांग्रेस शासन से ऊब चुकी है। लोग परिवर्तन चाहते हैं। लोगों की परिवर्तन की आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए भाजपा को तैयार रहना पड़ेगा। उसके लिए पार्टी की गुटबाजी को खत्म करना होगा। युवा नेता और रास्तों पर उतरकर कार्य करने वाले नेताओं को आगे आना होगा। संघर्ष करने के मुद्दे ढूंढ़ने होंगे।

लोकतंत्र में यश प्राप्त करने के लिए लोगों की समस्याओं के लिए संघर्ष करने के लिए और उसके लिए सभी प्रकार के कष्ट सहन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर या वातानुकूलित गाड़ियों में घूमकर चुनाव नहीं जीते जाते। पंचतारांकित संस्कृति से बाहर आकर लोकतारांकित संस्कृति में उतरने की आवश्यकता है। जिन्होंने जनसंघ देखा है और पं. दीनदयाल उपाध्याय का नेतृत्व अनुभव किया है। उन्हें इन पुराने दिनों की याद जरूर आएगी। निर्विवाद यश प्राप्त करने के लिए अपनी जड़ों की ओर चलें, सर्व सामान्य जनता की ओर चलें। सफलता का यही एक मार्ग है।

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