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स्वामी विवेकानन्द की राष्ट्रीय प्रेरणा

स्वामी विवेकानन्द की राष्ट्रीय प्रेरणा

by प्रशांत पोल
in अगस्त-२०१३, सामाजिक
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सन 1863 के प्रारम्भ में, 14 जनवरी को स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ। उस समय देश की परिस्थिति कैसी थी?
1857 की क्रान्ति की ज्वालाएं बुझ रही थीं। यह युद्ध छापामार शैली में लगभग 1859 तक चला। अर्थात स्वामी विवेकानंद के जन्म के लगभग 4 वर्ष पहले तक। इस स्वतंत्रता संग्रम में भारत के स्वाभिमान की, भारत की स्वतंत्र मानसिकता की ‘तात्कालिक’ पराजय हुई थी। इस क्रान्ति में जीत के पश्चात अंग्रेजों ने स्थानीय प्रजा पर जो जुल्म ढाये, जो अत्याचार किये, वे पाशविकता और बर्बरता की सीमाएं लांघ चुके थे। जहां‡जहां क्रान्ति की ज्वाला भड़की थी, वहां‡वहां अंग्रेजों ने ‘बिज्जन’ किया। इसका अर्थ होता है, उस गांव या शहर के छ: वर्ष के बालक से साठ वर्ष के बूढ़े तक, सभी को अंग्रेजों ने खत्म किया, मार दिया। ऐसा ‘बिज्जन’ झांसाी में हुआ, कानपुर के पास बिठुर में हुआ, मेरठ के आस‡पास के गांवों में हुआ। अर्थात सन्देश स्पष्ट था‡ अंग्रेज भारतीयों के मन में इतनी जबरदस्त दहशत पैदा कर देना चाहते थे कि आने वाले सौ वर्षों तक भारतीयों के मन में न स्वतंत्रता का विचार आये, न स्वाभिमान की लहर उठे..!

स्वामी विवेकानंद का जन्म ऐसी विषम परिस्थिति में हुआ है। 1863 का निर्जीव, निस्तेज, निर्णायकी भारत… और मात्र 39 वर्ष और 5 महीने में ऐसा कौन सा जादू चल जाता है कि सारा देश गरजने लगता है…? 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के मात्र तीन वर्ष बाद बंगाल में ‘बंग‡भंग’ का अभूतपूर्व आन्दोलन खड़ा होता है। ऐसा सफल आन्दोलन जिसमें अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ता है और आन्दोलन प्रारम्भ होने के मात्र छह वर्षों में उन्हें अपनी राजधानी कलकत्ता (जो आज कोलकाता है) से दिल्ली में स्थानांतरित करनी पड़ती है!
1863 का बुझा-बुझा सा दिखने वाला भारत वर्ष 1902 में दहाड़ रहा है… जागृत ज्वालामुखी सा लग रहा है… इस ‘सम्पूर्ण परिवर्तन’ (लिाश्रिशींश ीींरिीषिीारींळिि) में स्वामीजी की भूमिका निश्चित है।

1886 में अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी की मृत्यु के पश्चात स्वामी विवेकानंद के मन में परिव्राजक बनकर देशाटन करने की योजना है। उन्हें इस देश को समझना है। किन्तु जिम्मेदारियों के चलते तत्काल निकलना सम्भव नहीं हो रहा है। लगभग 2 वर्ष के पश्चात 1888 में स्वामी देशाटन को निकलते हैं। देशाटन का यह क्रम 1893 के मध्य तक चला है। याने लगभग चार से पांच वर्ष। इस अन्तराल में स्वामीजी ने मानो घड़ी की सुई के विपरीत दिशा में भारत वर्ष की परिक्रमा की है। इस सम्पूर्ण प्रवास में स्वामीजी अनेक लोगों से मिले हैं। अनेक नव युवकों से उन्होंने संवाद किया है। अनेक भाषण उन्होंने दिये हैं । उनके सभी सम्बोधनों का सूत्र है‡ ‘हे भारतीयों जागो…उठो…तुम में अपार शक्ति है। अद्भुत चेतना है। उसका उपयोग करो। अमृत के पुत्र हो तुम.. समाज में जाओ। समाज बलशाली बनेगा, तो देश सुदृढ़ होगा…!’

स्वामीजी के विचारों की मोहिनी इतनी जबरदस्त रहती थी कि लोग उनके पास खिंचे चले आते थे। उनके पहले शिष्य, हाथरस के स्टेशन मास्टर श्री शरदचंद्र गुप्ता, जिन्हें बाद में स्वामी सच्चिदानंद कहा गया, स्वामीजी के विचारों की अपेक्षा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। किन्तु अधिकतम स्थानों पर स्वामीजी के भाषणों से प्रभावित होकर लोग उनसे जुड़ना चाहते थे। अलवर के प्रवास में स्वामीजी के पास वहां के युवक संस्कृत सीखने और उस बहाने स्वामीजी को सुनने के लिए आते थे। ये सारे युवक इतने प्रभावित थे कि जब स्वामीजी अलवर छोड़कर जाने लगे तो ये बारह, पन्द्रह युवक भी उनके साथ हो लिये। स्वामीजी ने बड़े प्रयास से उनको अपने साथ आने से रोका।
लाहौर की सभा में स्वामीजी का भाषण सुनकर तीर्थराम गोस्वामी नाम के युवा प्राध्यापक इतने प्रभावित हुए कि उनकी पत्नी की अल्पायु में मृत्यु होने के पश्चात वे सर्वसंग परित्याग कर स्वामीजी द्वारा बताये मार्ग पर चलने लगे। आगे यही युवा प्राध्यापक स्वामी रामतीर्थ नाम से देश-विदेश में विख्यात हुए।

ऐसे अनगिनत उदहारण हैं। स्वामीजी सबसे पहले 1890 में जब अल्मोड़ा गये थे तो स्वाभाविकत: न शिष्य परिवार था और न ही कोई सम्पर्क। अल्मोड़ा के खजांची बाजार में श्री बद्री सहाय ‘टूलधारी’ जी रहा करते थे। अल्मोड़ा के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और लाला बद्री सहाय नाम से जाने जाते थे। ‘टूलधारी’ उनका उपनाम था। उन्होंने स्वामीजी को अपने यहां आमंत्रित किया। स्वामीजी उस प्रवास में और बाद में 1897 के मध्य में जब पुन: अल्मोड़ा गये थे, तब भी बद्री सहाय जी के ही यहां रहे। वहां स्वामीजी से चर्चा होती थी। चर्चा में स्वामीजी ने बताया कि ‘ईश्वर की मूर्ति को हमें कुछ समय के लिए बगल में रखना चाहिए। समाज पुरुष यही हमारा ईश्वर है। समाज की और राष्ट्र की पूजा याने साक्षात ईश्वर की पूजा…!’ स्वाभाविकत: बद्री सहाय जी ने पूछा, ‘यह बात किसी वेद, उपनिषद या पुराण में लिखी है? और यदि नहीं, तो हम आपकी बात क्यों माने?’

स्वामीजी ने तुरंत वेद और उपनिषदों में उल्लेखित ऋचाओं के सन्दर्भ दिये। बद्री सहाय जी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सारे सन्दर्भ स्वामी जी से उतार लिये और बाद में वाराणसी जाकर उन ग्रन्थों का अध्ययन किया। स्वामीजी के बताये हुए विचार उन ग्रंथों में मिल रहे थे। बाद में स्वामीजी की मृत्यु के पश्चात बद्री सहाय जी ने इस विषय पर एक पुस्तक लिखी जिसे लोकमान्य तिलक ने आशीर्वचन दिये। 1921 में यह पुस्तक ‘दैशिकशास्त्र’ नाम से प्रकाशित हुई। स्व. दीनदयाल उपाध्याय इस पुस्तक से बड़े प्रभावित थे। उन्होंने राष्ट्र के ‘चिती’ और ‘विराट’ की संकल्पनाएं इस पुस्तक से ही ली थीं।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं। स्वामीजी की दृष्टि राष्ट्रीय थी। उन्होंने कभी भी कर्मकाण्ड का आडम्बर नहीं किया। जब भी उद्बोधन दिया, उसमें समाज का, राष्ट्र का विचार प्रमुखता से दिया। अनेक क्रान्तिकारियों के स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण मठ के अन्य संन्यासियों से गहरे सम्बन्ध थे। अंग्रेजों ने स्वामीजी पर नजर भी रखी थी। सन 1901 का कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन कलकत्ता में था। दिसम्बर में हुए इस अधिवेशन के समय स्वामीजी कलकत्ता में ही थे। किन्तु उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। कांग्रेस के अधिवेशन में आने वाले सभी प्रमुख नेता स्वामीजी से मिलने बेलूर मठ में पहुंचते थे। किन्तु स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण स्वामीजी उनसे नहीं मिल सके। गांधीजी भी उन नेताओं में से थे, जो स्वामीजी से नहीं मिल सके।

किन्तु लोकमान्य तिलक भाग्यशाली रहे। स्वामीजी से उनकी भेंट हुई, एक-दो दिन नहीं, पूरे छ:- सात दिन । रोज लोकमान्य तिलक बेलूर मठ में आते थे और स्वामीजी से उनका वार्तालाप होता था। वहां उपस्थित स्वामी निश्चयानंद, जो रामकृष्ण मठ के एक मराठी भाषी संन्यासी थे, ने लिख रखा है कि इन दो महापुरुषों के वार्तालाप के समय अन्य शिष्यों की उपस्थिति वर्जित रहती थी।
अंग्रेजों की इस भेंट पर पैनी नजर थी। उन्होंने इसके और अधिक तथ्य खोजने की कोशिश की, अंग्रेजों को इसमें एक बड़े साजिश की बू आ रही थी।

इतनी बात तो निश्चित है कि इस भेंट के बाद से ही तिलक जी के वक्तव्यों में ‘दरिद्र नारायण’ शब्द प्रयोग आने लगा। ‘नर सेवा‡नारायण सेवा’ की बात वे करने लगे।

अर्थात हम किसी भी पहलू से देखें तो यह बात सुनिश्चित है कि स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा क्रान्तिकारियों को, स्वतंत्रता संग्रम सेनानियों को मिली। स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्सेलिस में पकड़े जाने के बाद, काले पानी‡अण्डमान जाने तक रोज स्वामी जी की कर्मयोग पुस्तक पढ़ते थे। जब अण्डमान में इस पुस्तक को ले जाने की अनुमति नहीं मिली तो वहां पर सत्याग्रह करके सावरकर जी ने कैदियों के लिए वाचनालय बनवाया और उसमें सबसे पहले ‘विवेकानंद साहित्य’ मंगवाया। सोते हुए भारतीय लोगों में चैतन्य रस निर्माण करना, उनमें आत्मविश्वास जगाना और उन्हें समाज और राष्ट्र के कार्य से जोड़ना, यह स्वामी विवेकानंद की प्रमुख उपलब्धि रही, जिसके कारण भारतीय स्वतंत्रता संग्रम को बल मिला और अंग्रेजों के विरोध में देश खड़ा होने लगा…!

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